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हिन्दी भाषा का व्याकरण लिखने के प्रयास काफी पहले आरम्भ हो चुके थे। अद्यतन जानकारी के अनुसार हिन्दी व्याकरण का सबसे पुराना ग्रंथ बनारस के दामोदर पण्डित द्वारा रचित द्विभाषिक ग्रंथ उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण सिद्ध होता है।[1] यह बारहवीं शताब्दी का है। यह समय हिंदी का क्रमिक विकास इसी समय से प्रारंभ हुआ माना जाता है। इस ग्रंथ में हिन्दी की पुरानी कोशली या अवधी बोली बोलने वालों के लिए संस्कृत सिखाने वाला एक मैनुअल है, जिसमें पुरानी अवधी के व्याकरणिक रूपों के समानान्तर संस्कृत रूपों के साथ पुरानी कोशली एवं संस्कृत दोनों में उदाहरणात्मक वाक्य दिये गये हैं। 'कोशली' का लोक प्रचलित नाम वर्तमान में 'अवधी' या 'पूर्वीया हिन्दी' है। १६७५ई. से कुछ पूर्व ब्रज भाषा के व्याकरण का एक ग्रंथ मिर्ज़ा ख़ान इब्न फ़ख़रूद्दीन मुहम्मद द्वारा लिखा गया है। १६ पृष्ठों के तुहफ़तुल हिन्द नामक इस संक्षिप्त ग्रंथ में हिन्दी साहित्य के विविध विषयों का विवेचन है जो क्रमशः इस प्रकार हैं - व्याकरण, छन्द, तुक, अलंकार, शृंगार रस, संगीत, कामशास्त्र, सामुद्रिक शास्त्र और शब्दकोष। १८९८ में एक डच विद्वान योन योस्वा केटलार द्वारा लिखे गए हिंदी व्याकरण के प्रमाण भी मिलते हैं। हिंदी विद्वान सुनीति कुमार चटर्जी भी अपने लेखों में इस ग्रंथ का उल्लेख मिलता है।
ॿोली ! भावनाउनि - विचारनि खे पधिरो करिण जो वसीलो हूंदी आहे ऐं जहिं ॿोलीअ में ईहे गुण वधिक हुजनि, इन्हं ई ॿोलीअ खे, सभिनी खां सुठी ऐं आदर्शु (आईडियल) ॿोली मञिणु घुरिजे .
सिन्धीअ में भावनाउनि ऐं निराले गुणनि खे पधिरो करिण वारे ॿोलनि मां हिकिड़ो ॿोलु आहे 'भवाइतो', जहिंजो रूपु संस्कृत में 'भयप्रद', हिन्दीअ में 'भयानक' ऐं साॻी माना में उर्दूअ जे 'ख़ौफ़नाक़' ऐं अंग्रेज़ीअ जे 'Terrible' जा नरु, नारि जाति (लिंग, ज़िन्स) ऐं ॻणप (वचन - अदद) कणि, घणि (एकवचन, बहुवचन) जा रूप न ठहंदा आहिनि ऐं न ई कारक रूप .
जॾहिं त सिन्धीअ में इन्हं जा चारि -- भवाइतो -- भवाइता, भवाइती -- भवाइतियूं ऐं कर्ता कारक जा बि चारि -- भवाइतो > 'भवाइते', भवाइता > 'भवाइतनि, भवाइती > 'भवाइतीअ' ऐं भवाइतियूं > 'भवाइतुनि' मिलाए कुलु अठ रूप ठहंदा आहिनि .
संस्कृत में कर्ता कारक जा रूप न ठहंदा आहिनि, पर हिन्दी ऐं उर्दूअ में अलॻि 'ने' आहे, जेको सिन्धीअ जे 'न - नि' जो रूपु आहे -- जीअं त - हो -- हुन, (वह > उस -- उसने), हू -- हुननि (वे > उन - उन्होंने).
इन्हं तरह 'सुंहिंणो' ऐं 'मोहिणो' ऐं एढ़नि ॿियनि ॿोलिनि जा बि अठ - अठ रूप ठहंदा आहिनि . पर संस्कृत ऐं हिन्दीअ जे 'सोहन' ऐं 'मोहन' - 'मोहक' ऐं उर्दूअ जे 'ख़ूबसूरत' ऐं 'दिलकश' जा रूप न ठहंदा आहिनि .
सिन्धीअ जा एढ़ा ॿिया बि केई गुण आहिनि, जेके अञा ताईं पधिरो न कया वया आहिनि .
