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आल्हाजी बारहठ

कवि और घोड़ों के व्यापारी (14 वीं- 15वीं शताब्दी) विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश

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आल्हाजी बारहठ (जिन्हें आल्हाजी रोहड़िया भी कहा जाता है) 14 वीं शताब्दी के कवि और घोड़ों के व्यापारी थे, जिन्होंने मंडोर के शासक राव चुंडा, जिन्हें मारवाड़ में राठौड़ शासन की नींव डालने का श्रेय दिया जाता है, को उसके बचपन में आश्रय प्रदान करने के लिए जाना जाता है।

सामान्य तथ्य आल्हाजी बारहठ, जन्म ...
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परिवार

आल्हाजी बारहठ रोहड़िया वंश के एक चारण थे। [1] [2] इनका जन्म जैसलमेर के हडुवा गाँव के एक समृद्ध परिवार में भांणोजी बारहठ के यहाँ हुआ था। आल्हाजी एक कुशल कवि थे और साथ ही घोड़े और मवेशियों का भी व्यापार करते थे। उस समय इनके पास ५०० गायें थी। इनके नौकर-चाकरों के दस घर थे, जो साथ में ही रहते और मवेशी की देख-रेख किया करते थे। युवावस्था में पदार्पण करते ही इन्होंने अपनी जन्म-भूमि हङुवा को त्याग दिया और पोकरण से करीब बीस मील दक्षिण में ‘काळाऊ’ नामक ग्राम में आकर निवास किया।[3]

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चुंडा को आश्रय

आल्हाजी राजस्थान के जोधपुर में स्थित कलाऊ नामक अपने कस्बे में रहते थे। महेवा के शासक और चुंडा के पिता वीरमदेव राठौड़ 1383 ईस्वी के आसपास जोहियों के खिलाफ युद्ध में मारे गए थे। उस समय चुंडा मात्र एक बच्चा था। चुंडा की माँ, जिन्हें मांगलियानीजी कहा जाता है, चुंडा की सुरक्षा को लेकर आशंकित थी और उसके लिए सुरक्षा की तलाश करना चाहती थी। वह कलाउ के आल्हाजी बारहठ के पास गई और चुंडा को उन्हें सौंप दिया। [4] [5] [6] [7] [8] [9]

कहा जाता है कि आल्हाजी के अधीन चुंडा की सुरक्षा सुनिश्चित करने के बाद, मांगलियानीजी सती हो गई थी। [1] [10] [11]

आल्हाजी ने चुंडा की असली पहचान छुपाते हुए चुंडा को १४ वर्ष तक अपनी शरण में पाला। बड़े होते हुए चुंडा आल्हाजी की गायों को चराया करता था। [2] [1]

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रावल मल्लीनाथ से भेंट

सारांश
परिप्रेक्ष्य

एक दिन, चुंडा गायों-मवेशियों को चराने के दौरान थक गया और एक पेड़ के नीचे सो गया। जब आल्हाजी वहाँ पहुंचे, तो उन्होंने देखा कि चुंडा के सिर पर एक सांप छाया किए हुए बैठा था, जबकि वह सो रहा था। आल्हाजी ने इस घटना को चुंडा के भाग्य में एक शासक बनने के संकेत के रूप में लिया और उसे प्रशिक्षण देना शुरू किया। [2] [7] [9] [1]

बाद में, उपयुक्त समय आने पर, आल्हाजी ने चुंडा को घोड़े और हथियारों से लैस किया और महेवा की यात्रा कर और उसे रावल मल्लीनाथ के सामने पेश किया, और चुंडा की वास्तविक पहचान उनके(रावल के) भतीजे के रूप में सामने लाये। मल्लीनाथ ने चुंडा को सलोदी का एक थाना प्रदान किया। [2] [5] [6] [7] [9]

