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असरारुल हक़ मजाज़ (१९११-१९५५) उर्दू के प्रगतिशील विचारधारा से जुड़े रोमानी शायर के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। लखनऊ से जुड़े होने से वे 'मजाज़ लखनवी' के नाम से भी प्रसिद्ध हुए। आरंभिक उपेक्षा के बावजूद कम लिखकर भी उन्होंने बहुत अधिक प्रसिद्धि पायी।
मजाज़ का असली नाम असरारुल हक़ था।[1] आगरा में रहते समय उन्होंने 'शहीद' उपनाम अपनाया था। बाद में उन्होंने 'मजाज़' उपनाम अपने नाम के साथ जोड़ा।[2] उनका जन्म १९ अक्टूबर १९११ को उत्तरप्रदेश के बाराबंकी जिले के रुदौली गाँव में हुआ था; हालाँकि फ़िराक़ गोरखपुरी के अनुसार उनकी जन्म-तिथि २ फरवरी १९०९ है।[3] प्रकाश पंडित ने भी यही जन्म-तिथि मानी है।[4] उनके पिता का नाम चौधरी सिराजुल हक़ था। चौधरी सिराजुल हक़ रुदौली के संभवतः पहले व्यक्ति थे जिन्होंने एलएलबी की डिग्री ली थी, फिर भी वकालत के बजाय उन्होंने नौकरी को ही पसंद किया और लखनऊ में रजिस्ट्रेशन विभाग में हेड क्लर्क हो गये। तरक्की करते हुए 1929 में वे असिस्टेंट रजिस्ट्रार हो गये थे। असरारुल हक़ की शिक्षा आगरा में हुई थी। अमीनाबाद इंटर कॉलेज से उन्होंने हाई स्कूल पास किया था। १९२९ में उन्होंने आगरा की प्रसिद्ध शैक्षणिक संस्था सेंट जॉन्स कॉलेज में इंटर साइंस में दाखिला लिया। उनके पिता उन्हें इंजीनियर बनाना चाहते थे, इसलिए भौतिकी एवं गणित के विषय उन्हें दिलवाये गये।[2] परंतु, मजाज़ की रुचि साइंस में बिल्कुल नहीं थी। इसलिए वे इंटर पास नहीं हो पाये और अलीगढ़ आकर एक बार फिर उन्हें इंटरमीडिएट से शुरू करना पड़ा। इस बार वे साइंस की बजाय आर्ट्स में दाखिल हुए और उत्तीर्ण भी हुए।[5] सन् १९३१ में उन्हें कॉलेज के एक मुशायरे में बेहतरीन ग़ज़ल पर गोल्ड मेडल भी मिला था। १९३५ में उन्होंने अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से बी॰ए॰ पास किया। बी॰ए॰ के बाद उन्होंने एम॰ ए॰ में भी नामांकन करवाया, परंतु अधिक रूचि न होने के कारण वे एम॰ ए॰ पूरा नहीं कर सके। शायरी के अलावा मजाज़ को हॉकी में भी अच्छी रुचि थी और वे हॉकी के अच्छे खिलाड़ी थे।[2]
असरारुल हक़ मजाज़ ने पहली नौकरी ऑल इंडिया रेडियो में की थी। १९३५ में एक साल तक ऑल इंडिया रेडियो की पत्रिका 'आवाज़' के सहायक संपादक भी रहे थे। परंतु, अधिक दिनों तक नौकरी नहीं रह सकी।[2] दिल्ली में उन्हें न नौकरी में सफलता मिली न इश्क में। मार्च १९३९ में सिबते हसन, अली सरदार जाफरी और मजाज़ ने मिलकर उर्दू में 'नया अदब' नाम से पत्रिका निकाली[6], जो आर्थिक कठिनाइयों के कारण अधिक दिनों तक प्रकाशित नहीं हो पायी। १९४० में मजाज़ पर नर्वस ब्रेकडाउन का पहला आघात हुआ। बेरोजगारी और भविष्य की ओर से निराशा ने अंदर ही अंदर उन्हें खोखला कर दिया था। लखनऊ में इलाज के बाद में ठीक हो गये और बड़ी बहन के साथ अल्मोड़ा चले गये। कुछ माह बाद नीरोग होकर वे वापस आये।[7] मई १९४२ से १९४५ तक उन्होंने हार्डिंग लाइब्रेरी में नौकरी की। यहीं १९४५ में दूसरी बार नर्वस ब्रेकडाउन का हमला हुआ। शायरी जगत् में उनकी अधिक कद्र नहीं हो रही थी और अपनी शायरी का उचित मूल्यांकन नहीं होना सहन नहीं कर पाने के कारण भी वे अधिक मदिरापान करने लगे थे और पुनः नर्वस ब्रेकडाउन का शिकार हो गये थे।[8] १९५२ में उन्हें नर्वस ब्रेकडाउन का तीसरा दौरा पड़ा। उन्हें दिल्ली से लखनऊ लाया गया। उन्हें सँभालने वाला कोई नजदीकी नहीं था। खराब स्थिति में ही वे अमन कॉन्फ्रेंस में कोलकाता गये थे। वहाँ दौरा बहुत बढ़ गया तो उनके भाई अंसारी हिरवानी और दोस्त यूसुफ़ इमाम कोलकाता पहुँचे और उनको बहला-फुसलाकर हवाई जहाज से राँची ले गये और राँची अस्पताल में उनका दाखिला करवा दिया गया। वहाँ उर्दू के मशहूर लेखक सुहैल अज़ीमाबादी ने उनकी बड़ी मदद की। वहाँ छह माह इलाज के बाद नीरोग होकर वे घर वापस आये। वापस आने के कुछ समय बाद ही उनकी बहन सफ़िया अख़्तर का देहांत हो गया। यह भी मजाज़ के लिए बड़ा सदमा था।[8] ५ दिसंबर १९५५ को लखनऊ में रात में दस बजकर बाईस मिनट पर उनका देहांत हो गया।[9]