इन्हंनि रूपनि मां साबितु थे थो त सिन्धीअ जी भावनाउनि खे पधिरो करिण जी सघ ॿियनि ॿोलिनि खां अठूणी आहे ऐं सिन्धीअ जो व्याकरणु ऐं कारक रचिना सभिनी ॿोलिनि खां सघारी ऐं आदर्शु बि आहे .
केटलार व्याकरण के लैटिन अनुवाद के प्रकाशन के एक वर्ष बाद ही प्रख्यात मिशनरी बेंजामिन शुल्ट्स का ग्रामाटिका हिन्दोस्तानिका Grammtica Hindostanica (हिन्दुस्तानी व्याकरण) सन् 1744 में प्रकाशित हुआ। यह व्याकरण लैटिन भाषा में है, जिसका पाँच पंक्तियों का पूर्ण शीर्षक डॉ॰ ग्रियर्सन ने Linguistic Survey of India, Vol IX, Part I के पृ. 8 पर दिया है। शुल्ट्स को केटलार व्याकरण की जानकारी थी और अपनी भूमिका में इसका उल्लेख किया। हिन्दुस्तानी शब्द फारसी/अरबी लिपि में रोमन लिप्यंतरण सहित दिये गये हैं। देवनागरी लिपि की भी व्याख्या है। मूर्घन्य अक्षरों की ध्वनि की उसने उपेक्षा की है और (लिप्यंतरण में) सभी महाप्राण अक्षरों की। पुरुषवाचक सर्वनामों के एकवचन और बहुवचन रूपों का उसे ज्ञान था, परन्तु सकर्मक क्रियाओं के भूतकाल में कर्ता में प्रयुक्त 'ने' विभक्ति के बारे में वह अनभिज्ञ था।
सन् 1771 में कापुचिन मिशनरी कासिआनो बेलिगाति द्वारा भाषा में लिखित "Alphabetum Brammhanicum" रोम से प्रकाशित हुआ। इसमें नागरी के साथ-साथ भारत की अन्य प्रमुख लिपिओं को चल टाइपों में मुद्रित किया गया है और इन पर विस्तृत विवेचना की गयी है। इसके भूमिका-लेखक Johannes Christophorus Amaditius (Amaduzzi) ने भारतीय भाषाओं के बारे में उस समय वर्तमान ज्ञान का सम्पूर्ण विवरण दिया है।
यह बहुत प्रसन्नता की बात है कि केटलार व्याकरण के लैटिन अनुवाद, शूल्ट्स व्याकरण एवं Alphabetum Brammhanicum के भूमिका सहित नागरी लिपि संबंधी अंश का हिन्दी अनुवाद अभी उपलब्ध है। 16 हिन्दी भाषा एवं लिपि के अध्ययन के लिए इन तीनों प्राचीनतम कृतियों का ऐतिहासिक महत्त्व है।
जार्ज हेडली (Hadley) का व्याकरण सन् 1772 में लंदन से प्रकाशित हुआ। इसके तरन्त बाद इससे बेहतर व्याकरण प्रकाशित हुए, जैसे - किसी अज्ञात लेखक का पोर्तुगीज़ भाषा में Gramatica Indostana रोम से 1778 में, जो हेडली के व्याकरण की अपेक्षा बहुत विकसित था। कलकत्ते के फोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दुस्तानी विभाग के अध्यक्ष डॉ॰ जॉन बॉर्थविक गिलक्राइस्ट का "A Grammar of the Hindoostanee Language" सन् 1796 में प्रकाशित हुआ। यह व्याकरण उनके "A System of Hindoostanee Philology", खंड-1 का तीसरा भाग था।
भाषा ! भावनाओं - विचारों को प्रकट करने का माध्यम होती है और जिस भाषा में ऐसे गुण अधिक हों, उसी को सबसे समर्थ और आदर्श (आईडियल) भाषा मानना चाहिए .
सिन्धी में भावनाओं और निराले गुणों को प्रकट करने वाले शब्दों में से एक शब्द है 'भवाइतो' -- जिसका रूप संस्कृत में 'भयप्रद', हिन्दी में 'भयानक' उर्दू में समानार्थी 'ख़ौफ़नाक़' और अंग्रेज़ी में Terrible के लिंग और वचन के रूप नहीं बनते और न ही कारक रूप .
जबकि सिन्धी में 'भवाइतो' के चार -- भवाइतो (पुर्लिंग, एक वचन) -- भवाइता (पुर्लिंग, बहु वचन), भवाइती (इस्त्रीलिंग, एक वचन) -- भवाइतियूं (इस्त्रीलिंग, बहु वचन) और कर्ता कारक 'ने' के अर्थ वाले चार -- भवाइतो > 'भवाइते' (पुर्लिंग, एक वचन), भवाइता > 'भवाइतनि' (पुर्लिंग, बहुवचन), भवाइती > 'भवाइतीअ' (इस्त्रीलिंग, एकवचन) ऐं भवाइतियूं > 'भवाइतुनि' (इस्त्रीलिंग, बहुवचन), मिलाकर कुल अाठ रूप बनते हैं .
