1866 का उड़ीसा अकाल
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1866 के उड़ीसा अकाल ने भारत के पूर्वी तट पर मद्रास प्रैज़िडन्सी के उत्तर वाले क्षेत्र को प्रभावित किया। यह क्षेत्र 180,000 वर्ग मील का था और इसकी आबादी 4,75,00,000 थी।[1] अकाल का प्रभाव, हालांकि, उड़ीसा (अब ओडिशा) में सर्वाधिक था, जो उस समय की सीमित परिवहन सुविधाओं के कारण शेष भारत से कटा हुआ था।[2] इस अकाल ने ओडिशा की एक तिहाई आबादी को मार डाला।[3]
1865 में वर्षा में कमी के साथ, भोजन की कमी के कारण पैदावार में गिरावट आई। बंगाल के राजस्व विभाग ने स्थिति की गंभीरता नहीं भाँप पाया और अकाल से निपटने के लिए पर्याप्त तैयारी नहीं की। मई 1866 में अकाल की गंभीरता का एहसास होने के बाद, ब्रिटिश सरकार ने राहत कार्य की व्यवस्था की। खराब मौसम से उड़ीसा में समुद्र के किनारे भोजन करने के प्रयास में देरी हुई। उड़ीसा के समुद्र तट पर भेज दी जाने वाली खाद्य आपूर्ति परिवहन की कमी के कारण उड़ीसा के आंतरिक इलाकों में नहीं भेजी जा सकी। अकाल से निपटने के लिए औपनिवेशिक शासकों द्वारा आयात किए गए 10,000 टन चावल लोगों तक सितंबर 1866 में पहुंच पाए। तब तक अकेले उड़ीसा में दस लाख लोग भुखमरी और महामारी से मर चुके थे। दो वर्षों में पूरे क्षेत्र में कुल चालीस से पचास लाख लोग अकाल से मारे गए।
सरकार ने अगले साल 40,000 टन चावल का आयात किया, जिससे उम्मीद थी कि अकाल पर नियंत्रण पा लिया जाएगा। लेकिन 1866 और 1867 में मानसून कम ही रहा, और पैदावार इतनी अधिक थी कि 1868 में अकाल समाप्त हो गया। सरकार ने अकाल राहत कार्यों पर कुल 95 लाख खर्च किए।