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कामगार वर्ग (या श्रमिक वर्ग) एक ऐसा शब्द है, जिसका उपयोग सामाजिक विज्ञानों और साधारण बातचीत में वैसे लोगों के वर्णन के लिए होता है, जो निम्न स्तरीय कार्यों (दक्षता, शिक्षा और निम्न आय द्वारा मापदंड पर) में लगे होते हैं और अक्सर इस अर्थ का विस्तार बेरोजगारी या औसत से नीचे आय वाले लोगों तक भी होता है। कामगार वर्ग मुख्यत: औद्योगीकृत अर्थव्यवस्थाओं और गैर-औद्योगीकृत अर्थव्यवस्थाओं वाले शहरी क्षेत्रों में पाये जाते हैं।
सामाजिक वर्ग के वर्णन में कई तरह के शब्दों का उपयोग किया जाता है, मगर कामगार वर्ग को विभिन्न तरीकों से परिभाषित और प्रयुक्त किया जाता है। जब इसका प्रयोग गैर-अकादमिक रूप में होता है तो यह आमतौर पर समाज के एक खंड को संदर्भित करने के लिए होता है, जो शारीरिक श्रम पर आश्रित है, खासतौर पर जिन्हें घंटे के आधार पर मजदूरी दी जाती है। शैक्षिक वार्तालाप में इसका प्रयोग विवादास्पद रहा है, विशेष रूप से उत्तर-औद्योगीकृत समाजों में मानव श्रम में गिरावट के बाद. कुछ शिक्षाविद कामगार वर्ग की अवधारणा की उपयोगिता पर सवाल उठाते हैं।
यह शब्द आमतौर पर आर्थिक संसाधन, शिक्षा और सांस्कृतिक हितों तक पहुंच के मामले में उच्च वर्ग और मध्य वर्ग के हितों के साथ विषम होता है। कामगार वर्ग और मध्य वर्ग के बीच सीमा रेखा वहां और स्पष्ट हो जाती है, जहां एक आबादी प्राथमिक तौर पर जीवन रक्षा की तुलना में जीवन शैली पर ज्यादा पैसा खर्च करती है (उदाहरण के लिए फैशन बनाम सिर्फ पोषण और आवास) समस्या यह है कि भेद की इस पद्धति पर निर्भर रहने से वैसे बहुत सारे लोग बाहर हो जायेंगे, जो अक्सर कामगार वर्ग के रूप में पहचाने जाते हैं।
इसका प्रयोग एकांतर रूप से अपमानजनक हो सकता है या कामगार वर्ग के रूप में स्व-पहचान रखने वाले लोगों में गर्व का भाव व्यक्त कर सकता है।
सामाजिक वर्गों की परिभाषाएं बहुत सारे समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्यों को प्रतिबिंबत करती हैं, जिन्हें नृविज्ञान, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान और समाजशास्त्र द्वारा बताया गया है। ऐतिहासिक रूप से बड़े परिप्रेक्ष्य मार्क्सवाद और प्रकार्यवाद रहे हैं। कामगार वर्ग को परिभाषित करने वाले पैरामीटर उस योजना पर निर्भर करते है, जिसका उपयोग सामाजिक वर्ग को परिभाषित करने के लिए होता है। उदाहरण के लिए, वर्ग का एक साधारण परत मॉडल समाज को निम्न वर्ग, मध्य वर्ग और उच्च वर्ग के साधारण पदानुक्रम में बांट सकता है, क्योंकि कामगार वर्ग का निर्दिष्ट रूप से पदनामित नहीं किया गया है। कामगार वर्ग के राजनीतिक हित के कारण 19 वीं सदी के प्रारंभ से ही कामगार वर्ग की प्रकृति पर बहस होती रही है। परिभाषाओं के दो व्यापक खेमे उभरे हैं: एक खेमा वर्ग समाज के 20 वीं सदी के समाजशास्त्रीय परत मॉडल से जुड़ा है तो दूसरा खेमा 19 वीं सदी के मार्क्सवादियों