संस्कृत में कर्ता कारक के रूप नहीं बनते, पर हिन्दी और उर्दू में कर्ता कारक 'ने' है, जो सिन्धी के 'न - नि' का रूप है -- जैसे कि -- हो -- हुन (वह > उस -- उसने), हू -- हुननि (वे > उन - उन्होंने) .
इस तरह सिन्धी के 'सुंहिंणो' ऐं 'मोहिणो' आदि शब्दों के भी अाठ - अाठ रूप बनते हैं. पर संस्कृत और हिन्दी के 'सोहन' और 'मोहन' - 'मोहक' तथा उर्दू के 'ख़ूबसूरत' और 'दिलकश' के रूप नहीं बनते .
सिन्धी के एेसे दूसरे भी कई गुण हैं, जिनको अभी तक प्रकट नहीं किया गया है .
इन रूपों से प्रमाणित हो जाता है कि सिन्धी में भावनाओं को प्रकट करने की सामर्थ्य, दूसरी भाषाओं से अाठ गुनी अधिक है -- सिन्धी का व्याकरण एवं कारक रचना सभी भाषाओं से अधिक समर्थ और आदर्श भी है .
(सिन्धी भाषा के हित में इस लेख को अंग्रेज़ी में शेयर करें) प्रेम तनवाणी - 9685943880 साभार : डॉ लाल थदानी पूर्व अध्यक्ष राजस्थान सिन्धी अकादमी जयपुर ।
इस अवधि में प्रकाशित व्याकरणों की विस्तृत सूची ग्रियर्सन ने Languistic Survey of India, Vol. IX, Part 1 में दी है। यहाँ कुछ व्याकरणों का ही उल्लेख किया जायेगा। सन् 1801 में हेरासिम लेबेदेफ़ द्वारा लिखित "A Grammar of the pure and mixed East Indian Dialects" लंदन से प्रकाशित हुआ। 17 इसमें लेखक ने अपनी जीवनी भी दी है। 'प्रेमसागर' के रचयिता लल्लू लाल का ब्रज भाखा व्याकरण सन् 1811 में कलकत्ते से प्रकाशित हुआ। जॉन शेक्सपियर का "A Grammar of the Hindustani Language" लंदन से 1813 में छपा (पाँचवा संस्करण 1846 में और बाद में 1858 में) कैप्टन विलियम प्राइस का "A new Grammar of the Hindustani Language" लंदन से 1827 में प्रकाशित हुआ। विलियम याटेस का "Introduction to the Hindustani Language" कलकत्ते से 1827 में छपा, जिसका छठा संस्करण 1855 में प्रकाशित हुआ। इसका 1836 का संस्करण डेक्कन कॉलेज, पुणे के पुस्तकालय में उपलब्ध है। इसकी भूमिका में लेखक का कहना है कि हिन्दुस्तानी मुस्लिम लोगों की भाषा है, जबकि हिन्दी हिन्दुओं की। रेवरेंड एम टी ऐडम का "हिन्दी भाषा का व्याकरण" कलकत्ते से 1827 में प्रकाशित हुआ। यह व्याकरण प्रश्न एवं उत्तर के रूप में बच्चों के लिए लिखा गया था। यह पुस्तक कई वर्षों तक स्कूलों में प्रचलित रही।
W. एण्ड्रू का A Comprehensive synopsis of the eiements of Hindustani Grammar और सैन्फोर्ड आर्नोट का A new self-instructing grammar of the Hindustani tongue लंदन में क्रमशः 1930 एवं 1931 में प्रकाशित हुआ। Garcin de Tassy और Joseph Heliodore ने मिलकर फ्रेंच भाषा में हिन्दुस्तानी और हिन्दवी (Hindui) दोनों के व्याकरण लिखे जो क्रमशः 1824 एवं 1847 में पेरिस से प्रकाशित हुआ। जेम्स वेलन्टाइन के Grammar of Hindustani Language (1838) एवं Elements of Hindi and Braj Bhakha (1839) लंदन से प्रकाशित हुए। किसी अज्ञात लेखक का Introduction to the Hindustanee Grammar मद्रास से 1842 में छपा और दूसरा संस्करण 1851 में।
