कर्णप्रयाग
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कर्णप्रयाग उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत गढ़वाल मण्डल के चमोली जिले का एक कस्बा है।यह अलकनंदा तथा पिण्डर नदियों के संगम पर स्थित है। पिण्डर का एक नाम कर्ण गंगा भी है, जिसके कारण ही इस तीर्थ संगम का नाम कर्ण प्रयाग पडा। यहां पर उमा मंदिर और कर्ण मंदिर दर्शनीय है। यहाँ से राष्ट्रीय राजमार्ग ७ और राष्ट्रीय राजमार्ग १०९ गुज़रते हैं।[1][2][3]
कर्णप्रयाग Karnaprayag | |
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कर्णप्रयाग में अलकनंदा नदी (बाई ओर) और पिण्डर हिमनद (बीच में) का संगम होता है | |
निर्देशांक: 30.261°N 79.217°E | |
ज़िला | चमोली ज़िला |
प्रान्त | उत्तराखण्ड |
देश | भारत |
ऊँचाई | 1451 मी (4,760 फीट) |
जनसंख्या (2011) | |
• कुल | 8,297 |
भाषाएँ | |
• प्रचलित | हिन्दी, गढ़वाली |
अलकनंदा एवं पिंडर नदी के संगम पर बसा कर्णप्रयाग धार्मिक पंच प्रयागों में तीसरा है जो मूलरूप से एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ हुआ करता था। बद्रीनाथ मंदिर जाते हुए साधुओं, मुनियों, ऋषियों एवं पैदल तीर्थयात्रियों को इस शहर से गुजरना पड़ता था। यह एक उन्नतिशील बाजार भी था और देश के अन्य भागों से आकर लोग यहां बस गये क्योंकि यहां व्यापार के अवसर उपलब्ध थे। इन गतिविधियों पर वर्ष 1803 की बिरेही बाढ़ के कारण रोक लग गयी क्योंकि शहर प्रवाह में बह गया। उस समय प्राचीन उमा देवी मंदिर का भी नुकसान हुआ। फिर सामान्यता बहाल हुई, शहर का पुनर्निर्माण हुआ तथा यात्रा एवं व्यापारिक गतिविधियां पुन: आरंभ हो गयी।
कर्णप्रयाग का नाम कर्ण पर है जो महाभारत का एक केंद्रीय पात्र था। उसका जन्म कुंती के गर्भ से हुआ था और इस प्रकार वह पांडवों का बड़ा भाई था। यह महान योद्धा तथा दुखांत नायक कुरूक्षेत्र के युद्ध में कौरवों के पक्ष से लड़ा। एक किंबदंती के अनुसार आज जहां कर्ण को समर्पित मंदिर है, वह स्थान कभी जल के अंदर था और मात्र कर्णशिला नामक एक पत्थर की नोक जल के बाहर थी। कुरूक्षेत्र युद्ध के बाद भगवान कृष्ण ने कर्ण का दाह संस्कार कर्णशिला पर अपनी हथेली का संतुलन बनाये रखकर किया था। एक दूसरी कहावतानुसार कर्ण यहां अपने पिता सूर्य की आराधना किया करता था। यह भी कहा जाता है कि यहां देवी गंगा तथा भगवान शिव ने कर्ण को साक्षात दर्शन दिया था।
पौराणिक रूप से कर्णप्रयाग की संबद्धता उमा देवी (पार्वती) से भी है। उन्हें समर्पित कर्णप्रयाग के मंदिर की स्थापना 8वीं सदी में आदि शंकराचार्य द्वारा पहले हो चुकी थी। कहावत है कि उमा का जन्म डिमरी ब्राह्मणों के घर संक्रीसेरा के एक खेत में हुआ था, जो बद्रीनाथ के अधिकृत पुजारी थे और इन्हें ही उसका मायका माना जाता है तथा कपरीपट्टी गांव का शिव मंदिर उनकी ससुराल होती है।