और अराजकतावादियों के ऐतिहासिक भौतिकवादी आर्थिक मॉडल से संबंधित है। विभिन्न विचारों के बीच समानता के मुख्य बिंदुओं में एक विचार शामिल है कि एक कामगार वर्ग है, हालांकि वह आंतरिक रूप से विभाजित हो सकता है। एक एकल कामगार वर्ग का विचार 18 वीं सदी की बहु-कामगार वर्गों वाली धारणाओं के विपरीत हो सकता है। समाजशास्त्रियों डेनिस गिल्बर्ट, जेम्स हेनस्लिन, विलियम थाम्पसन, जोसेफ हिक्की और थॉमस एलिंग ने चौथे वर्ग के मॉडल लाया, जिसमें कामगार वर्ग में मोटे तौर पर आबादी का एक तिहाई हिस्सा था और बहुसंख्यक आबादी या तो कामगार वर्ग के रूप में या निम्न वर्ग के रूप में थी।[1][2][3]
कार्ल मार्क्स ने कामगार वर्ग या सर्वहारा वर्ग को वैसे व्यक्तियों के रूप में परिभाषित किया, जो मजदूरी के लिए अपनी श्रम शक्ति बेचते हैं और उत्पादन के साधनों का स्वामित्व नहीं रखते. उन्होंने तर्क दिया कि वे एक समाज के लिए धन पैदा करने के लिए जिम्मेदार थे। उन्होंने कहा कि कामगार वर्ग शारीरिक रूप से पुलों, शिल्प फर्नीचर का निर्माण करता है, खाद्य उगाता हैं और बच्चों का लालन-पालन करता है, पर उनके अपने खेत या कारखाने नहीं होते. सर्वहारा वर्ग के उप-खंड भ्रमित सर्वहारा वर्ग (फटेहाल-सर्वहारा) का है, जो अत्यंत गरीब और बेरोजगार होता है, जैसे कि दिहाड़ी मजदूर और बेघर लोग.
कम्युनिस्ट घोषणापत्र में मार्क्स ने तर्क दिया कि यह सर्वहारा वर्ग की नियति है कि वह अपनी तानाशाही से पूंजीवादी प्रणाली को विस्थापित करे, वर्ग प्रणाली के समर्थन में सामाजिक संबंधों को खत्म करे और तब भविष्य के एक कम्युनिस्ट समाज को स्थापित करे, जिसमें "प्रत्येक के मुक्त विकास के लिए सभी का मुक्त विकास एक शर्त है।" कैपिटल में, मार्क्स ने उन तरीको को विभाजित किया है, जिससे पूंजी ज्ञानोदय के ऐसे क्रांतिकारी विस्तार को रोक सकती है। कामगार वर्ग की सदस्यता के बारे में मार्क्सवादी तर्कों के कुछ मुद्दों को निम्नांकित रूप में शामिल किया गया है:
इन मुद्दों में से कुछ के जवाब निम्नांकित हैं, जिन पर सदियों से तर्क, विश्लेषण और गढ़ा जाता रहा है।
सामान्य तौर पर मार्क्सवादी दृष्टि में दिहाड़ी मजदूर और कल्याणकारी राज्य पर निर्भर रहने वाले ही कामगार वर्ग हैं और जो उस जमा पूंजी के जरिये जीते हैं और/या श्रम का शोषण करते हैं, वे कामगार नहीं हैं। इस व्यापक विरोधाभास वर्ग संघर्ष को परिभाषित करता है। एक निश्चित समय में विभिन्न समूह और व्यक्ति किसी भी एक पक्ष या दूसरे पक्ष की ओर हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, कारखाने के सेवानिवृत्त कर्मचारी लोकप्रिय सोच के अनुसार कामगार वर्ग के हैं, लेकिन इस हद तक कि जो निश्चित आय पर आश्रित होते हैं या निगमों में शेयर द्वारा वित्तपोषित होते हैं और जिनका वर्तमान श्रमिकों, सेवानिवृत्त कारखाना श्रमिकों के हितों और संभवत: उनकी पहचान और राजनीति से निकाला हुआ लाभ ही उनकी कमाई है, वे कामगार वर्ग के नहीं हैं। हितों का यह विरोधाभास, व्यक्ति के जीवन और समुदायों के भीतर उसकी पहचान कामगार वर्ग के एकजुट होकर शोषण व असमानता और लोगों के जीवन के अवसरों, काम की स्थितियों और राजनैतिक शक्ति निर्धारित करने में स्वामित्व की भूमिका को कम करने की क्षमता को प्रभावी तरीके से कमजोर कर सकती है।
पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर मुख्य पूंजीपतियों की स्थिति करीब-करीब उतनी विरोधाभासी नहीं है। पूंजीपति अपनी आय, धन, हैसियत और ताकत उत्पादन के साधनों के स्वामित्व से हासिल करते हैं और उन्हें अपने स्वयं के अभ्युदय के लिए इसे प्रबंधित करना पड़ता है। पूंजीवादी दृष्टिकोण के मुताबिक श्रमिकों के हित के लिए उत्पादन का प्रबंधन (या राजनीतिक संसाधनों का निर्माण करना, जो आर्थिक संबंधों को प्रभावित कर सके) मूर्खर्तापूर्ण हो सकता है। एक हद तक जब कभी-कभी कामगार पूंजीवाद से कुछ मायनों में लाभान्वित होते हैं, पर यह एक केंद्रीय लक्ष्य नहीं है, बल्कि एक उप-उत्पाद है। इस प्रकार कम वर्ग हित विरोधाभास और कम पहचान विरोधाभास व राजनीतिक समन्वय के लिए और अधिक संसाधनों के साथ काम करने से पूंजीवादी वर्ग के सदस्य श्रमिकों पर और उनके खिलाफ काफी क्षमतापूर्ण तरीके से अपने हितो को अक्सर समन्वित और पूरा कर सकते हैं।
कामगार वर्ग का इतिहास दो विरोधाभासी प्रक्रियाओं द्वारा परिभाषित है, श्रमिक पैदा करने के लिए पारंपरिक समुदायों का आर्थिक विकास और बेहतर जीवन स्तर बनाने के लिए औद्योगीकरण से उपलब्ध विशाल उत्पादन अधिशेष. इस पूरी प्रक्रिया के दौरान श्रमिकों ने एक औद्योगिक समाज के भीतर अपनी खुद की सांस्कृतियां और स्थितियां तैयार करने के लिए सांस्कृतिक और राजनीतिक कार्रवाई की है। इन प्रतिक्रियाओं में से कई में इस बात पर जोर दिया गया है कि कामगार वर्ग के व्यक्ति काम के अलावा अन्य प्रक्रियाओं के द्वारा परिभाषित किये जाते हैं। कामगार वर्ग का इतिहास आमतौर पर अंग्रेजी कॉमन्स की नीतियों और हॉलैंड और इंग्लैंड में कारखानों के में भुगतान वाले औद्योगिक श्रमिकों की पीढ़ी के साथ शुरू हुआ माना जाता है।
सामंती यूरोप में इस तरह का कामगार वर्ग बड़ी संख्या में मौजूद नहीं था। इसके बजाय ज्यादातर लोग श्रमिक वर्ग, विभिन्न पेशों, व्यापारों और व्यवसायों से बने समूह का हिस्सा थे। एक वकील, शिल्पकार और किसान सभी समान सामाजिक ईकाई का हिस्सा माने जाते थे और लोगों का एक तीसरा समूह था, जो न तो अभिजात थे और न ही चर्च के अधिकारी थे। यूरोप से बाहर पूर्व-पूंजीवादी समाजों में समान पदानुक्रम का अस्तित्व था। इन श्रमिक वर्गों की सामाजिक स्थिति को प्राकृतिक नियम और आम धार्मिक विश्वास द्वारा आदेशित रूप में देखा गया। इस सामाजिक स्थिति को किसानों द्वारा, विशेष रूप से जर्मन किसान युद्ध के दौरान चुनौती दी गई।