डंकन फोर्बेस ने 1845 में "The Hindustani Manual" लिखा जो लन्दन से प्रकाशित हुआ। इसका 1858 का संस्करण "Grammar of Hinduatani Language" डेक्कन कॉलेज, पुणे में उपलब्ध है। देवी प्रसाद का "Polyglot Grammar and Exercises in Persian, English, Arabic, Hindee, Oordoo and Bengali" कलकत्ते से 1854 में प्रकाशित हुआ।
सिपाही विद्रोह के बाद शिक्षा विभाग की स्थापना होने पर पं. रामजसन की "भाषा-तत्त्व-बोधिनी" प्रकाशित हुई, जिसमें कहीं-कहीं हिन्दी और संस्कृत की मिश्रित प्रणालियों का प्रयोग किया गया। इसके बाद पं. श्रीलाल का "भाषा चंद्रोदय" प्रकाशित हुआ, जिसमें हिन्दी व्याकरण के कुछ अधिक नियम थे। फिर सन् 1869 ई. में बाबू नवीनचंद्र राय कृत "नवीन-चंद्रोदय" निकला, जिसमें 'भाषा चंद्रोदय' के बारे में टिप्पणी भी थी। इसके पश्चात् मराठी और संस्कृत व्याकरण के आधार पर और बहुत कुछ अंग्रेजी ढंग पर पं. हरिगोपाल पाध्ये ने अपनी 'भाषा-तत्त्व-दीपिका' लिखी। लेखक के महाराष्ट्रीय होने के कारण इस पुस्तक में स्वभावतः मराठीपन पाया जाता है।
पादरी W. एथारिंगटन का प्रसिद्ध हिन्दी व्याकरण "भाषा भास्कर" बनारस से 1873 में प्रकाशित हुआ, जिसकी सत्ता लगभग 50 वर्ष तक बनी रही। इसका सन् 1913 का संस्करण डेक्कन कॉलेज, पुणे में उपलब्ध है। पं. कामता प्रसाद गुरु ने अपने "हिन्दी व्याकरण" की भूमिका में लिखा है - "अधिकांश में दूषित होने पर भी इस पुस्तक के आधार और अनुकरण पर हिन्दी के कई छोटे-मोटे व्याकरण बने और बनते जाते हैं। यह पुस्तक अंगरेजी ढंग पर लिखी गई है। हिन्दी में यह अंगरेजी प्रणाली इतनी प्रिय हो गई है कि इसे छोड़ने का पूरा प्रयत्न आज तक नहीं किया गया। मराठी, गुजराती, बँगला आदि भाषाओं के व्याकरणों में भी बहुधा इसी प्रणाली का अनुकरण पाया जाता है।"18
सन् 1875 में राजा शिवप्रसाद का हिन्दी व्याकरण निकला। पं. कामता प्रसाद गुरु लिखते हैं - "इस पुस्तक में दो विशेषताएँ हैं। पहली विशेषता यह है कि पुस्तक अंगरेजी ढंग की होने पर भी इसमें संस्कृत व्याकरण के सूत्रों का अनुकरण किया गया है; और दूसरी यह कि हिन्दी के व्याकरण के साथ-साथ नागरी अक्षरों में उर्दू का भी व्याकरण दिया गया है। इस समय हिन्दी और उर्दू के स्वरूप के विषय में वाद-विवाद उपस्थित हो गया था और राजा साहब दोनों बोलियों को एक बनाने के प्रयत्न में अगुआ थे, इसीलिए आपको ऐसा दोहरा व्याकरण बनाने की आवश्यकता हुई। इसी समय भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने बच्चों के लिए एक छोटा-सा हिन्दी व्याकरण लिखकर इस विषय की उपयोगिता और आवश्यकता सिद्ध कर दी।"19
सन् 1876 में इलाहाबाद और कलकत्ते से S.H. केलॉग का "A Grammar of the Hindi Language" प्रकाशित हुआ, जिसका परवर्द्धित तृतीय संस्करण 1938 में निकला। इसमें उच्च हिन्दी के साथ-साथ ब्रज एवं तुलसीदासकृत रामचरितमानस की पूर्वी हिन्दी एवं राजपुताना, कुमाउँ, अवध, रिवा, भोजपुर, मगध, संबंधी विस्तृत नोट भी हैं। तृतीय संस्करण का पुनर्मुद्रण कई प्रकाशकों ने किया है, जैसे एशियन एजुकेशनल सर्विसेज एवं मुंशीराम मनोहर लाल, दिल्ली।
फ्रेड्रिक पिंकॉट द्वारा लिखित "The Hindi Manual" लन्दन से 1882 में प्रकाशित हुआ, जिसमें साहित्यिक और प्रान्तीय दोनों प्रकार के हिन्दी व्याकरण शामिल किये गये। इसका तीसरा संस्करण 1890 में निकला। M. शूल्ट्स का 'Grammatik der hinduistanischen Sprache' (हिन्दुस्तानी भाषा का व्याकरण) जर्मन भाषा में Leipzig से 1894 में प्रकाशित हुआ।