चुंडा ने एक योद्धा के रूप में अपना कौशल दिखाया और अपने क्षेत्र का विस्तार करना शुरू कर दिया। इधर मंडोवर के इंदा-प्रतिहारों और तुर्कों के बीच संघर्ष चल रहा था। आल्हाजी ने इंदा रायधवल एवं उसके बंधुओं से कहा कि तुम्हारे पास पर्याप्त सैन्य बल नहीं है। अत: मंडोवर के गढ़ की रक्षा ठीक तरह से नहीं हो सकेगी। ऐसी परिस्थिति में यही श्रेयस्कर होगा कि चूंडा का विवाह रायधवल अपनी पुत्री के साथ कर दे और मंडोवर का किला उनको दहेज में दे, ताकि चूंडा मंडोवर के किले की समुचित रूप से रक्षा कर सके। अतः 1395 में, मंडोर, इंदा राजपूतों से संधि में, राव चुंडा को दहेज के रूप में दिया गया और अंत में वह राठौड़ों की राजधानी बना। [3]

आल्हाजी की सहायता से मंडोवर का राज्य प्राप्त करने के बाद चूंडा का प्रभाव दिन दूना और रात चौगुना बढ़ने लगा।इस प्रकार राव चुंडा को राठौड़ आधिपत्य विरासत में मिला और राठौड़ों को सीमांत महेवा से मंडोर तक ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। [1] [2] [9] [7] [12]

पुनर्मिलन

राव चूंडा को मंडोर के सिंहासन पर स्थापित होने के कुछ वर्ष बाद, अल्हाजी ने चुंडा को याद किया और उससे मिलने की इछा हुई। वह चुंडा से मिलने मंडोर गये जहां वे दरबार में रहे लेकिन अपना परिचय देने की जरूरत नहीं समझी। शुरू में जब चुंडा ने उन्हें दरबारियों के बीच आल्हाजी को नहीं पहचाना तब कहा जाता है कि एक दिन अल्हाजी ने यह दोहा कहा था: [13]

अधिक जानकारी डिंगल, अनुवाद ...

यह सुनकर चूंडा को आल्हाजी की उपस्तिथी का आभास हुआ और वह उनके अभिवादन के लिए उठ खड़ा हुआ। चूंडा को अपने बाल्यावस्था के सारे दिन ध्यान में आ गये, जो उन्होंने आल्हाजी के घर पर बिताये थे। शीघ्र ही उनका यथोचित सम्मान किया गया। चूंडा ने आल्हाजी को अपना आधा राज्य देना चाहा, किन्तु इन्होंने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। बहुत आग्रह करने पर इन्होंने केवल बारह कोस लम्बी व बारह कोस चौड़ी जमीन अपनी गायों एवं घोड़ों के चारागाह के लिए लेना स्वीकार किया।[3]

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विरासत

वर्तमान में, उसी जमीन में आज भोंडू, सियांधा और चक-डैर नामक तीन ग्राम बसे हुए हैं और आल्हाजी के वंशज आज तक इनका उपभोग करते आ रहे हैं। आल्हाजी के दो पुत्र हुए-बड़े पुत्र का नाम दूल्हाजी एवं छोटे का जेठाजी था। चूंडा ने इनको कई दूसरे गांव भी जागीर में दिए। दूल्हाजी के एक पुत्री माल्हण देवी हुई, जो शक्ति का अवतार मानी जाती है। इस प्रकार आल्हाजी का महान त्याग, निःस्वार्थ भाव, प्राचीन क्षत्रिय-चारण संबंध-निर्वाह, स्पष्टवादिता और चूंडा का इनके प्रति आभार प्रदर्शन सर्वथा स्तुत्य है।[3]

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ग्रन्थकारिता

आल्हाजी ने 'वीरमायण' नामक कृति की रचना की थी, जिसकी एक खंडित प्रति जोधपुर के शुभकरण कविया के यहाँ प्राप्त हुई।[15] इस रचना में 90 से 160 तक छंद हैं। यह चूंडा के पिता वीरमदेव पर आधारित है, जो अंततः जोहिया के साथ युद्ध में मारा जाता है।[16] यह राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर द्वारा प्रकाशित और लक्ष्मी कुमारी चुंडावत द्वारा संपादित 'वीरवाण' (1960 ई.) से भिन्न है। उदयराज उज्ज्वल के अनुसार, इस कृति की तीन मूल प्रतियाँ अल्हाजी के वंशजों के पास सुरक्षित है।[3]

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संदर्भ

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