कर्णप्रयाग नंदा देवी की पौराणिक कथा से भी जुड़ा हैं; नौटी गांव जहां से नंद राज जाट यात्रा आरंभ होती है इसके समीप है। गढ़वाल के राजपरिवारों के राजगुरू नौटियालों का मूल घर नौटी का छोटा गांव कठिन नंद राज जाट यात्रा के लिये प्रसिद्ध है, जो 12 वर्षों में एक बार आयोजित होती है तथा कुंभ मेला की तरह महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। यह यात्रा नंदा देवी को समर्पित है जो गढ़वाल एवं कुमाऊं की ईष्ट देवी हैं। नंदा देवी को पार्वती का अन्य रूप माना जाता है, जिसका उत्तरांचल के लोगों के हृदय में एक विशिष्ट स्थान है जो अनुपम भक्ति तथा स्नेह की प्रेरणा देता है। नंदाष्टमी के दिन देवी को अपने ससुराल – हिमालय में भगवान शिव के घर – ले जाने के लिये राज जाट आयोजित की जाती है तथा क्षेत्र के अनेकों नंदा देवी मंदिरों में विशेष पूजा होती है।
कर्णप्रयाग की संस्कृति उत्तराखंड की सबसे पौराणिक एवं अद्भुत नंद राज जाट यात्रा से जुड़ी है। नौटी गांव (20 किलोमीटर दूर) के नौटियाल इस क्षेत्र के सर्वप्रथम वासी थे। वे कनक पाल के साथ यहां आये थे। कनक पाल ने 9वीं शताब्दी में पंवार वंश की स्थापना की थी। कर्णप्रयाग की संस्कृति मिश्रित है। यहां के धुनियार सदियों पहले तीर्थयात्रियों को पिंडर नदी के पार सुरक्षित पहुंचाते थे ताकि वे बद्रीनाथ की यात्रा जारी रख सकें। कर्णप्रयाग के निकट गांवों में रहने वाले चरवाहे जो राजस्थान, महाराष्ट्र एवं गुजरात के परिवारों के वंशज थे, वे कर्णप्रयाग आकर यात्रियों को दूध एवं मेवे की आपूर्ति किया करते थे। यहां के कुमाऊंनी परिवार भी मसालों का व्यापार करने आएं और यहीं बस गये और ऐसी ही डिमरी एवं भंडारी ब्राह्मण भी अपनी जीविका चलाने के लिये किया। आज शहर के वासी इन्हीं लोगों के वंशज हैं। बीते वर्षों की तरह आज भी कर्णप्रयाग के लोग अधिकांशत: उन तीर्थयात्रियों एवं यात्रियों की सेवाओं में नियोजित हैं, जो चारधामों की यात्रा पर जाते हुए यहां रूकना पसंद करते हैं।
गीतों एवं नृत्यों का सामुदायिक जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान होता है तथा इनकी गहरी जड़ें, कृषि, संस्कृति एवं धर्म के चक्रों से जड़ित हैं। जग्गरों का आयोजन गांवों में होता है और अब ये शहरी क्षेत्रों में सामान्य नहीं होते। इन अवसरों पर स्थानीय देवी-देवताओं का आवाहन गीतों तथा नृत्यों द्वारा समुदाय में शामिल होने के लिये किया जाता है और इसका समापन तब होता है जब देवी या देवता भीड़ के किसी सदस्य के ऊपर आ जाये। महाभारत की कुछ घटनाओं की अनुकृति पांडव नृत्य भी मंचन कला का सामान्य रूप होता है।
जीतू बगड़वाल या एक स्थानीय नायक या नायिका पर आधारित गीत तथा नंदा देवी की प्रशंसा के गीत भी सामान्य हैं, विशेषकर नंद राज जाट के समय। गीत एवं नृत्य का साथ ढ़ोल एवं दामों निभाते हैं जिसे दास कहे जाने वाले एक विशेष जाति के लोग बजाते हैं।
गढ़वाली, हिंदी, कुमाऊंनी, भोटिया बोली तथा थोड़ी बहुत अंग्रेजी।
