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शीतपित्त या पित्ती त्वचा में होने वाले एक प्रकार के चकत्ते होते हैं। इस रोग के कारण त्वचा पर सुर्ख लाल रंग के उभरे हुए दाने हो जाते हैं जिनमे लगातार खुजली होती रहती है।[1] ये अक्सर एलर्जी के कारण होते है हालाँकि कई मामलो में बिना एलर्जी के भी शीत पित्ति हो सकती है। इसके चलते शरीर में हमेशा जलने एवं चुभने की अनुभूति होते रहती है।[2] तीक्ष्ण शीत पित्ति के ज़्यादातर मामले (जिनमे चित्तियाँ ६ सप्ताह से कम समय तक रहती हैं) एलर्जिक होते हैं। चीरकलिक शीत पित्ति (जिसमे चित्तियाँ ६ सप्ताह से ज्यादा बनी रहती हैं) गैर-एलर्जिक भी हो सकती है।
शीतपित्त के कारण होने वाली चित्तियाँ (जिन्हे वेल्स कहते हैं) लाल आधार वाली और उभरी हुए होती हैं और त्वचा के किसी भी भाग में हो सकती है। यह जल्द ही पूरे शरीर में फैल जाती और चकत्ते की जगह त्वचा लाल और सूजनयुक्त हो जाती है और उनमें उभार दिखाई देने लगता है। [3]
शीतपित्त आम तौर पर पाचन तंत्र की गड़बड़ी और खून में गर्मी बढ़ जाने के कारण होता है। वातावरण में उपस्थित कई तरह के कारक जैसे की दवाइयाँ (जैसे की कोडेयैन, आस्प्रिन, इब्यूप्रोफन, पेनिसिलिन, क्लोट्रीमाज़ोले, त्रिचज़ोले, सुल्फ़ोनामिदेस, डेक्सट्रोएम्फेटामिने,आंतिकोनउलसंत्स, सेफकलोर, पीरसेटम आदि), खाद्य पदार्थ आदि इसके कारको में शामिल हैं। गर्मी से आने के बाद ठंड़ा पानी पीना, कोल्ड ड्रिंक या आइसक्रीम खाना। तेल-मिर्च, गर्म मसाले और अम्ल रसों से बने चटपटे खाद्य पदार्थों और बाजार में बिकने वाले फास्ट फूट व चाइनीज खाना खाने से इस रोग के होने का ख़तरा रहता है।[4]
इसका कारक चाहे जो भी हो यह रोग हिस्टामीन नामक एक टाक्सिस पदार्थ के त्वचा में प्रवेश कर खुजली के साथ चकत्ते पैदा करने से होता है।
चीरकलिक और तीक्ष्ण दोनो तरह की शीतपित्त का उपचार मुख्य रूप से रोगी को दिए जाने वाले शिक्षण, त्वरित कारको के बचाव और आंटिहिस्टमिन्स पर निर्भर करता है।
चीरकलिक शीतपित्त का उपचार कठिन होता है और इसके कारण गंभीर अपंगता हो सकती है। तीक्ष्ण शीतपित्त के विपरित चीरकलिक शीतपित्त के मरीज़ो में किसी तरह के पहचान योग्य त्वरित कारक नहीं पाए जाते। एक अच्छी बात यह है कि चीरकलिक शीतपित्त के आधे से ज़्यादा मामलों में साल भर के अंदर काफ़ी सुधार देखा जा सकता है। उपचार का ज़ोर आम तौर पर लक्षणों को कम करने पर होता है। चीरकलिक शीतपित्त के कुछ रोगियों को लक्षणों के उपचार के लिए आंटिहिस्टमिन्स के अलावा भी कुछ दवाएँ लेनी पड़ती हैं।
शीतपित्त के जिन रोगियों को अंजिओड़र्मा भी होती है उन्हे आपातकालिक चिकित्सा की आवश्यकता होती है क्योंकि यह एक जानलेवा स्थिति होती है।
आधुनिक चिकित्सा पद्धति में शीतपित्त के उपचार की त्रि-स्तरीय ववयस्था है। पहले चरण के तहत रोगी को सेकंड जनरेशन एच1 रोधक रिसेप्टर आंटिहिस्टमिन्स दिए जाते हैं। गंभीर रोग के कुछ मामलों में सिस्टेमिक ग्लूकोकॉर्टिकाय्ड्स भी दिए जा सकते हैं, परंतु इनका लंबे समय तक उपयोग नहीं किया जा सकता है क्योंकि इसके कई तरह के दुष्प्रभाव हो सकते है।
उपचार के दूसरे चरण के तहत पहले से चल रहे आंटिहिस्टमिन्सकी मात्रा बढ़ा दी जाती है। साथ ही कुछ अन्य तरह के आंटिहिस्टमिन्स भी दिए जाते है। कुछ रोगियों को लुक्ज्ट्रीयेन रिसेप्टर प्रतिरोधी जैसे कि मोनतेलुकास्ट आदि भी दिए जाते हैं। तीसरे चरण में रोगी को पहले चल रहे उपचार के साथ अथवा उसकी जगह पर हाइडरोक्सीज़िन या डॉक्सेपीने दिया जाता है।
अगर रोगी पर इन तीनो चरणो का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है तो उसे दुराग्रही लक्षणों वाला मान लिया जाता है। ऐसी स्थिति में आंटी-इनफ्लमेटरी दवाइयों जैसे की (डपसोने, स्युल्फासालेज़ीन), इममूनॉसुपपरेससंत्स (साइक्लोस्प्रिन, सिरोलिमुस) ओर कुछ दूसरी दवाइयों - ओमलईज़ुमाब - का भी उपयोग किया जा सकता है।
पुरानी पित्ती का कारण शायद ही निर्धारित किया जा सकता है। [5]
अफमेलेनोटिड
अफमेलेनोटिड का पित्ती उपचार के रूप में अध्ययन किया जा रहा है। [6]
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