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सादुल्ला खान (जन्म १५९१, मृत अप्रैल १६५६) मुगल साम्राज्य का एक कुलीन व्यक्ति था, जिसने १६४५-१६५६ की अवधि में सम्राट शाह जहान के अंतिम वज़ीर (अर्थात प्रधानमंत्री) के रूप में कार्य किया था।[1][2] शाह जहान के समय में उन्हें साम्राज्य के चार सबसे शक्तिशाली नवाबों में से एक माना जाता था।
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नवाब सादुल्ला खान سعد اللہ خان | |
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सादुल्ला खान चर्चा करते हुए | |
मुग़ल साम्राज्य के १३वे वज़ीर | |
नवाब | |
पद बहाल १६४५ – १६५६ | |
राजा | शाह जहान |
पूर्वा धिकारी | वज़ीर खान |
उत्तरा धिकारी | मीर जुमला द्वितीय |
जन्म | १५९१ के आसपास चिनिओट, मुग़ल साम्राज्य वर्तमान पंजाब, पाकिस्तान |
मृत्यु | अप्रैल १६५६ (उम्र ६५-६६ वर्ष) |
जन्म का नाम | मुल्ला सादुल्ला अल्लामी फाहामी लाहौरी |
राष्ट्रीयता | पंजाबी |
बच्चे | वज़ीर उन-निसा बेगम लुतफुल्ला खान हिज़फुल्ला खान |
धर्म | इस्लाम |
सैन्य सेवा | |
निष्ठा | मुग़ल साम्राज्य |
सेवा/शाखा | मुगल साम्राज्य की सेना |
सेवा काल | १६४५-१६५६ |
लड़ाइयां/युद्ध | मुग़ल-सफ़वी युद्ध (१६४९–१६५३) |
सादुल्ला के पास ७,००० मनसबदार और ७,००० सोवर थे जो किसी भी गैर-शाही से सबसे अधिक थे।[3]
सादुल्ला खान, या मुल्ला सादुल्ला अल्लामी फहामी लाहौरी,[4] पंजाब क्षेत्र के चिनियोट क्षेत्र से थे, जिनका जन्म जाट कृषकों के एक "अस्पष्ट" परिवार[1] में हुआ था,[5] विशेष रूप से थाहीम जनजाति से।[6][7][8][9]
शाह जहान के शासनकाल के सातवें वर्ष में सादुल्ला खान को शुरू में मीर-ए-समान बनाया गया था।[10] इसके बाद उन्हें १६४० से १६४१ के बीच एक मुगल सरदार के रूप में मान्यता दी गई और उन्हें मनसबदार बना दिया गया। बाद के वर्षों में उनकी रैंक में लगातार वृद्धि हुई और उन्हें विभिन्न पदोन्नतियाँ प्राप्त हुईं।[1]
वर्ष १६४५ में मौजूदा प्रधानमंत्री इस्लाम खान द्वितीय को शाह जहान द्वारा अपना पद खाली करने और दक्कन क्षेत्र में राज्यपाल का पद संभालने के लिए मजबूर किया गया। इस समय तक सादुल्ला खान अपनी समझदारी और प्रतिभा के लिए व्यापक रूप से सम्मानित हो गए थे, जिसने राजनीतिक या पारिवारिक संबंधों की कमी होने के बावजूद मुग़ल प्रशासन में उनकी उन्नति को सक्षम बनाया था। उन्हें नए प्रधानमंत्री के रूप में नियुक्त किया गया।[11]
अपनी नियुक्ति के एक साल बाद सादुल्ला खान ने शाह जहान के बल्ख और बदख्शान अभियानों से संबंधित प्रशासनिक मुद्दों को संभाला। सादुल्ला खान को देश का प्रबंधन करने और राजस्व बंदोबस्त करने के लिए बल्ख भेजा गया। शहज़ादे मुराद बख्श को उनकी कमान से मुक्त कर दिया गया जबकि वज़ीर सादुल्ला को प्रशासनिक मामलों से निपटने में केवल २२ दिन लगे और काबुल लौट आए।[12] बाद में स्थिति को कुशलतापूर्वक प्रबंधित करने और बल्ख क्षेत्र में मुगलों को आपदा से बचाने के लिए उन्हें खिलअत से पुरस्कृत किया गया और उनके मनसबे में १,००० की वृद्धि की गई।[13]
१६५४ में राजसिंह प्रथम द्वारा उकसाए जाने के जवाब में शाह जहान ने उन्हें मेवाड़ के चित्तौड़ किले की घेराबंदी करने का आदेश दिया था।[14]
सादुल्ला खान के सबसे बड़े बेटे नवाब लुतफुल्ला खान एक मुग़ल शाही मंत्री, प्रांतीय राज्यपाल और औरंगजेब आलमगीर के एक प्रमुख सेनापति थे।[15] उनके दूसरे बेटे हिफज़ुल्ला खान औरंगजेब के शासनकाल में सिंध और कश्मीर का एक प्रमुख कुलीन और राज्यपाल बने रहे।[16] सादुल्ला खान हैदराबाद राज्य के पहले निज़ाम और संस्थापक निज़ाम उल मुल्क के दादा थे। निज़ाम की माँ वज़ीर उन-निसा (सफिया खानम) सादुल्ला खान की बेटी थीं।[17][18] हैदराबाद के तीसरे निज़ाम मुजफ्फर जंग सादुल्ला खान के परपोते थे।[19]
सादुल्ला खान ने अप्रैल १६५६ में अपनी मृत्यु तक प्रधानमंत्री के रूप में कार्य किया। मुग़ल दरबार और प्रशासन के साथ-साथ स्वयं सम्राट शाह जहान ने भी उनके निधन पर शोक व्यक्त करते हुए उनके निधन की घोषणा के साथ एक सार्वजनिक स्तुति जारी की।[20]
बहादुर शाह प्रथम के शासनकाल में हिदायतुल्ला खान कश्मीरी की वज़ीर के रूप में नियुक्ति के बाद[21] उन्होंने सादुल्ला खान की उपाधि माँगी जो शाह जहान के सबसे प्रसिद्ध वज़ीर की उपाधि थी। बादशाह ने जवाब दिया, "सादुल्ला खान बनना आसान नहीं है। उसे सादुल्ला खान के नाम से ही रहने दिया जाए।" इसके बाद से ही वे सादुल्ला खान के नाम से मशहूर थे।[22]
दिल्ली के जामा मस्जिद का निर्माण सादुल्ला खान के देखरेख में किया गया था।[23] सादुल्ला खान ने अपने गृहनगर चिनियट में शाही मस्जिद भी बनवाई।[24]
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