एडविन ग्रीब्ज लिखित "A Grammar of Modern Hindi" बनारस से 1896 में प्रकाशित हुआ। इस लेखक ने केलॉग के हिन्दी व्याकरण को एक मानक कृति बताया है। परन्तु सामान्य लोगों की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ग्रीब्ज ने अन्य व्याकरण रचा। इसका संशोधित संस्करण 1908 में प्रकाशित हुआ। सन् 1921 में इस लेखक ने पूर्णतः नये रूप से "Hindi Grammar" नामक शीर्षक के अन्तर्गत हिन्दी व्याकरण लिखा, जिसमें ब्रज भाषा में कुछ नोट के सिवा हिन्दी के क्षेत्रीय अंतरों का कोई जिक्र नहीं किया गया। इसका पुनर्मुद्रण एशियन एजुकेशनल सर्विसेज ने 1983 में किया।
पाश्चात्य विद्वानों द्वारा लिखे गये हिन्दी व्याकरणों का थोड़ा विस्तृत विवरण डॉ॰ जाधव की थीसिस में पृ. 148-171 के अंतर्गत देखा जा सकता है। 20
सन् 1920 में पं. कामता प्रसाद गुरु द्वारा लिखित प्रथम बार एक प्रामाणिक एवं आदर्श "हिन्दी व्याकरण" नागरी प्रचारिणी सभा, काशी ने प्रकाशित किया। इसका षष्ठ पुनर्मुद्रण सन् 1960 में हुआ। सन् 2001 में इसका 22वाँ संस्करण प्रकाशित हुआ। इस व्याकरण के लेखक ने अपनी भूमिका में लिखा है - "हिन्दी व्याकरण की छोटी-मोटी कई पुस्तकें उपलब्ध होते हुए भी हिन्दी में, इस समय अपने विषय और ढंग की यही एक व्यापक और (संभवतः) मौलिक पुस्तक है। इस व्याकरण में अन्यान्य विशेषताओं के साथ-साथ एक बड़ी विशेषता यह भी है कि नियमों के स्पष्टीकरण के लिए इसमें जो उदाहरण दिये गये हैं वे अधिकतर हिन्दी के भिन्न-भिन्न कालों के प्रतिष्ठित एवं प्रामाणिक लेखकों के ग्रंथों से लिये गये हैं। इस विशेषता के कारण पुस्तक में यथासंभव, अंध-परंपरा अथवा कृत्रिमता का दोष नहीं आने पाया है।"21 इस व्याकरण में छन्द, अलंकार, कहावतों और मुहावरों को स्थान नहीं दिया गया है। लेखक का कहना है कि यद्यपि ये सब विषय भाषा ज्ञान की पूर्णता के लिए आवश्यक हैं, तो भी ये सब अपने-आपमें स्वतंत्र विषय हैं और व्याकरण से इनका कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। किसी भी भाषा का "सर्वांगपूर्ण" व्याकरण वही है, जिससे उस भाषा में शिष्ट रूपों और प्रयोगों का पूर्ण विवेचन किया जाय और उनमें यथासंभव स्थिरता लायी जाय। 22 पं. कामता प्रसाद गुरु ने यह व्याकरण, अधिकांश में, अंग्रेजी व्याकरण के ढंग पर लिखा है। इस प्रणाली के अनुसरण का कारण बताते हुए वे लिखते हैं - "इस प्रणाली के अनुसरण का मुख्य कारण यह है कि इसमें स्पष्टता और सरलता विशेष रूप से पायी जाती है और सूत्र तथा भाष्य दोनों ऐसे मिले रहते हैं कि एक ही लेखक पूरा व्याकरण विशद् रूप से लिख सकता है। हिन्दी भाषा के लिए वह दिन सचमुच बड़े गौरव का होगा जब इसका व्याकरण 'अष्टाध्यायी' और 'महाभाष्य' के मिश्रित रूप में लिखा जायेगा, पर वह दिन अभी बहुत दूर दिखायी देता है।"23