परंपरागत घर पत्थर एवं गाड़ों से बने होते हैं जिनकी छतें स्लेट के टुकड़ों की होती है। स्थानीय रूप से प्रचुर देवदार या चीड़ की लकड़ियों का इस्तेमाल धरणों, दरवाजों, खिड़कियों के ढ़ांचों तथा इन छोटे दो मंजिले भवनों की बाल्कनियों में होता है। नीचे की मंजिल का इस्तेमाल मवेशियों को बांधने या उनके लिये चारा रखने के लिये होता था। संपन्न परिवारों के घरों में खोली पर कुछ गहन लकड़ी की नक्काशी होती जिसके ऊपर सुंदर रूप से गढ़ी लकड़ी की एक गणेश की प्रतिमा होती जिन्हें खोली का गणेश कहा जाता। साथ ही ऐसी नक्काशी बालकनी धारण किये ब्रेकेट पर भी होती थी।
इसके विपरित आज के आधुनिक घरों में स्थान की उपयोगिता पर अधिक बल दिया जाता है जबकि पहले की तुलना में उतना सौंदर्य बोध नहीं होता।
पुल और सड़क बनने से पहले कर्णप्रयाग के धुनियार अपनी जीविका तीर्थयात्रियों को पिंडर नदी के पार पहुंचाकर चलाते थे। इस उद्देश्य के लिये उस चट्टान का इस्तेमाल होता था जो नदी के बीच उदित थी, एवं आज भी है। इस शिला के दोनों ओर लकड़ी के टुकड़ों को उड़द की दाल एवं चूना मिलाकर बने गाड़े से उन्हें आपस में जोड़ दिया जाता था। इन लकड़ी पर चलने में धुनियार यात्रियों का मार्ग दर्शन कर उन्हें सुरक्षित नदी के पार पहुंचा देते ताकि वे बद्रीनाथ की यात्रा जारी रख सकें। पुराने वासियों के अन्य समुदायों में शामिल हैं डिमरी ब्राह्मण जो प्राचीन उमा देवी मंदिर के परंपरागत पुजारी हैं तथा डिमरियों को उमा देवी का मायका जबकि भंडारियों को उनकी ससुराल माना जाता है।
तोलचा भोटिया लोग प्रारंभिक व्यापारी थे जो मात्र जाड़ों में अपने हिमालय पार व्यापार के लिये कर्णप्रयाग आते थे और बाद में यहीं बस गये। वे परिश्रमी लोग हैं तथा दूकानें, होटल तथा भोजनालयों को चलाने जैसे अधिकांश व्यावसायिक कार्यों का वे संचालन कर रहे हैं। उन्होंने डॉक्टरों, इंजीनियरों एवं प्रशासकों के रूप में सरकारी नौकरी भी प्राप्त कर ली है। कुमाऊंनी लोग दो-तीन पीढ़ियों पहले बद्रीनाथ जैसे ऊंचे स्थान पर आपूर्ति कार्य में लग जाने के कारण कर्णप्रयाग आ गये। कुमाऊं से आने वाले भट्टों एवं जोशियों को चट्टी चौधरी कहा जाता क्योंकि वे व्यापारिक तौर पर सफल थे।
पुरूषों एवं महिलाओं का परंपरागत परिधान लावा होता था जो जाड़े में एक कंबलनुमा ऊनी कपड़े से सिर से पैर तक शरीर को ढंक लेने वाला एक वस्त्र होता जिसे एक साथ सूई-संगल से बांधे रखा जाता था एवं गर्मियों में एक काला चादर (सूती लावा) होता। बाद में पुरूष लंगोट या धोती तथा मिर्जई पहनने लगे। बाद में कुर्त्ता पायजामा पहनावा बन गया और इसके ऊपर एक ऊनी जैकेट या कोट तथा सिर पर एक गढ़वाली टोपी होता। उस समय कोट पहनना सामाजिक संपन्नता का परिचायक होता था एवं उन दिनों प्राय: पूरे गांव में मात्र एक कोट ही उपलब्ध होता जिसे बारी-बारी से विशेष अवसरों पर लोग पहना करते। विवाह के अवसरों पर दूल्हे के लिये कोट एवं पीली धोती पहनने का रिवाज था, जो स्थानीय रामलीला में राम की भूमिका वाला पात्र पहना करता।
