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सूरी साम्राज्य (पश्तो: د سوریانو ټولواکمني, द सूरियानो टोलवाकमनई) भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भाग में स्थित पश्तून नस्ल के शेर शाह सूरी द्वारा स्थापित एक साम्राज्य था जो सन् १५४० से लेकर १५५७ तक चला। इस दौरान सूरी परिवार ने बाबर द्वारा स्थापित मुग़ल सल्तनत को भारत से बेदख़ल कर दिया और ईरान में शरण मांगने पर मजबूर कर दिया। शेर शाह ने दुसरे मुग़ल सम्राट हुमायूँ को २६ जून १५३९ में (पटना के क़रीब) चौसा के युद्ध में,और फिर १७ मई १५४० में बिलग्राम के युद्ध में परास्त किया। सूरी साम्राज्य पश्चिमोत्तर में ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा से पूर्व में बंगाल तक विस्तृत था।
सूरी साम्राज्य د سوریانو ټولواکمني | |||||
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हरा में सूरी साम्राज्य का क्षेत्र | |||||
राजधानी | दिल्ली | ||||
भाषाएँ | फ़ारसी | ||||
धार्मिक समूह | सुन्नी इस्लाम | ||||
शासन | सुल्तान | ||||
इतिहास | |||||
- | स्थापित | १७ मई १५४० | |||
- | अंत | १५५७ | |||
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सूर राजवंश का संस्थापक शेरशाह अफगानों की सूर जाति का था। यह 'रोह' (अफगानों का मूल स्थान) की एक छोटा और अभावग्रस्त जाति थी। शेरशाह का दादा इब्राहीम सूर १५४२ ई. में भारत आया और हिम्मतखाँ सूर तथा जमालखाँ की सेनाओं में सेवाएँ कीं। हसन सूर जो फ़रीद (बाद में शेरशाह के नाम से प्रसिद्ध हुआ) का पिता था, जमाल खाँ की सेवा में ५०० सवार और सासाराम के इक्ता का पद प्राप्त करने में सफल हो गया। शेरशाह अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् उसके इक्ता का उत्तराधिकारी हुआ, और वह उस पर लोदी साम्राज्य के पतन (१५२६ ई.) तक बना रहा। इसके पश्चात् उसने धीरे-धीरे उन्नति की। दक्षिण बिहार में लोहानी शासन का अंत कर उसने अपनी शक्ति सदृढ़ कर ली। वह बंगाल जीतने में सफल हो गया और १५४० ई. में उसने मुगलों को भी भारत से खदेड़ दिया। उसके सत्तारुढ़ होने के साथ-साथ अफगान साम्राज्य चतुर्दिक फैला। उसने प्रथम अफगान (लोदी) साम्राज्य में बंगाल, मालवा, पश्चिमी राजपूताना, मुल्तान और उत्तरी सिंध जोड़कर उसका विस्तार दुगुने से भी अधिक कर दिया।
शेरशाह का दूसरा पुत्र जलाल खाँ उसका उत्ताराधिकारी हुआ। यह १५४५ ई. में इस्लामशाह की उपाधि के साथ शासनारूढ़ हुआ। इस्लामशाह ने ९ वर्षों (१५४५-१५५४ ई.) तक राज्य किया। उसे अपने शासनकाल में सदैव शेरशाह युगीन सामंतों के विद्रोहों को दबाने में व्यस्त रहना पड़ा। उसने राजकीय मामलों में अपने पिता की सारी नीतियों का पालन किया तथा आवश्यकतानुसार संशोधन और सुधार के कार्य भी किए। इस्लामशाह का अल्पवयस्क पुत्र फीरोज उसका उत्ताराधिकारी हुआ, किंतु मुबारिज खाँ ने, जो शेरशाह के छोटे भाई निजाम खाँ का बेटा था, उसकी हत्या कर दी।
मुबारिज़ खाँ सुलतान आदिल शाह की उपाधि के साथ गद्दी पर बैठा। फीरोज़ की हत्या से शेरशाह और इस्लामशाह के सामंत उत्तेजित हो गए और उन्होंने मुबारिज़ खाँ के विरुद्ध हथियार उठा लिए। बारही विलायतों के सभी शक्तिशाली मुक्ताओं ने अपने को स्वाधीन घोषित कर दिया और प्रभुत्व के लिए परस्पर लड़ने लगे। यही बढ़ती हुई अराजकता अफगान साम्राज्य के पतन और मुगल शासन की पुन: स्थापना का कारण बनी।