18 वीं सदी के अंत में ज्ञानोदय के प्रभाव के तहत यूरोपीय समाज परिवर्तन की स्थिति में था और यह परिवर्तन का अपरिवर्तनशील ईश्वर निर्मित सामाजिक व्यवस्था से मेल मिलाप नहीं हो सकता था। इन समाजों के सदस्यों ने ऐसी विचारधाराओं को जन्म दिया, जिसने कामगार वर्ग के लोगों की कई समस्याओं के लिए उनकी नैतिकता और आचारशास्त्र को दोषी ठहराया (जैसे शराब का अत्यधिक सेवन, कथित आलस्य और पैसा बचाने में असमर्थता). द मेकिंग ऑफ इंगलिश वर्किंग क्लास में ई.पी.थाम्पसन ने तर्क दिया है कि अंग्रेजी कामगार वर्ग अपनी स्वयं की रचना में मौजूद था और उन्होंने उत्तर आधुनिक श्रमिक वर्गों का एक आधुनिक, राजनीतिक रूप से आत्म-सचेतन कामगार वर्ग में परिवर्तन का भी वर्णन किया है।
व्लादिमीर लेनिन ने विकसित देशों में कामगार वर्ग के जीवन के निम्न स्तर को और बेहतर बनाने में साम्राज्यवाद की क्षमता को देखा और तर्क दिया कि यह 20 वीं सदी के प्रारंभ में यूनाइटेड किंगडम में पहले से ही शुरू हो गया था। बॉक्सिंग और साइकिलिंग जैसे सस्ते खेल तक पहुंच, कॉफी, चॉकलेट और बाद में जंक फूड सहित खाद्य संस्कृति का विस्तार और विशेष रूप से मोटर वाहनों और घर के स्वामित्व ने पहली बार 20 वीं सदी के दुनिया के पहले कामगार वर्गो के चेहरे को बदल दिया. इसी तरह की प्रक्रिया सोवियत शैली के समाजों में चली, लेकिन बहुत ही धीमी गति से.
1917 के आसपास से जाहिरा तौर पर कई देशों ने कामगार वर्ग के हित में कदम उठाये. जबकि शैक्षणिक इतिहास और समाजशास्त्र में घटित जीवन स्तर और संभावित विकास दर पर बहस हुई, इन देशों के विकास सूचकांक अक्सर समान सकल घरेलू उत्पाद वाले अन्य देशों की तुलना में अधिक है। हालांकि, लेखकों की ओर से इन देशों की अतिरिक्त आलोचनाएं की गई, जिन्होंने प्राथमिक रूप से कामगार वर्ग पर प्रभाव डालने वाले बड़े पैमाने पर मानवाधिकार हनन की उपस्थिति और कामगार वर्ग के भीतर और उनके बीच लोकतंत्र की कमी को लेकर आलोचना की. कुछ इतिहासकारों ने उल्लेख किया है कि इन सोवियत शैली के समाजों में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन बदलाव एक व्यापक नये प्रकार के सर्वहाराकरण के जरिये हुआ, जो अक्सर किसानों और ग्रामीण कामगारों के प्रशासकीय रूप से हासिल बलात विस्थापन से प्रभावित किया गया। तब से तीन प्रमुख औद्योगिक देश अर्द्ध-बाजार-आधारित शासन (चीन, वियतनाम, क्यूबा) की ओर मुड़े और एक देश अपने भीतर गरीबी और निर्दयतावाद के चक्र (उत्तर कोरिया) को बढ़ाने में लगा. इस तरह के अन्य देश या तो पहले ही ध्वस्त (जैसे कि सोवियत संघ के रूप में) हो गये थे या औद्योगीकरण के महत्वपूर्ण स्तर या बड़े कामगार वर्ग को हासिल किया।
1960 के बाद बड़े पैमाने पर सर्वहाराकरण और कॉमन्स के घेरे तीसरी दुनिया में उभरे, जिससे जीवन यापन के सीमांत पर एक नए कामगार वर्ग पैदा हुआ। इसके अतिरिक्त, भारत जैसे देश धीरे-धीरे सामाजिक परिवर्तन के दौर से गुजर रहे हैं, जिससे शहरी कामकाजी वर्ग का आकार भी बढ़ रहा है।
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