महिलाएं, धोती (साड़ीनुमा कपड़े का एक लंबा टुकड़ा) तथा अंगड़ा या ब्लाऊज एवं पगड़ा धारण करती जो उनकी कमर के इर्द-गिर्द बंधा एक लंबा कपड़ा होता और काम करते समय चोट लगने से इनकी पीठ को बचाता। इस परिधान को एक साफा पूर्ण कर देता जो सिर ढ़कता था।
परंपरागत जेवर सोने के होते और इनमें बुलाक (नाक के नथुनों के बीच की बाली जो चिबुक एक झूलता), नथनी, गला बंद (हार), हंसुली (मोटे चांदी का जेवर गले के चारों ओर रहता तथा संपन्न वर्ग के लिये सोने का होता) तथा एक धागुला जिसे पुरूष एवं महिलाएं दोनों पहनते शामिल था। महिलाएं चांदी का मुर्खालास भी धारण करती जो कान के ऊपरी भाग में चांदी की बालियों का गुच्छा होता।
जबकि आस-पास के गांवों में पुरूष एवं महिलाएं अब भी परंपरागत परिधान एवं जेवर धारण करते हैं, शहरी क्षेत्रों में पौशाक अधिक आधुनिक हो गये हैं तथा महिलाएं सलवार, कमीज एवं साड़ियां पहनने लगी हैं जबकि पुरूष पैंट-शर्ट या जींस टी-शर्ट पहनने लगे हैं।
इन क्षेत्रों में खेती बड़े पैमाने पर सीढ़ीनुमा खेतों (सोपान कृषि) होती है। परंपरागत तौर पर गेहूं, चावल, मडुआ एवं झंगोरी के अलावा अन्य अन्नों में कौनी, चीना, आलू, चोलाई, गैथ, उड़द तथा सोयाबीन भी उपजाये जाते हैं। यहां उपजने वाले फल कफाल, खूबानी तथा आडू हैं जो पुराने समय में यात्रियों को बेचा जाता था जो एक परंपरागत पेशा था।
ऊन एवं मांसोत्पादन के लिये भेड़ पालना, ऊन, कताई एवं बुनाई तथा अन्य ग्रामीण उद्योगों से कृषि आय को पूरा किया जाता था। वास्तव में, गांव के प्रत्येक परिवार में भेड़ एवं बकरों के बाल से ऊन बनाये जाते थे। इस कार्य की अधिकता के कारण प्राचीन कर्णप्रयाग को भेड़ गांव कहां जाता था तथा भूमि रिकार्डों में अभी भी यही दर्ज है। पिंडर नदी के पार का इलाका ही प्रयाग कहलाता है। परंपरागत रूप से दूध के लिये मवेशी पालन किया जाता जिनसे मिठाईयां बनाकर यात्रियों को बेचा जाता।
परंपरागत गांव की अर्थव्यवस्था आत्म निर्भर होती थी। समुदाय के बीच कार्यों का बंटवारा होता तथा विनिमय प्रणाली द्वारा वस्तुओं तथा सेवाओं का आदान-प्रदान होता। प्रत्येक गांव में अपना रूडिया (श्रमिक) लोहार, नाई, दास, पंडित तथा धोंसिया होता जो ईष्ट देवी-देवताओं की पूजा के समय हरकू बजाता।
परंपरागत भोजन में जौ या चोलाई की रोटी, कौनी या झिंगोरा का भात, चैंसूई, कोडा, फानू, बड़ी तथा पायस एवं बिच्छू का साग शामिल होता।
कर्णप्रयाग, अलकनंदा तथा पिंडर नदी का संगम है जो ऊंचाई पर पिंडर हिमनदी से निकलती है। यह धार्मिक पंच केदारों में देवप्रयाग तथा रूद्रप्रयाग से पहले तीसरा प्रयाग तथा मनोहर स्थान है। छोटी पहाड़ियों से घिरा यह शहर पिंडर नदी के दोनों किनारे पर बसा है। संगम के समीप एक शिला पर कर्ण को समर्पित मंदिर स्थित है, जिसके नाम पर कर्णप्रयाग नाम पड़ा।
इस शहर में भी वही पेड़ होते है जो मैदानों में उगते हैं। इनमें आम, अमरूद, अनार, अखरोट एवं यूकेलिप्टस के पेड़ शामिल हैं। पहाड़ियों पर अर्द्धविकसित लेंटाना तथा बिच्छु बुटियां फैले हैं। पिंडर नदी में विभिन्न प्रकार की मछलियां – महसीर, ट्राऊट, कार्प – पाई जाती है।.
