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विज्ञान पत्रकारिता वह पत्रकारिता है जो वैज्ञानिक विषयों से सम्बन्धित समाचार तथा फीचर आम जनता तक पहुँचाने का कार्य करती है। इस पत्रकारिता में वैज्ञानिकों, पत्रकारों तथा आम जनता के बीच अन्तःक्रिया (interaction) होती है।
हिंदी में पत्रकारिता का उदय "उदन्त मार्तण्ड" (1826) से माना जाता है। 1967 ई. में भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने "कविवचन सुधा" नामक पत्रिका निकाली, जिसमें साहित्य के साथ विज्ञान को भी स्थान दिया। उन्होंने स्वयं वैज्ञानिक निबंध लिखे और विज्ञान की पुस्तकों की समीक्षा भी की। यहीं से हिन्दी में विज्ञान-पत्रकारिता का उदय माना जा सकता है। बालकृष्ण भट्ट द्वारा निकाला गया "हिन्दी प्रदीप" (1877) भी एक ऐसा पत्र है, जिसमें सन् 1877-1906 के मध्य कम-से-कम 11 ऐसे निबंध प्रकाशित हुए जो पूर्णतया विज्ञान विषयक थे। 1893 ई. में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हो जाने पर बाबू श्याम सुन्दरदास ने 1887 ई. में "नागरी प्रचारिणी पत्रिका" का प्रकाशन शुरू किया, जिसमें वैज्ञानिक सामग्री का समावेश था। 1900 ईं. में इलाहाबाद से "सरस्वती मासिक पत्रिका निकली तो उसके भी प्रथम संपादक श्याम सुन्दरदास ही हुये। उन्होंने 1900-1906 ई के मध्य "सरस्वती" में स्वयं कई विज्ञान विषयक निबंध लिखे - "भारत में शिल्प विद्या", जन्तुओं की सृष्टि फोटोग्राफी आदि। इसी सरस्वती पत्रिका में "गुलेरी" ने 1906 ई. में "आँख" पर कई निबंध लिखे। "सरस्वती" के बाद गंगा, विशाल-भारत, माधुरी, वीणा, सुधा, हिंदुस्तानी जैसी शुद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादन ने जिस उदार दृष्टि का परिचय दिया, उसके फलस्वरूप स्वंतत्रता-प्राप्ति के पूर्व तक हिंदी में विज्ञान के विविध पक्षों पर इन पत्रिकाओं में लगातार लेख छपते रहे। इस प्रकार न जाने कितने लेखक विज्ञान लेखन के प्रति आकृष्ट हुए।
१९४७ में भारत के स्वतन्त्र होने के पूर्व हिंदी में विज्ञान की कुल 40 पत्रिकाएँ निकल रही थीं, जिसमें 3800 से अधिक लेख प्रकाशित हुए। इनमें से 1000 लेख साहित्यिक पत्रिकाओं में छपे थे। अकेले विज्ञान पत्रिका में 2900 लेख छपे। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद 1983 ई० में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार हिंदी में 321 वैज्ञानिक पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं।हिन्दी माध्यम में विज्ञान का साहित्य-सृजन हो सके इसलिए सन् 1913 में इलाहाबाद में विज्ञान-परिषद की स्थापना की गई और 1915 में एक मासिक पत्रिका "विज्ञान" का प्रकाशन शुरू किया गया जिसका लाभ सबसे अधिक उन लेखकों को मिला जो अपने विज्ञान विषयक लेख साहित्यिक पत्रिकाओं में लिखते थे। यह उनके लिए एक मंच था।
स्वतंत्रता से पूर्व हिंदी में कृषि एव आयुर्वेद विषयक पत्रिकाओं की भरमार थी जिनमें दिल्ली से निकलने वाली "आयुर्वेद महासम्मेलन" (1913) नामक पत्रिका सर्वाधिक प्रसिद्ध थी। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद दिल्ली से महत्वपूर्ण वैज्ञानिक पत्रिकाओं "खेती" (1948) तथा विज्ञान प्रगति (1952) के प्रकाशन के साथ हिंदी की विज्ञान पत्रकारिता में चार चाँद लग गये। आज हिंदी के गलियारे में वैज्ञानिक पत्रिकाओं की धूम मची हुई है।
विज्ञान विषयक पत्रिकाओं में प्रारंभ में आलेख निबंध के रूप में विज्ञान सामग्री छपती रही, किन्तु धीरे-धीरे विज्ञान पत्रकारिता सहित्यिक पत्रकारिता की ओर बढती रही। फलस्वरूप आजकल विज्ञान कविताएँ, पहेलियाँ, कथाएँ, नाटक, उपन्यास इत्यादि विधाएँ विज्ञान पत्रकारिता के अंग बन चुकी हैं। विज्ञान पत्रकारिता के फलस्वरूप सम्यक् वैज्ञानिक साहित्य का सृजन संभव हो सका है और यह सब विगत सौ वर्षों में ही सम्पन्न हुआ है। यह बहुत बड़ी उपलब्धि है।
बाल मनोविज्ञान को ध्यान में रखकर स्वतंत्रता पूर्व से ही साहित्य-लेखन आंरभ हो गया था पर स्वतंत्रता के पश्चात चूँकि बच्चों को विश्व-भर से परिचित करवाना था इसलिए बाल साहित्य ने विज्ञान का दामन थामा। "बच्चों के लिए बहुत प्रारंभिक अवस्था से ही विज्ञान पुस्तकें पढ़ाना ज़रूरी है। यदि वे बारह वर्ष की आयु प्राप्त करने तक विज्ञान की पुस्तकें नहीं पढ़ेंगे तो समझिए वे गए काम से।[1] वास्तव में ही बच्चे अब पहले से अधिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाले होने लगे हैं। असंगत कल्पनाओं से अब उनकी शंकाओं का समाधन कर पाना कठिन हो जाता है।
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