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वातस्फीति (एम्फाइज़िमा) एक दीर्घकालिक उत्तरोत्तर बढ़ने वाली फेफड़े की बीमारी है, जिसके कारण प्रारंभ में सांस लेने में तकलीफ होती है। वातस्फीति से ग्रस्त लोगों में शरीर को सहारा देने वाले ऊतक और फेफड़े के कार्य करने की क्षमता नष्ट हो जाती है। इसे रोगों को एक ऐसे समूह में शामिल किया गया है जिसे बहुत दिनों तक रहने वाली प्रतिरोधी फुफ्फुसीय रोग या COPD कहते हैं (फुफ्फुसीय फेफड़ों से संबंधित है). वातस्फीति फेफड़ों की एक प्रतिरोधी बीमारी को कहा जाता है क्योंकि कृपिका नामक छोटे वायुमार्गों के आसपास के फेफड़े के ऊतक का विनाश इन वायु मार्गों को सांस छोड़ते समय अपने कार्यात्मक आकार को बनाए रखने में अक्षम बना देता है।
शब्द का अर्थ है - सूजन और यह ग्रीक शब्द एम्हायसन से आया है जिसका अर्थ है - हवा भरना, यह शब्द En जिसका मतलब में तथा physa जिसका मतलब सांस लेना, वायुवेग है, से मिलकर बना है।[1]
वातस्फीति सामान्यतः क्रोनिक ब्रोन्काइटिस से संबंधित है। चूंकि "शुद्ध" पुराने ब्रोंकाइटिस या वातस्फीति के मामलों को समझना मुश्किल है, इसलिए उन्हें सामान्यत: एक साथ मिलाकर बहुत दिनों तक रहने वाली प्रतिरोधी फुफ्फुसीय रोग (COPD) के रूप में समझा जाता है।
वातस्फीति को प्राथमिक और गौण रंग में वर्गीकृत किया जा सकता है। हालांकि, अधिकतर इसे स्थान के आधार पर ही वर्गीकृत किया जाता है।
वातस्फीति को पनासिनरी (panacinary) तथा सेंट्रोआसिनरी (centroacinary) (या पानासिनर (panacinar) और सेंट्रिआसिनर (centriacinar),[2] या सेंट्रिलोबुलर (centrilobular) और पैनलोबुलर (panlobular) के रूप में उपविभाजित किया जा सकता है।[3]
अन्य प्रकारों में अनियमित तथा डिस्टल कोष्ठकी (Distal acinar) शामिल हैं।[2]
यह एक विशेष प्रकार जन्मजात लोबर वातस्फीति (CLE) है।
CLE के परिणाम स्वरुप फुफ्फुसीय लोब में अत्यधिक बढ़ोतरी तथा इप्सिलेटरल फेफड़े, एवं संभवत: कंट्रालेटेरल फेफड़े के भी बचे हुए लोबों में नतीजतन दबाव होता है। कमजोर या अनुपस्थित ब्रोन्कियल उपास्थि की वजह से ब्रोन्कियल कमजोरी पैदा होती है।[4]
सामान्यतः एक असामान्य रूप से बड़े फुफ्फुसीय धमनी के द्वारा जन्मजात अनावश्यक संपीड़न हो सकता है। इसके कारण ब्रोन्कियल उपास्थि नरम एवं लुंज-पुंज होकर विकृत हो जाती है।[4]
CLE सशक्त रूप से विपतिजनक है, फिर भी सांस लेने में कठिनाई के कारण जीवन पर संभाव्य खतरा बना रहता है।[4]