शहर के इर्द-गिर्द के इलाकों में बाघ, भालू और गीदढ़ होते हैं। शहरीकरण के कारण अब ये बहुत कम दिखाई देते हैं।
अलकनंदा एवं पिंडर नदियों के संगम पर बसा कर्णप्रयाग एक सुसुप्त शहर है जहां जाड़ों में अलसाये भाव से लोग धूप सेकते नजर आते हैं। गर्मियों में यात्रा मौसम के दौरान अकस्मात यह एक जाग्रत कार्यकलापों का दृश्य उपस्थित करता है क्योंकि यात्रियों से भरी बसें यहां लगातार आती रहती है और यात्री या तो विश्राम करते या रात्रि में ठहरते हैं। पर्यटक सुविधाओं के अलावा इस शहर में यात्रियों को देखने एवं करने को बहुत कुछ उपलब्ध है।
कर्णप्रयाग छोटा होते हुए भी काफी बड़े क्षेत्र में फैला है क्योंकि आस-पास के कई गांव नगर पंचायत क्षेत्र में शामिल कर लिये गये है। आप ऋषिकेश से जब कर्णप्रयाग में प्रवेश करते है तो पुराना शहर पिंडर नदी के दाहिने तट पर स्थित है। नदी पर पुल को पार कर आप उमा देवी मंदिर तथा प्रयाग के घाट पहुंच जाते हैं। यह सड़क आगे बद्रीनाथ की ओर चली जाती है। शहर में कई बाजार, होटल, लॉज एवं भोजनालय हैं, जो बद्रीनाथ जाते हुए यात्रियों एवं तीर्थयात्रियों की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं।
यहां से 7 किलोमीटर दूर रानीखेत सड़क पर सिमली एक औद्योगिक केंद्र विकसित हो रहा है। उपकरणों, रसायनों, औषधियों, टायर-मरम्मत, मुर्गी पालन केंद्र तथा दुग्धोत्पादन जैसे उद्योगों को यहां प्रोत्साहित किया जा रहा है।
उमा देवी मंदिर के समीप सीढ़ियों से नीचे उतरकर पिंडर एवं अलकनंदा नदियों के संगम घाट पर पहुंचा जा सकता है। आप जब संगम पर उतरते है तो आप के सम्मुख एक शिव मंदिर आता है, मंदिर में एक प्राचीन शिवलिंग स्थापित है जबकि मंदिर का पुनरूद्धार हाल ही में हुआ है। मंदिर के आर-पार एक विशाल पीपल का पेड़ है जिसका धड़ रक्षा सूत्र से लपेटा हुआ हैं जो अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिये भक्तों ने बांधे हैं। और नीचे गंगा मंदिर है जो गंगा मंदिर संगम तट अन्नक्षेत्र द्वारा संचालित है। 10-12 वर्षों पहले इस मंदिर का निर्माण एक भक्त द्वारा कराया गया जबकि अन्नक्षेत्र की स्थापना 20 वर्षों पहले की गयी।
गंगा आरती प्रतिदिन शाम में गर्मियों में 7.30 बजे अन्नक्षेत्र के सदस्यों द्वारा संगम पर आयोजित होती है, जिसे 6 वर्ष पहले आरंभ किया गया।
किंबदंती अनुसार आज जहां मंदिर है वह स्थान कभी जल के अंदर था और कर्णशिला नामक चट्टान की नोक ही जल के ऊपर उदित थी। कुरूक्षेत्र की युद्ध समाप्ति के बाद भगवान कृष्ण ने कर्ण का दाह संस्कार अपनी हथेली पर किया था जिसे उन्होंने संतुलन के लिये कर्णशिला की नोंक पर रखा था। एक अन्य कहावतानुसार कर्ण अपने पिता सूर्य की यहां आराधना किया करता था। यह भी कहा जाता है कि देवी गंगा और भगवान शिव व्यक्तिगत रूप से कर्ण के सम्मुख प्रकट हुए थे।
