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प्रेरित रचनात्मकता के बाद ऋषियों (ऋषियों) द्वारा निर्मित हिंदू धर्म का आधिकारिक ग्रंथ विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
श्रुति, हिन्दू धर्म के सर्वोच्च और सर्वोपरि धर्मग्रन्थों का समूह है। श्रुति में चार वेद आते हैं : ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और वेदो के सूक्त। हर वेद के चार भाग होते हैं : संहिता, ब्राह्मण-ग्रन्थ, आरण्यक और उपनिषद्।
श्रुति का शाब्दिक अर्थ है सुना हुआ, यानि ईश्वर की वाणी जो प्राचीन काल में ऋषियों द्वारा सुनी गई थी और शिष्यों के द्वारा सुनकर जगत में फैलाई गई थी। इस दिव्य स्रोत के कारण इन्हें धर्म का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत माना है। इनके अलावा अन्य ग्रंथों को स्मृति माना गया है - जिनका अर्थ है मनुष्यों के स्मरण और बुद्धि से बने ग्रंथ जो वस्तुतः श्रुति के ही मानवीय विवरण और व्याख्या माने जाते हैं। श्रुति और स्मृति में कोई भी विवाद होने पर श्रुति को ही मान्यता मिलती है, स्मृति को नहीं।
स्मृतियों, धर्मसूत्रों, मीमांसा, ग्रंथों, निबन्धों महापुराणों में जो कुछ भी कहा गया है वह श्रुति की महती मान्यता को स्वीकार करके ही कहा गया है। ऐसी धारणा सभी प्राचीन धर्मग्रन्थों में मिलती है। अपने प्रमाण के लिए ये ग्रन्थ श्रुति को ही आदर्श बताते हैं हिन्दू परम्पराओं के अनुसार इस मान्यता का कारण यह है कि ‘श्रुति’ ब्रह्मा द्वारा निर्मित है, यह भावना जन सामान्य में प्रचलित है। चूँकि सृष्टि का नियन्ता ब्रह्मा है इसीलिए उसके मुख से निकले हुए वचन पूर्ण प्रामाणिक हैं तथा प्रत्येक नियम के आदि स्रोत हैं। इसकी छाप प्राचीनकाल में इतनी गहरी थी कि वेद शब्द श्रद्धा और आस्था का द्योतक बन गया। इसीलिए पीछे की कुछ शास्त्रों को महत्ता प्रदान करने के लिए उनके रचयिताओं ने उनके नाम के पीछे वेद शब्द जोड़ दिया। सम्भवतः यही कारण है कि धनुष चलाने के शास्त्र को धनुर्वेद तथा चिकित्सा विषयक शास्त्र को आयुर्वेद की संज्ञा दी गई है। महाभारत को भी पंचम वेद इसीलिए कहा गया है कि उसकी महत्ता को अत्यधिक बल दिया जा सके।
उदाहरणार्थ मनु की संहिता को मनुस्मृति माना जाता है। इसके अनुसार समाज, परिवार, व्यापार दण्डादि के जो प्रावधान हैं वह मनु द्वारा विचारित और वेदों की वाणी पर आधारित हैं। लेकिन ये ईश्वर द्वारा कहे गए शब्द (या नियम) नहीं हैं। अतः ये एक स्मृति ग्रंथ है। लेकिन ईशावास्योपनिषद एक श्रुति है क्योंकि इसमें ईश्वर की वाणी का उन ऋषियों द्वारा शब्दांतरण है।
वेदों को श्रुति दो कारणों से कहा जाता है :
श्रुति सबसे पुरानी दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व की हैं, प्राचीन काल में लिखने के लिए प्रतिबद्ध नहीं थीं। इन्हें लगभग दो सहस्राब्दियों तक एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक मौखिक रूप से विकसित और प्रसारित किया गया था। आधुनिक युग में उपलब्ध लगभग सभी मुद्रित संस्करण प्रतिलिपिकृत पांडुलिपियाँ हैं जो मुश्किल से 500 वर्ष से अधिक पुरानी हैं।
माइकल विट्जेल इस मौखिक परंपरा की व्याख्या इस प्रकार करते हैं:
""The Vedic texts were orally composed and transmitted, without the use of script, in an unbroken line of transmission from teacher to student that was formalized early on. This ensured an impeccable textual transmission superior to the classical texts of other cultures; it is, in fact, something like a tape-recording.... Not just the actual words, but even the long-lost musical (tonal) accent (as in old Greek or in Japanese) has been preserved up to the present.""
— Michael Witzel [1]
प्राचीन भारतीयों ने श्रुतियों को सुनने, याद रखने और सुनाने की तकनीक विकसित की। पाठ या पथ के कई रूप पाठ में सटीकता और वेदों और अन्य ज्ञान ग्रंथों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक प्रसारित करने में सहायता के लिए डिज़ाइन किए गए थे। प्रत्येक वेद के सभी मंत्रों का पाठ इसी प्रकार किया जाता था; उदाहरण के लिए, ऋग्वेद के 10,600 छंदों वाले सभी 1,028 भजनों को इस तरह से संरक्षित किया गया था; जैसे कि प्रधान उपनिषदों और वेदांगों सहित अन्य सभी वेद थे। प्रत्येक पाठ को कई तरीकों से सुनाया गया था, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि पाठ के विभिन्न तरीके दूसरे पर क्रॉस चेक के रूप में काम करते हैं। पियरे-सिल्वेन फ़िलिओज़ैट ने इसका सारांश इस प्रकार दिया है:
इन असाधारण अवधारण तकनीकों ने एक सटीक श्रुति की गारंटी दी, जो न केवल अपरिवर्तित शब्द क्रम के संदर्भ में बल्कि ध्वनि के संदर्भ में भी पीढ़ियों तक तय होती है। ये विधियाँ प्रभावी रही हैं, इसका प्रमाण सबसे प्राचीन भारतीय धार्मिक पाठ, ऋग्वेद (लगभग 1500 ईसा पूर्व) के संरक्षण से मिलता है।[2]
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