वातस्फीति कृपिका को पोषित करने वाली संरचना के नष्ट होने के कारण होनेवाला फेफड़े के ऊतक का रोग है, कुछ मामलों में अल्फा 1-एंटिट्रिप्सिन के कार्य की कमी के कारण भी यह हो जाता है। इसके कारण जबरदस्ती सांस लेते समय श्वास पथ पर धक्का लगता है, क्योकि वायुकोश का संकुचन कम हो जाता है। परिणामस्वरूप हवा का बहाव अवरूद्ध हो जाता है और हवा फेफड़े के अंदर फंस जाती है, उसी तरह जिस तरह कि अन्य प्रतिरोधी फेफड़े के रोगों में होता है। लक्षणों में मेहनत करते समय सांस की तकलीफ एवं छाती का फूलना शामिल है। हालांकि, हवा के आवागमन में संकीर्णता हमेशा तुरंत मृत्युकारक नहीं होती और इलाज भी उपलब्ध है। वातस्फीति से ग्रस्त अधिकांश लोग धूम्रपान करने वाले होते हैं। वातस्फीति के कारण हुआ नुकसान स्थायी होता है भले ही आदमी धूम्रपान छोड़ दे. इस रोग से ग्रस्त लोगों को पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिलता है और वे कार्बन डाइऑक्साइड का उन्मूलन नहीं कर पाते, इसलिए वे हमेशा सांस की कमी महसूस करते हैं।
वातस्फीति का प्राथमिक कारण सिगरेट पीना है। कुछ मामलों में यह अल्फा 1-एंटिट्रिप्सीन की कमी के कारण भी हो सकता है। A1AD के गंभीर मामले के कारण लिवर सिरोसिस (cirrhosis of liver) भी विकसित हो जाता है, जहां एकत्रित अल्फा 1-एंटिट्रिप्सीन डिफिसिअंसी फाइब्रोटिक (Fibrotic) प्रतिक्रिया को दिशा देते हैं।
सामान्य सांस लेने में हवा ब्रांकाई से होकर अंदर कृपिका में जाती है, जो केशिका से घिरी हुई छोटे आकार की थैलियां होती हैं। कृपिका ऑक्सीजन को अवशोषित कर बाद में इसे खून में स्थानांतरित कर देती है। जब सिगरेट के धुएं जैसी विषाक्त चीजें सांस लेते समय फेफड़े में जाती है तो उसके नुकसानदायक कण वहां उत्तेजक प्रतिक्रिया होने के कारण कृपिका में फंस जाते हैं। इस उत्तेजक प्रतिक्रिया (अर्थात् इलास्टीज) के दौरान रसायनों का निकलना अंतत: वायुकोश झिल्ली को तितर-वितर कर देता है। यह अवस्था जिसे हम झिल्लिय भंग के रूप में जानते हैं, फेफड़े की संरचना में महत्वपूर्ण विकृति घटित करता है।[5] इन विकृतियों के परिणामस्वरूप गैस आदान-प्रदान के लिए प्रयोग में आनेवाले कृपिका के सतह को घटा देती है। इसके परिणामस्वरूप ट्रान्सफर फैक्टर ऑफ़ दि लंग फॉर कार्बन मोनोऑकेसाईड (TLCO) में कमी आती है। घटे हुए सतह क्षेत्र को जगह देने के लिए थोरोसिक कैग फैलाव (बैरल छाती) तथा डाइफ्रैग्म कॉन्ट्रैक्शन (फ्लैटरिमग) घटित होते हैं। समाप्ति हमेशा थोरेसिक कैग और उदर की मांसपेशियों की क्रिया पर निर्भर करता है, विशेषत: समाप्ति के अंतिम चरण में. वेंटिलेशन की कमी की वजह से कार्बन डायऑक्साइड के रिसाव की क्षमता में उल्लेखनीय क्षति होती है। अधिक गंभीर मामलों में, ऑक्सीजन के जमाव में भी कमी आती है।
