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क़सीदा (अरबी: قصيدة) शायरी का वह रूप है जिसमें किसी की प्रशंसा की जाए। कुछ शायर अपने बेहतरीन क़सीदों के लिए विख्यात हुए हैं, जैसे कि मिर्ज़ा मुहम्मद रफ़ी सौदा।[1] क़सीदे लिखने का रिवा अरबी संस्कृति से आया है, जहाँ यह इस्लाम के आगमन से बहुत पूर्व से लिखे जा रहे हैं।[2]
'क़सीदा' में 'क़' अक्षर के उच्चारण पर ध्यान दें क्योंकि यह बिन्दु रहित वाले 'क' से ज़रा भिन्न है। इसका उच्चारण 'क़ीमत' और 'क़रीब' के 'क़' से मिलता है। यह एक अरबी-मूल का शब्द है और 'क़सादा' शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ 'ध्येय या नीयत रखना' है।[3]
क़सीदों में हर शेर का दूसरा मिस्रा एक ही रदीफ़ और क़ाफ़िया (तुकान्त) में होता है। क़सीदे दो प्रकार के होते हैं। एक वह, जिसमें कवि प्रारम्भ से ही प्रशंसा करने लगता है और दूसरा वह जिसमें प्रारम्भ में एक तरह की भूमिका दी जाती है और कवि और बातों के अलावा वसन्त, बहार, दर्शन, ज्योतिष आदि के विषय में कुछ कहता है। इन प्रारम्भिक वर्णनों को तश्बीब कहते हैं। तश्बीब के बाद कवि प्रशंसा करने की ओर अपने शेरों को मोड़ता है। इस मोड़ को गुरेज़ कहते है। इसका वर्णन बहुत मुश्किल समझा जाता है और इसी के द्वारा शायर के कमाल का अनुमान होता है। अच्छी गुरेज़ वह है जिसमें कवि 'तश्बीब' (वर्णन) से 'तारीफ़' (प्रशंसा) पर इस प्रकार आ जाए कि पढने वालों को यह पता ही न चले कि प्रशंसा का विषय ठूँस-ठाँसकर लाया गया है। क़सीदे के तीसरे अंग 'मदह' (प्रशंसा) के बाद चौथा अङ्ग 'दुआ' होता है, जिसमें कवि 'ममदूह' (प्रशंसित व्यक्ति) के लिए शुभकामनाएँ करता हुआ उससे कुछ याचना करता है। इसी के बाद क़सीदा समाप्त हो जाता है।[4]
लखनऊ के प्रसिद्ध शायर 'नासिख़' द्वारा लिखे किसी घोड़े पर एक क़सीदे का अंश इस प्रकार है:[5]
मूल जुमले | टीका | |
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