यह मंदिर संगम के बायें किनारे अवस्थित है जो कर्ण के नाम पर ही है। पुराने मंदिर का हाल ही जीर्णोद्धार हुआ है तथा मानवाकृति से भी बड़े आकार की कर्ण एवं भगवान कृष्ण की प्रतिमाएं यहां स्थापिक है। परिसर में अन्य छोटे मंदिरों में भूमियाल देवता, राम, सीता एवं लक्ष्मण, भगवान शिव एवं पार्वती को समर्पित मंदिर शामिल हैं।
मंदिर की स्थापना 8वीं सदी में आदि शंकराचार्य द्वारा हुई जबकि उमा देवी की मूर्ति इसके बहुत पहले ही स्थापित थी। कहा जाता है कि संक्रसेरा के एक खेत में उमा का जन्म हुआ। एक डिमरी ब्राह्मण को देवी ने स्वप्न में आकर अलकनंदा एवं पिंडर नदियों के संगम पर उनकी प्रतिमा स्थापित करने का आदेश दिया। डिमरियों को उमा देवी का मायके माना जाता है जबकि कापरिपट्टी के शिव मंदिर को उनकी ससुराल समझा जाता है। हर कुछ वर्षों बाद देवी 6 महीने की जोशीमठ तक गांवों के दौरे पर निकलती है। देवी जब इस क्षेत्र से गुजरती है तो प्रत्येक गांव के भक्तों द्वारा पूजा, मडान तथा जाग्गरों का आयोजन किया जाता है जहां से वह गुजरती है। जब वह अपने मंदिर लौटती है तो एक भगवती पूजा कर उन्हें मंदिर में पुनर्स्थापित कर दिया जाता है। इस मंदिर पर नवरात्री समारोह धूम-धाम से मनाया जाता है।
यहां पूजित प्रतिमाओं में उमा देवी, पार्वती, गणेश, भगवान शिव तथा भगवान विष्णु शामिल हैं। वास्तव में, उमा देवी की मूर्ति का दर्शन ठीक से नहीं हो पाता क्योंकि इनकी प्रतिमा दाहिने कोने में स्थापित है जो गर्भगृह के प्रवेश द्वार के सामने नहीं पड़ता। वर्ष 1803 की बाढ़ में पुराना मंदिर ध्वस्त हो गया तथा गर्भगृह ही मौलिक है। इसके सामने का निर्माण वर्ष 1972 में किया गया।
मंदिर के पुजारी, आर पी पुजारी, पुजारियों की चतुर्थ पीढ़ी के हैं जो पीढ़ियों से मंदिर के प्रभारी पुजारी रहे हैं। यहां पुजारियों के दस परिवार हैं जो रोस्टर प्रणाली के अनुसार बारी-बारी से कार्यभार संभालते हैं। ये परिवार ही सरकार की सहायता के बिना ही मंदिर की देखभाल एवं रख-रखाव करते हैं।
कर्णप्रयाग के आस-पास घुमने पर आप कुछ प्राचीन स्थलों पर पहुंचेगें जो गढ़वाल की गौरवशाली विरासत के भाग है और बीते काल के निपुण कारीगरों के उत्तम कौशल को प्रदर्शित करते हैं। यहां से आप नौटी भी जा सकते है, जहां से हर 12 वर्ष बाद नंद राज जाट की ऐतिहासिक यात्रा आरंभ होती है। इस यात्रा का आयोजन पिछले 1500 वर्षों से चल रहा है।
गढ़वाल का प्रारंभिक इतिहास कत्यूरी राजाओं का है, जिन्होंने जोशीमठ से शासन किया और वहां से 11वीं सदी में अल्मोड़ा चले गये। गढ़वाल से उनके हटने से कई छोटे गढ़पतियों का उदय हुआ, जिनमें पंवार वंश सबसे अधिक शक्तिशाली था जिसने चांदपुर गढ़ी (किला) से शासन किया। कनक पाल को इस वंश का संस्थापक माना जाता है। उसने चांदपुर भानु प्रताप की पुत्री से विवाह किया और स्वयं यहां का गढ़पती बन गया। इस विषय पर इतिहासकारों के बीच विवाद है कि वह कब और कहां से गढ़वाल आया।