चूंकि कृपिका लागातार खराब होती जाती है, इसलिए अधिक हवा क्रमश: नष्ट हो रहे उसके सतह क्षेत्र की क्षतिपूर्ति नहीं कर पाती और शरीर खून में पर्याप्त ऑक्सीजन की अधिकता को बरकरार रखने में सक्षम नहीं हो पाता. ऐसे शरीर के लिए अंतिम उपाय सही वाहिकाओं का वेसोकंस्ट्रिक्ट करना होता है। यह पलमोनरी उच्च रक्तचाप की ओर ले जाता है जो हृदय के दायीं ओर दबाव बनाता है, हृदय का यह भाग ऑक्सीजन से लैस रक्त को फेफड़े तक प्रवाहित करता है। अधिक खून पंप करने के लिए हृदय की मांसपेशी गाढ़ी हो जाती है। इस हालत में अक्सर गले की शिराओं में फैलाव आ जाता है। अंततः, चूंकि हृदय फेल होना शुरू करता है, यह थोड़ा बड़ा होने लगता है और खून लिवर में जमा होने लगता है।
अल्फा 1-एंटिट्रिप्सिन डिफिसिएंसी (A1AD) की कमी वाले रोगी संभवतः वातस्फिति से अधिक ग्रस्त होते हैं। A1AD उत्तेजक एन्जाईमों (जैसे कि एलास्टेज) को ऐल्वीअलर ऊतकों को नष्ट करने की अनुमति देता है। अधिकतर A1AD रोगियों में वातस्फीति का रोग के रूप में विकास उतना महत्वपूर्ण नहीं होता, लेकिन धूम्रपान तथा A1AT स्तर में गंभीर कमी (10-15%) के कारण जवानी में भी वातस्फीति हो सकता है। A1AD के कारण होने वाले वातस्फीति को पेनासिनर वातस्फीति (पूरे एसिनस को शामिल करते हुए) के रूप में जाना जाता है, सेंट्रिलोबुलर वातस्फीति के विपरीत, जो धूम्रपान के कारण होता है। पैनासिनर वातस्फीति आम तौर पर निचले फेफड़ों को प्रभावित करता है जबकि सेंट्रिलोबुलर वातस्फीति ऊपरी फेफड़ों को प्रभावित करता है। संपूर्ण वातस्फीति में लगभग 2% वातस्फीति A1AD के कारण होता है। धुम्रपान करने वालों के साथ A1AD वातस्फीति के लिए सबसे बड़ा खतरा है। हल्का वातस्फीति अक्सर बहुत कम समय में (1 से 2 हफ्ते में) गंभीर रूप धारण कर लेता हैं।
A1AD हमें रोग के रोगाणुओं के पैदा होने का पता देती है, जबकि A1AT डिफिसिअंसी रोग के कुछ भाग के कारण की जानकारी देती है। पिछली सदी के बेहतर अध्ययनों ने मुख्य रूप से ल्युकोसाइट इलास्टेज (न्युट्रोफिल इलास्टेज भी) की कल्पित भूमिका पर ध्यान केन्द्रित किया, रोग में संयोजी ऊतक को नष्ट करने में प्रथमिक योगदान देने वाले सेरिन प्रोटीज को न्युट्रोफिल में पाया गया। जांच का यह परीणाम कि A1AT के लिए न्युट्रोफिल इलास्टेज प्राथमिक शुरूआती स्तर है और A1AT न्युट्रोफिल इलास्टेज का प्राथमिक संदमक है, यह दोनों परिकल्पना मिलकर "प्रोटीज-एंटीप्रोटीज " सिद्धांत के रूप में जानी जाती रही है, यह मानते हुए कि न्युट्रोफिल इस रोग का एक महत्वपूर्ण माध्यस्थ है। हालांकि, एकदम हाल के अध्ययनों से यह संभावना बनी है कि बहुत सारे प्रोटीज में से एक प्रोटीज, विशेषकर मैट्रिक्स मेटलोप्रोटीज गैर वंशानुगत वातस्फीति के विकास के लिए न्युट्रोफिल के बराबर या उससे अधिक प्रासंगिक हो सकता है।
