सत्र
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सत्र (असमिया भाषा: সত্ৰ) एक शरण वैष्णव परम्परा से जुड़े विशेष संस्थागत केंद्र हैं जो भारत के असम एवं इसके निकटस्थ राज्यों में मुख्यतः स्थित हैं। इनकी संख्या सैकड़ों में है। इन सत्रों पर 'सत्राधिकार' का नियंत्रण होता है। ये सभी सत्र आमतौर पर एक दूसरें से अलग और स्वतंत्र होते हैं हालांकि उन्हें चार अलग अलग 'संहतियों' में बांटा जा सकता है। इन सत्रों में एक नामघर या प्रार्थना घर होता है जहाँ धार्मिक गतिविधियों के अलावा लोगों को 'एक शरण धर्म' के प्रति आकर्षित किया जाता है।[1]। उन्हें अनुयायियों के रूप में रहने के लिए और सत्र के उत्थान के लिए धार्मिक और आर्थिक मदद देने को कहा जाता है। १७वीं सदी में सैकड़ों सत्र स्थापित हुए जिन्हें कोच राजवंश और अहोम राजवंश का वरदहस्त प्राप्त था। [2]
बड़े सत्र में सैकड़ों ब्रह्मचारी और गैर-ब्रह्मचारी भक्त निवास करते हैं। सत्रों के पास विशाल भूमि होती है और उनके पास सांस्कृतिक अवशेष और कलाकृतियों के खजाने होते हैं। सत्र अपने आस्थावानों को गाँवों में स्थापित नामघर के माध्यम से नियंत्रण करते हैं तथा धर्म का विस्तार करते हैं।
१७वीं शताब्दी के मध्य में अहोम वंश की पहल पर धार्मिक प्रथाओं के लिए असमिया वैष्णव मठ स्थापित होने लगे। यह पहल वैष्णव धर्म के नए विचारों को प्रचारित करने के लिए की गयी थी।[3][4][5].
सत्र केवल धार्मिक संस्थाएँ नहीं हैं अपितु वे समाज में सांस्कृतिक और ऐतिहासिक भूमिका निभाते हैं। सत्रों में नृत्य की एक विधा विकसित हुयी जिसे सत्रीय नृत्य कहा जाता है. श्रीमंत शंकरदेव द्वारा शुरू की गयी सत्रीय नृत्य, भारत के आठ शास्त्रीय नृत्य रूपों में से एक है.
२०वीं सदी में सत्र के अधिकार और कट्टरपंथी सोच को पहली बार चुनौती दी गई. इस सुधारवादी आन्दोलन में शंकर संघ का नाम सबसे उल्लेखनीय है. असम सत्र महासभा सभी सत्रों की पितृ संगठन है. वर्तमान में राज्य सरकार उनके माध्यम से उनकी गतिविधियों को समन्वय करते थे। महासभा की गणना के अनुसार असम और पश्चिम बंगाल में क्रमशः ८९८ और १६ सत्र हैं.[6]