हिन्दी के राष्ट्रभाषा हो जाने पर विद्वानों का ध्यान इसके स्वतंत्र अस्तित्व की खोज पर जाने लगा। पं. किशोरीदास वाजपेयी ने "राष्ट्रभाषा का प्रथम व्याकरण" (1949) लिखकर हिन्दी व्याकरण की स्वतंत्र सत्ता पर अपने महत्त्वपूर्ण विचार व्यक्त किये हैं। उनके शब्दों में - "कोई व्याकरण अंग्रेजी के आधार पर लिखा गया है और कोई संस्कृत के आधार पर। हिन्दी के आधार पर हिन्दी का व्याकरण बना ही नहीं। तब तो उलझन होगी ही।"24 उनका "हिन्दी शब्दानुशासन" (1957) एक महत्त्वपूर्ण व्याकरण ग्रंथ है। इसका पंचम संस्करण संवत् 2055 वि. (सन् 1998 ई.) में प्रकाशित हुआ।
डॉ॰ वासुदेवनन्दन प्रसाद लिखित "आधुनिक हिन्दी व्याकरण और रचना" सन् 1959 में पटना से प्रकाशित हुआ, जिसका तेरहवाँ संस्करण 1977 में निकला। डॉ॰ प्रभाकर माचवे की इस व्याकरण ग्रंथ पर प्रतिक्रिया इस प्रकार है - "हिन्दी में व्याकरण ग्रंथ, जो स्टैण्डर्ड माने जायें, बहुत थोड़े हैं। उन पुस्तकों में डॉ॰ प्रसाद की रचना मैं सभी दृष्टियों से सर्वांगपूर्ण समझता हूँ। स्व. रामचन्द्र वर्मा, स्व. कामता प्रसाद गुरु और आचार्य किशोरी दास वाजपेयी के बाद डॉ॰ प्रसाद का कार्य अत्यन्त मूल्यवान् और उपयोगी हुआ है।"25 इस व्याकरण का 23वाँ संस्करण 1993 में निकला, जिसका द्वितीय पुनःमुद्रण सन् 2001 में हुआ।
विदेशी वैयाकरणों के द्वारा लिखित हिन्दी व्याकरणों में डॉ॰ ज़ालमन दीमशित्स का रूसी भाषा में लिखा "Грамматика Языка хинди" (हिन्दी भाषा का व्याकरण) मेरे मत में सर्वश्रेष्ठ है। इसका द्वितीय संस्करण (दो खण्डों में - 373 + 300 पृष्ठ) मास्को से सन् 1986 ई. में प्रकाशित हुआ। इसके प्रथम संस्करण का हिन्दी अनुवाद “हिन्दी व्याकरण” रादुगा प्रकाशन, मास्को से सन् 1983 ई. में प्रकाशित हुआ।
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से एक ही परिवार की भारतीय भाषाओं के तुलनात्मक व्याकरण का युग शुरू हुआ जब राबर्ट काल्डवेल (1814-1891) की स्मारकीय कृति (Monumental work) ‘Comparative Grammar of the Dravidian Languages' (द्रविड भाषाओं का तुलनात्मक व्याकरण) सन् 1856 में प्रकाशित हुई। इंग्लैंड निवासी जॉन बीम्स 1857 में इंडियन सिविल सर्विस में आये। भाषाओं के अध्ययन में ये बचपन से ही रुचि लेते थे। काल्डवेल की कृति देखकर इन्हें भारतीय आर्य भाषाओं पर वैसा ही काम करने की प्रेरणा मिली और लगभग 14 वर्षों तक इस विषय पर कार्य करते हुए उन्होंने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ "A Comparative Grammar of the Modern Aryan Languages of India" तीन भागों में (प्रथम भाग-1872 में, द्वितीय भाग-1878 तथा तृतीय भाग 1879 में) प्रकाशित किया। भारतीय आर्य भाषाओं के तुलनात्मक विकास पर यह पहला कार्य है। इस विषय पर अभी तक कोई दूसरा कार्य नहीं हुआ है। 26 एक हजार से अधिक पृष्ठों के इस विस्तृत ग्रंथ के प्रारंभ में भारतीय आर्य भाषाओं के उद्भव और विकास पर 121 पृष्ठों की एक लम्बी-सी भूमिका है तथा आगे हिन्दी, पंजाबी, सिंधी, गुजराती, मराठी, उड़िया तथा बंगला की ध्वनियों तथा उनके संज्ञा, सर्वनाम, संख्यावाचक विशेषण तथा क्रियारूपों का संस्कृत से तुलनात्मक विकास दिखलाया गया है। मुंशीराम मनोहर लाल, दिल्ली ने इसका पुनर्मुद्रण किया है।