सूर साम्राज्य की यह विशेषता थी कि उसके अल्पकालिक जीवन में राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण प्रगति हुई, तथापि उनके द्वारा पुनर्व्यवस्थित प्रशासकीय संस्थाएँ मुगलों और अंग्रेजों के काल में भी जारी रहीं।
शेरशाह ने प्रशासनिक सुधारों और व्यवस्थाओं को अलाउद्दीन खिलजी की नीतियों के आधार पर गठित किया किंतु उसने कार्याधिकारियों के प्रति खल्जी के निर्दयतापूर्ण व्यवहार की अपेक्षा अपनी नीतियों में मानवीय व्यवहार को स्थान दिया। प्राय: सभी नगरों में सामंतों की गतिविधियाँ बादशाह को सूचित करने के लिए गुप्तचर नियुक्त किए गए थे। अपराधों के मामलों में यदि वास्तविक अपराधी पकड़े नहीं जाते थे तो उस क्षेत्र के प्रशासनिक अधिकारी उत्तरदायी ठहराए जाते थे।
शेरशाह ने तीन दरें निश्चित की थीं, जिनमें राज्य की सारी पैदावार का एक तिहाई राजकोष में लिया जाता था। ये दरें जमीन की उर्वरा शक्ति के अनुसार बाँधी जाती थीं। भूमि की भिन्न-भिन्न उर्वरता के अनुसार 'अच्छी', 'बुरी' और 'मध्य श्रेणी' की उपज को प्रति बीघे जोड़कर, उसका एक-तिहाई भाग राजस्व के रूप में वसूल किया जाता था, राजस्व भाग बाजार भाव के अनुसार रकम में वसूल किया जाता था, जिससे राजस्व कर्मचारियों तथा किसानों की बहुत सुविधा हो जाती थी। इस्लामशाह की मृत्यु तक यह पद्धति चलती रही।
कृषकों को जंगल आदि काटकर खेती योग्य भूमि बनाने के लिए आर्थिक सहायता भी दी जाती थी। उपलब्ध प्रमाणों से यह ज्ञात हुआ है कि शेरशाह की मालवा पर विजय के पश्चात् नर्मदा की घाटी में किसानों को बसाकर घाटी को कृषि के लिए प्रयोग किया गया था। शेरशाह ने उन किसानों को अग्रिम ऋण दिया और तीन वर्षों के लिए मालगुजारी माफ कर दी थी। सड़कों और उनके किनारे-किनारे सरायों के व्यापक निर्माण द्वारा भी दश के आर्थिक विकास को जीवन प्रदान किया गया। शेरशाह सुरी एक बेहद ही दयालु एवं योग्य शासक थे।
सैन्य संगठन में भी आवश्यक सुधार और परिवर्तन किए गए। पहले सामंत लोग किराए के घोड़ों और असैनिक व्यक्तियों को भी सैनिक प्रदर्शन के समय हाजिर कर देते थे। इस जालसाजी को दूर करने के लिए घोड़ों पर दाग देने और सवारों की विवरणात्मक नामावली तैयार करने की पद्धति चालू की गई।
२२ मई १५४५ को शेर शाह सूरी का देहांत हुआ। उन्होंने १७ मई १५४० (बिलग्राम के युद्ध) के बाद से बागडोर संभाली थी और अपने देहांत तक सुल्तान बने रहे। उनके बाद इस्लाम शाह सूरी ने २६ मई १५४५ से २२ नवम्बर १५५३ तक राज किया। इसके बाद चंद महीनो ही राज करने वाले सूरी परिवार के सुल्तानों का सिलसिला चला। हुमायूँ ईरान से वापस आकर भारत पर क़ब्ज़ा करने में सफल हो गया और उसने अंतिम सूरी सुल्तान आदिल शाह सूरी और उसके सिपहसलार हेमू को हरा दिया। सूरी साम्राज्य ख़त्म हो गया।
हालांकि सूरी साम्राज्य सिर्फ़ १७ साल चला, इस काल में भारतीय उपमहाद्वीप में बहुत से प्रशासनिक और आर्थिक विकास लाए गए। भारतीय इतिहास में अक्सर शेर शाह सूरी को विदेशी नहीं समझा जाता।[1][2] उनके राज में हिन्दू और मुस्लिमों में आपसी भाईचारा और सामाजिक एकता बढ़ी। ग्रैंड ट्रंक रोड जैसे विकास कार्यों पर ज़ोर दिया गया। साम्राज्य को ४७ प्रशासनिक भागों में बांटा गया (जिन्हें 'सरकार' कहा जाता था) और इनके आगे 'परगना' नामक उपभाग बनाए गए। स्थानीय प्रशासन मज़बूत किया या। आने वाले समय में मुग़ल और ब्रिटिश राज की सरकारो ने शेर शाह के बहुत सी उपलब्धियों पर अपनी मोहर लगाकर उन्हें जारी रखा।[3] भारत की मुद्रा का नाम 'रुपया' भी उन्होंने ही रखा।[4]
सूर वंश के शासकों की सूची निम्न है:
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