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भारत के इतिहास में तीन आंग्ल-मराठा युद्ध हुए हैं। ये तीनों युद्ध 1775 ई. से 1818 ई. तक चले। ये युद्ध ब्रिटिश सेनाओं और 'मराठा महासंघ' के बीच हुए थे। इन युद्धों का परिणाम यह हुआ कि मराठा महासंघ का पूरी तरह से विनाश हो गया। मराठों में पहले से ही आपस में काफ़ी भेदभाव थे, जिस कारण वह अंग्रेज़ों के विरुद्ध एकजुट नहीं हो सके। जहाँ रघुनाथराव ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी से मित्रता करके पेशवा बनने का सपना देखा, और अंग्रेज़ों के साथ सूरत की सन्धि की, वहीं बाजीराव द्वितीय ने बसीन भागकर अंग्रेज़ों के साथ पहली बसीन की सन्धि(1803-06) की और दूसरी बसिन कि संधि(1817-1818) की स्वतंत्रता को बेच दिया। पहला युद्ध(1775-1782 ई.) रघुनाथराव द्वारा महासंघ के पेशवा (मुख्यमंत्री) के दावे को लेकर ब्रिटिश समर्थन से प्रारम्भ हुआ। जनवरी 1779 ई. में बड़गाँव में अंग्रेज़ पराजित हो गए, लेकिन उन्होंने मराठों के साथ सालबाई की सन्धि (मई 1782 ई.) होने तक युद्ध जारी रखा। इसमें अंग्रेज़ों को बंबई (वर्तमान मुंबई) के पास 'सालसेत द्वीप' पर क़ब्ज़े के रूप में एकमात्र लाभ मिला। 1818 ई. में बाजीराव द्वितीय ने अंग्रेज़ों के आगे आत्म समर्पण कर दिया। अंग्रेज़ों ने उसे बन्दी बनाकर बिठूर भेज दिया था, जहाँ 1853 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। मराठों के पतन में मुख्य भूमिका बाजीराव द्वितीय की ही रही थी, जिसने अपनी क़ायरता और धोखेबाज़ी से सम्पूर्ण मराठों और अपने कुल को कलंकित किया था।
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अंगेज़ों और मराठों के मध्य तीन आंग्ल-मराठा युद्ध हुए-
सालबाई संधि (1782) निम्न शर्ते थी– 1. अंग्रेजो ने राघोवा का साथ छोड़ने का आश्वासन दिया और पेशवा के द्वारा रागोबा को 25 हजार रुपए मासिक स्वीकार कर ली। 2. अंग्रेजो ने सालसोट तथा भड़ोस से अपना अधिकार त्याग दिया। 3. अंग्रेजो ने माधवराव द्वितीय को पेशवा स्वीकार कर लिया। 4. यमुना नदी के पश्चिम प्रदेश पर सिंधिया का अधिकार कायम रहा।
प्रथम आंग्ल मराठा युद्ध 1775 - 1782 ई. तक चला। राघोवा (रघुनाथराव) ईस्ट इंडिया कम्पनी से सांठ-गांठ करके स्वयं पेशवा बनने का सपना देखने लगा था। उसने 1775 ई. में अंग्रेज़ों से सूरत की सन्धि की, जिसके अनुसार बम्बई सरकार राघोवा से डेढ़ लाख रुपये मासिक ख़र्च लेकर उसे 2500 सैनिकों की सहायता देगी। इस सहायता के बदले राघोवा ने अंग्रेज़ों को बम्बई के समीप स्थित सालसेत द्वीप तथा बसीन को देने का वचन दिया। जिसमें पुरंदर की संधि हुई जिसके अनुसार सालसेट बाम्बे और बडोंच् प्रदेश एक दूसरे को सोपना था फिर सूरत की संधि को स्वीकार किया गया1778 ई. में कम्पनी सेना की बड़गाँव नामक स्थान पर भंयकर हार हुई और उसे बड़गाँव में सलबाई (1782) की सन्धि करनी पड़ी। इस संधि को अस्वीकार कर दी और इस हार के बावजूद भी वारेन हेस्टिंग्स ने सलबाईं की सन्धि होने तक युद्ध को जारी रखा था।
द्वितीय-आंग्ल मराठा युद्ध 1803 - 1805 ई. तक चला। बाजीराव द्वितीय को अपने अधीन बनाने के पश्चात अंग्रेज़ इस बात के लिए प्रयत्नशील थे कि, वे होल्कर, भोसलें तथा महादजी शिन्दे को भी अपने अधीन कर लें। साथ ही वे अपनी कूटनीति से उस पारस्परिक कलह और फूट को बढ़ावा भी देते रहे, जो मराठा राजनीति का सदा ही एक गुण रहा था| इस युद्ध के बाद अंग्रेज मराठों से निम्नलिखित सन्धियां करते हैंं
--1803 में भोसले परिवार से देवगाव की सन्धि
--1803 में सिन्धिया परिवार से सुर्जीअर्जनगाव की सन्धि
--1805 में होल्कर परिवार से राजपुरघाट की संधि
तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध 1817 - 1818 ई. तक चला। यह युद्ध अन्तिम रूप से लॉर्ड हेस्टिंग्स(1813-1823) के भारत अंग्रेजी क्षेत्र)के गवर्नर-जनरल बनने के बाद लड़ा गया। अंग्रेजों ने पेशवा को 13 जून 1817 को तथा 5 नवम्बर, 1817 में दौलतराव सिंधिया के साथ ग्वालियर की सन्धि की, जिसके अनुसार महादजी शिन्दे पिंडारियों के दमन में अंग्रेजों का सहयोग करेगा और साथ ही चंबल नदी से दक्षिण-पश्चिम के राज्यों पर अपना प्रभाव हटा लेगा। जून, 1817 में अंग्रेजों ने से पूना की सन्धि की, जिसके तहत पेशवा ने 'मराठा संघ' की अध्यक्षता त्याग दी।
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