'मजाज़' प्रगतिशील आंदोलन के प्रमुख हस्ती रहे अली सरदार जाफ़री के निकट संपर्क में थे और इसलिए प्रगतिशील विचारधारा से प्रभावित भी थे। स्वभाव से रोमानी शायर होने के बावजूद उनके काव्य में प्रगतिशीलता के तत्त्व मौजूद रहे हैं। उपयुक्त शब्दों का चुनाव और भाषा की रवानगी ने उनकी शायरी को लोकप्रिय बनाने में प्रमुख कारक तत्त्व की भूमिका निभायी है। उन्होंने बहुत कम लिखा, लेकिन जो भी लिखा उससे उन्हें काफी प्रसिद्धि मिली।
सामान्यतः उर्दू शायरी का बखिया उधेड़ने वाले प्रसिद्ध आलोचक कलीमुद्दीन अहमद ने मजाज़ के काव्य में भी अनेक कमियाँ दिखलायी है: फिर भी यह माना है कि उनकी गजलों के विषय अवश्य नये हैं और उसमें उस प्रकार की संपृक्तता व क्रमबद्धता भी पायी जाती है जो क्रमबद्ध ग़ज़लों में होती हैं। 'नज़रे-दिल', 'आज की रात', 'मजबूरियाँ' इन सब ग़ज़लों की रचना में परिश्रम किया गया है।[10] ..शब्दों पर उनका अधिकार है और वर्णन शैली में प्रवाह व प्रफुल्लता है।[11]
सज्जाद ज़हीर ने मजाज़ की प्रतिभा, कवित्व-शक्ति एवं विषय-वैशिष्ट्य को एक साथ निरूपित करते हुए लिखा है कि "हालाँकि अपनी प्रतिभा के बल पर वे समाजवादी दर्शन और विचारधारा के साथ-साथ प्रचलित राजनीतिक विचारों की जानकारी रखते थे; लेकिन वे ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील नहीं दिखाई देते थे। किसी काम को व्यवस्थित रूप से और धैर्य के साथ करना उनके बस की बात न थी। उनके मिज़ाज में एक लतीफ़ और दिलकश रंगीनी थी। वे सुंदर और संगीतात्मक शब्दों और तरकीबों (समस्त पद) के प्रयोग द्वारा अपने शे'रों में हर्ष, उल्लास और रूमानियत के ऐसे वातावरण के निर्माण में समर्थ थे जिसके माध्यम से वे अपने समय के मुक्ति-आकांक्षी नौजवानों की बेचैन आत्मा को अपनी रचनाओं में समाहित कर लेते थे। यह आत्मा समाज के उन दक़ियानूसी बंधनों से मुक्ति के लिए व्यग्र थी जिन्होंने उनके लिए मानसिक प्रगति, आध्यात्मिक सुख और शारीरिक आनंद से वंचित कर रखा है। जिन्होंने स्वच्छंद और मनोवांछित करने के अधिकार को नौजवानों से छीन लिया है, उनके सोच को बंधक बना लिया है और जो ग़रीबी के बेरहम तीनों का निशाना बनाकर जीवन की तरंगों को हताशा, दुर्भाग्य और करुण वेदना में बदल देते हैं। वे बहुत जल्द उर्दू दाँ तालीमयाफ़्ता नौजवान लड़कों और शायद उनसे भी ज़्यादा लड़कियों के सबसे महबूब शायर बन गए।"[12]
वस्तुतः मजाज़ की मूल चेतना रोमानी है। इनके काव्य में प्रेम की हसरतों और नाकामियों का बड़ा व्यथापूर्ण चित्रण हुआ है। आरंभ में मजाज़ की प्रगतिशील रचनाओं के पीछे भी एक रोमानी चेतना थी, मगर धीरे-धीरे इनकी विचारधारा का विकास हुआ और मजाज़ अपने युग की आशाओं, सपनों, आकांक्षाओं और व्यथाओं की वाणी बन गये। मजाज़ ने दरिद्रता, विषमता और पूँजीवाद के अभिशाप पर बड़ी सशक्त क्रांतिकारी रचनाएँ की हैं, मगर काव्य के प्रवाह और सरसता में कहीं कोई बाधा नहीं आने दी।[13]
सुप्रसिद्ध शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने मजाज़ की क्रांतिवादिता एवं कवित्व के बारे में लिखा है :
"मजाज़ की क्रांतिवादिता आम शायरों से भिन्न है।.. मजाज़ क्रांति का प्रचारक नहीं, क्रांति का गायक है। उसके नग़मे में बरसात के दिन की सी आरामदायक शीतलता है और वसंत की रात की सी प्रिय उष्णता की प्रभावात्मकता।"[14]
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