सैमुएल केलॉग (1839-1899) कृत "A Grammar of the Hindi Language" का उल्लेख पहले किया जा चुका है। हिन्दी का यह प्रथम सुव्यवस्थित तथा विस्तृत व्याकरण है तथा आज भी कई दृष्टियों से सर्वोत्तम है। 27 इनमें हिन्दी के तत्कालीन परिनिष्ठित रूपों के साथ-साथ मारवाड़ी, मेवाड़ी, मेरवाड़ी, जयपुरी, हाड़ात, कुमाऊँनी, गढ़वाली, नेपाली, कन्नौजी, बैसवाड़ी, भोजपुरी, मगही और मैथिली आदि में भी रूप यथास्थान दिये गये हैं। वाक्य-रचना के विस्तृत प्रायोगिक नियमों के अतिरिक्त रूपों की व्युत्पत्ति तथा उनका विकास भी दिया गया है।
आगरा में एक जर्मन पादरी के घर जन्मे जर्मन विद्वान् रुडोल्फ हार्नले (1841-1918) का प्रसिद्ध ग्रंथ "A Comparative Grammar of the Gaudian Languages" कलकत्ते से सन् 1880 में प्रकाशित हुआ। इसमें भोजपुरी का विस्तृत व्याकरण देने के साथ-साथ आधुनिक आर्यभाषाओं की काफी तुलनात्मक सामग्री दी गयी है। इसमें हिन्दी क्रिया रूपों में लिंग-परिवर्तन के नियम, विभिन्न रूपों का विकास, भाषायी मानचित्र तथा लिपियों में विकास का चित्र आदि भी हैं। एशियन एजुकेशनल सर्विसेज, दिल्ली ने इसका पुनर्मुद्रण सन् 1991 में किया है।
बीसवीं शताब्दी में हिन्दी एवं उसकी बोलियों पर कई विद्वानों ने भाषाशास्त्रीय अध्ययन किया। डॉ॰ विश्वनाथ प्रसाद ने "Phonetic and Phonological Study of Bhojpuri" पर शोध कार्य किया (पी.एच.डी. थीसिस, लन्दन विश्वविद्यालय, 1950 अप्रकाशित)। डॉ॰ कैलाशचंद्र भाटिया का "ब्रजभाषा और खड़ीबोली का तुलनात्मक अध्ययन" सन् 1962 में प्रकाशित हुआ। 28 हरवंशलाल शर्मा ने इसकी प्रस्तावना, पृ. 1 में लिखा है - "डॉ॰ कैलाश भाटिया द्वारा प्रस्तुत 'ब्रज भाषा और खड़ीबोली का तुलनात्मक अध्ययन' हिन्दी भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में एक स्तुत्य तथा नवीन प्रयास है। ब्रज भाषा और खड़ी बोली का तुलनात्मक भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन इस रूप में अभी तक प्रस्तुत नहीं हुआ था।"
डॉ॰ अनन्त चौधरी ने हिन्दी व्याकरण के संपूर्ण विकास की लगभग 300 वर्षों की अवधि को निम्नलिखित पाँच कालखण्डों में विभक्त किया है।
डॉ॰ बीणा गर्ग ने हिन्दी व्याकरण की विकास यात्रा को तीन मुख्य कालों में वर्गीकृत किया है31 -
1. कामता प्रसाद गुरुः "हिन्दी-व्याकरण," नागरीप्रचारिणी सभा, काशी; प्रथम संस्करण संवत् 1977 (1920 ई.); षष्ठ पुनर्मुद्रण, संवत् 2017 (1960 ई.)। डॉ॰ वासुदेवनन्दन प्रसाद लिखते हैं- "पं. कामता प्रसाद गुरु का 'हिन्दी-व्याकरण' सन् 1920 ई. में प्रकाशित हुआ था। तब से इसी का, हिन्दी का एकमात्र आदर्श व्याकरण मानकर, सम्मान होता रहा है।" - आधुनिक हिन्दी-व्याकरण और रचना, भारती भवन, पटना 1977, पृ. 9, पं. 20-22
2. कुछ अन्य भारतीय देशी भाषाओं के (Vernaculars) आरम्भ-काल के व्याकरण उपलब्ध होते हैं। जैसे- भीष्माचार्य कृत 'पंचवार्तिक' नामक मराठी व्याकरण तेरहवीं या चौदहवीं शताब्दी का है। लगभग सभी साहित्य समृद्ध द्रविड़ भाषाओं (तमिल, कन्नड, तेलुगु और मलयालम) के प्राचीन व्याकरण उपलब्ध हैं।
3. इस संबंध में देखें लेखक का संक्षिप्त लेख "हिन्दी भाषा का प्रथम व्याकरण", जलवाणी, केन्द्रीय जल और विद्युत अनुसंधान शाला, पुणे, अंक 8, वर्ष 2001 पृ. 13-17.