वातस्फीति के पैथोजिनेसिस से संबंधित पिछले कुछ दशकों के बेहतर शोधों में जानवरों पर प्रयोग शामिल थे, जहां जानवरों की विभिन्न प्रजातियों के ट्रेकिआ में प्रोटीज को डालकर प्रयोग किया जाता था। इन जानवरों में संयोजी ऊतकों का विनाश विकसित हो गया जिसे प्रोटीज-एंटीप्रोटीज सिद्धांत के समर्थन के रूप में लिया गया। हालांकि, सिर्फ इस कारण से कि ये पदार्थ फेफड़ों के संयोजी ऊतक को नष्ट कर सकते हैं, जैसा कि कोई भी बता देने में सक्षम है, यह बात स्थापित नहीं हो जाती. एकदम हाल के प्रयोगों में तकनीकी रूप से अधिक उन्नत दृष्टिकोण पर ध्यान केन्द्रित किया गया है, किसी के अनुवांशिक हेर-फेर को शामिल करना. इस रोग की समझ के संबंध में एक निश्चित विकास उन प्रोटीज "नॉक-आउट" जानवर के उत्पादन में निहित है, जो जानवर एक या अधिक प्रोटीज में अनुवांशिक रूप से हीन हैं। इस रोग की समझ के संबंध में यह आकलन भी महत्वपूर्ण है कि क्या वे जानवर इस बीमारी के विकास के लिए कम अतिसंवेदनशील होंगे. इस रोग की चपेट में आने वाले व्यक्ति दुर्भाग्य से प्राय: बहुत कम दिन बचते हैं, अधिक से अधिक 0-3 साल.
रोग के पहचान की पुष्टि प्राय: पलमोनरी कार्य परीक्षण (अर्थात् स्पाईरोमिटरी) द्वारा की जाती है, हालांकि इसमें एक्स-रे रेडियोग्राफी को भी शामिल किया जा सकता है।
वातस्फीति एक अपरिवर्तनीय अपक्षयी अवस्था है। इस रोग के बढ़ने को धीमा करने का एकमात्र तरीका यह है कि रोगी धुम्रपान बंद कर दे तथा सिगरेट पीने के सभी जोखिम तथा फेफड़े को उत्तेजित करने वाले तत्वों से बचे। पलमोनरी पुनर्वास रोगी के जीवन की गुणवत्ता को अनुकूल बनाने में बहुत ममदगार हो सकता है और उन्हें यह बता सकता है कि वे सक्रिय रूप से अपनी देखभाल कैसे करें. वातस्फीति और क्रोनिक ब्रोन्काइटिस से ग्रस्त मरीज किसी अन्य अपंग बना देने वाली बीमारी से ग्रस्त मरीजों की तुलना में खुद की अधिक मदद कर सकते हैं।
वातस्फीति का इलाज जरूरी होने पर एंटीकोलिन्जर्गिक्स से सांस का सहारा देकर, ब्रोंकोडिलेटर्स, स्टेरॉयड मेडिकेशन (इनहेल्ड या ओरल), शरीर को प्रभावी अवस्था में रखकर (उच्च फाउलर्स), तथा वैकल्पिक ऑक्सीजन के द्वारा भी किया जा सकता है। रोगी की अन्य अवस्थाओं जैसे, गैस्ट्रिक रिफ्लक्स तथा एलर्जी का इलाज करने से फेफड़े के कार्य में सुधार होता है। निर्धारित किए गए पूरक अक्सीजन का उपयोग (आमतौर पर एक दिन में 20 धंटे से ज्यादा) ही एकमात्र नॉन-सर्जिकल इलाज है, जिसके द्वारा वातस्फीति के रोगियों को लंबा जीवन दिया जा सकता है। ऐसे हल्के पोर्टेबल ऑक्सीजन की व्यवस्था है जो रोगियों की गतिशीलता को बढ़ाते हैं। पूरक ऑक्सीजन का प्रयोग करते हुए रोगी वायुयात्रा कर सकते हैं, घूम सकते हैं और काम भी कर सकते हैं। अन्य दवाओं का शोध किया जा रहा है।