यह रानीखेत मार्ग पर कर्णप्रयाग से 17 किलोमीटर दूर तथा चांदपुर गढ़ी से 3 किलोमीटर दूर है। चांदपुर गढ़ी से 3 किलोमीटर आगे जाने पर आपके सम्मुख अचानक प्राचीन मंदिर का एक समूह आता है जो सड़क की दांयी ओर स्थित है। किंबदंती है कि इन मंदिरों का निर्माण स्वर्गारोहिणी पथ पर उत्तराखंड आये पांडवों द्वारा किया गया। यह भी कहा जाता है कि इसका निर्माण 8वीं सदी में शंकराचार्य द्वारा हुआ। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षणानुसार के अनुसार इनका निर्माण 8वीं से 11वीं सदी के बीच कत्यूरी राजाओं द्वारा किया गया। कुछ वर्षों से इन मंदिरों की देखभाल भारतीय पुरातात्विक के सर्वेक्षणाधीन है।
कर्णप्रयाग नंदा देवी की पौराणिक कथा से भी जुड़ा हैं; नौटी गांव जहां से नंद राज जाट यात्रा आरंभ होती है इसके समीप है। गढ़वाल के राजपरिवारों के राजगुरू नौटियालों का मूल घर नौटी का छोटा गांव कठिन नंद राज जाट यात्रा के लिये प्रसिद्ध है, जो 12 वर्षों में एक बार आयोजित होता है तथा कुंभ मेला की तरह महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। यह यात्रा नंदा देवी को समर्पित है जो गढ़वाल एवं कुमाऊं की ईष्ट देवी हैं। नंदा देवी को पार्वती का अन्य रूप माना जाता है, जिसका उत्तरांचल के लोगों के हृदय में एक विशिष्ट स्थान है जो अनुपम भक्ति तथा स्नेह की प्रेरणा देता है। नंदाष्टमी के दिन देवी को अपने ससुराल – हिमालय में भगवान शिव के घर – ले जाने के लिये राज जाट आयोजित की जाती है तथा क्षेत्र के अनेकों नंदा देवी मंदिरों में विशेष पूजा होती है। नंद राज जाट कनक पाल (जिसने 9वीं शताब्दी में पंवार वंश की स्थापना की) के समय से पहले चली आ रही है। कुछ लोगों के मतानुसार राज जाट एक प्राचीन तीर्थयात्रा है जो शासक शाहीपाल के समय से ही होती है। स्थानीय लोकगीतों के अनुसार शाहीपाल की राजधानी चांदपुर गढ़ी में थी। उसने यहां एक तांत्रिक यंत्र गड़वाकर अपनी संरक्षिका नंदा देवी की स्थापना नौटी में की। यह भी संभव है कि प्राचीन काल में जो गढ़पती इस क्षेत्र में राज्य करते थे वह सब नंदा देवी के नाम पर यात्राएं निकालते थे। पंवार वंश के 37वें वंशज अजय पाल ने जब इन गढ़पतियों को परास्त किया तो उसने इन सब यात्राओं के एक बड़ी यात्रा के रूप में परिवर्तित कर दिया।
कर्णप्रयाग यात्रा के लिये वर्षभर एक अच्छा स्थान बना रहता है। फिर भी जून के अंत से सितंबर तक बरसात में न जाना ही अच्छा है क्योंकि भूस्खलन के कारण सड़कें अवरूद्ध हो जाती है।
कर्णप्रयाग से 228 किलोमीटर दूर निकटतम हवाई अड्डा जॉली ग्रांट है।
200 किलोमीटर दूर ऋषिकेश निकटतम रेल स्टेशन है।
हरिद्बार, ऋषिकेश तथा देहरादून से बस एवं टैक्सी सहज उपलब्ध होती हैं।
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