4. अंग्रेजों के पहले योन योस्वा केटलार नाम के एक जर्मन ने डच भाषा में एक हिन्दी व्याकरण 1698 ई. या इसके कुछ पूर्व लिखा था। विस्तार के लिए देखें फुटनोट 3 का सन्दर्भ।
5. "हिन्दी-व्याकरण", भूमिका, पृ. 4-5.
12. Indian Linguistics, ग्रियर्सन अभिनन्दन ग्रंथ, खंड IV, 1935; पुनर्मुद्रण - S. K. Chatterji: "SELECT WRITINGS", Vol. 1, Vikas Publishing House Pvt. Ltd., New Delhi, 1978, pp. 237–255.
13. 'भारतीय अनुशीलन', महामहोपाध्याय गौरीशंकर हीराचंद ओझा के सम्मान में समर्पित, 23वाँ हिन्दी साहित्य सम्मेलन, दिल्ली, 1933, विभाग 4, अर्वाचीन काल, पृ. 30-36.
14. "Indian and Iranian Studies", डॉ॰ ग्रियर्सन के पचासीवें जन्म दिवस 7 जनवरी 1936 पर समर्पित, The school of Oriental studies, लन्दन, पृ. 817-822.
15. देखें फुटनोट 3 का सन्दर्भ।
16. "हिन्दी के तीन प्रारंभिक व्याकरण", निर्देशक - डॉ॰ उदयनारायण तिवारी, अनुवादक-मैथ्यु वेच्चुर, St. Paul Publications, इलाहाबाद, 1976; कुल 176 पृष्ठ।
17. पुनर्मुद्रण: Firma K. L. Mukhopadhyaya, Calcutta, 1963. Edited with notes, biographical sketch and bibliography of writings on Lebedeff by Mahadev Prasad Saha; Foreword by Prof. Suniti Kumar Chatterji; कुल पृष्ठ 40+118. इस संस्करण की एक प्रति डेक्कन कॉलेज, पुणे में उपलब्ध है।
18. हिन्दी व्याकरण, भूमिका, पृष्ठ 6.
19. वही, पृ. 6.
20. डॉ॰ पंजाबराव रामराव जाधव: "हिन्दी भाषा और साहित्य के अध्ययन में ईसाई मिशनरियों का योगदान", पी.एच.डी. थीसिस, पुणे विश्वविद्यालय; प्रकाशक - कर्मवीर प्रकाशन, 22 अम्बिका हौसिंग सोसायटी, सेनापति बापट पथ, पुणे - 411016; प्रथम संस्करण 1973 ई.।
21. भूमिका, पृ. 6.
22. तत्रैव
23. भूमिका, पृ. 3
24. राष्ट्रभाषा का प्रथम व्याकरण, पृ. 82
25. बुलन्द शहर एवं खुर्जा तहसीलो की बोलियों का संकालिक अध्ययन - डा. महावीर सरन जैन (हिन्दी सहित्य सम्मेलन, 12, सम्मेलन मार्ग, इलाहाबाद,1967)
26. परिनिष्ठित हिन्दी का ध्वनिग्रामिक अध्ययन—डा. महावीर सरन जैन (लोक भारती प्रकाशन, 15 - ए, महात्मा गाँधी मार्ग, इलाहाबाद, 1974)
27. परिनिष्ठित हिन्दी का रूपग्रामिक अध्ययन—डा. महावीर सरन जैन (लोक भारती प्रकाशन, 15 - ए, महात्मा गाँधी मार्ग, इलाहाबाद, 1978)
28. प्रकाशक - सरस्वती सदन, आगरा, 1962; कुल 224 पृष्ठ।
29. देखें नोट 9.
30. "हिन्दी व्याकरण का काल विभाजन : एक दृष्टि", पृ.46 ; प्रकाशन विवरण हेतु देखें सन्दर्भ 31.
31. "हिन्दी व्याकरण का काल विभाजन : एक दृष्टि", पृ.48-49। प्रकाशन विवरण इस प्रकार है - " समन्वय (क्षेत्रीय साहित्य सन्दर्भ)" (1996) - सं० उमाशंकर मिश्र; प्रकाशक - युवा साहित्य मंडल, 68, तुराबनगर, गाजियाबाद; 392 + 405 + 59 पृष्ठ। इसमें डॉ॰ बीणा गर्ग का लेख "हिन्दी व्याकरण का काल विभाजन : एक दृष्टि", पृ.46-50.
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