लंग वॉल्यूम रिडक्शन सर्जरी (LVRS) सावधानीपूर्वक चुने गए कुछ रोगियों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार कर सकती हैं। यह अलग तरीकों से किया जा सकता है, जिनमें से कुछ कम इनवेसिव हैं। जुलाई 2006 में खराब फेफड़े के क्षेत्र तक ले जाने वाले पैसेज में एक छोटा वाल्व रख कर एक नई तरह से इलाज करने को अच्छा परिणाम देने वाला बताया गया, लेकिन इससे 7% रोगी आंशिक रूप से फेफड़े के फटने के शिकार हो गए। वातस्फीति का एक मात्र जाना माना इलाज फेफड़ों का प्रत्यारोपण है, लेकिन कुछ रोगी ही इतने मजबूत होते हैं कि इस सर्जरी को सह सकते हैं। वातस्फीति के इलाज के दौरान एक मरीज की उम्र का संयोजन, ऑक्सीजन हानि और दवाईयों के साईड-इफेक्ट्स के कारण, दिल और गुर्दे और अन्य अंग बेकार हो जाते हैं। सर्जिकल प्रत्यारोपण के समय रोगी को एक एंटी-रिजेक्शन ड्रग रेजिमेन लेने की जरूरत पड़ती है जो शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को दबा देती है, तथा रोगी में माईक्रोबियल संक्रमण भी पैदा कर सकती है। जिन रोगियों को लगता है कि वे इस रोग के शिकार हो गए हैं तब जितनी जल्दी हो सके, उन्हें इसके उपचार पर ध्यान देना चाहिए.
यूरोपियन रिस्पिरेटरी जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन यह बताता है कि विटामिन A से प्राप्त ट्रेटिनॉयन (एक मुहांसा-विरोधी दवा, जो रेटिन-A के रूप में दुकानों पर उपलब्ध है) चूहों के कृपिका में लचीलापन लाकर (तथा जीन मेडिटेशन द्वारा फेफड़े के ऊतकों को दुबारा पैदा कर) वातस्फीति के प्रभाव को उलट देती है।[6][7]
जबकि विटामिन A के कंजप्शन को इस रोग के प्रभावी इलाज या रोकथाम के रूप मे नहीं लिया जाता, फिर भी यह अनुसंधान भविष्य में इस रोग को दूर करने को एक दिशा दे सकता है। उसके बाद 2010 में मनुष्य की वातस्फीति के इलाज के लिए विटामिन-A (रेंटिओनिक एसिड) का प्रयोग कर किये गये अध्ययन का अनिश्चित ("कोई निश्चित चिकित्सीय लाभ नहीं") परिणाम निकला और यह उल्लेख किया गया कि इस तरह के इलाज को लेकर किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए आगे का शोध जरूरी है।[8]
वातस्फीति के उल्लेखनीय मामलों में एवा गार्डनर, डॉन कॉर्नेल, स्पेन्सर ट्रेसी,[9] लियोनार्ड बर्नस्टाईन, एडी डीन,[10] डीन मार्टिन, नोर्मन रॉकवेल, शमूएल बाकेट, जॉनी कार्सन, अल कैप, टी.एस. इलियट, टैलुला बैंकहेड, डिक यार्क, जेम्स फ्रांसिस्कस, आर.जे . रिनॉल्ड्स, आर.जे .रिनॉल्ड्स, जूनियर, आर.जे. रिनॉल्ड्स, III,[11] डॉन ईमुस,[12] आइक टर्नर, चार्ली सिम्पसन, योसेफ हईम येरूशलमी, एलिजाबेथ डॉन, जेरी रीड, बोरिस कॉर्लफ, लियोनिद ब्रेजनेव एवं पॉल अवेरी शामिल हैं।[13]
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