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वर्मपंखी गण या 'कंचुकपक्ष' (कोलिऑप्टेरा, Coleoptera) कीटवर्ग (इनसेक्टा) का एक अति विकसित, गुणसंपन्न तथा महान् गण (आर्डर) है।
वर्मपंखी Beetle | |
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कुछ वर्मपंखी जातियाँ | |
वैज्ञानिक वर्गीकरण | |
जगत: | जंतु |
संघ: | युआर्थ्रोपोडा (Euarthropoda) |
अश्रेणीत: | पैनक्रस्टेशिया (Pancrustacea) |
उपसंघ: | षटपाद (Hexapoda) |
वर्ग: | इन्सेक्टा (Insecta) |
गण: | वर्मपंखी (Beetle) लीनियस, 1758 |
उपगण | |
† - विलुप्त |
इसके मुख्य लक्षण ये हैं : दो जोड़े पंखों में से अगले ऊपरी पंखों का कड़ा, मोटे चमड़े जैसा होना; ये अगले पंख पीठ की मध्य रेखा पर एक दूसरे से मिलते हैं और इनको बहुधा पक्षवर्म (एलिट्रा, Elytra) कहते हैं; पिछले पंख पतले, झिल्ली जैसे होते हैं और अगले पंखों के नीचे छिपे रहते हैं जिनसे उनकी रक्षा होती है; उड़ते समय पक्षवर्म संतोलकों का काम करते हैं; इनके वक्षाग्र (प्रोथोरेक्स, Prothorax) बड़े होते हैं; मुख अंग कुतरने या चबाने के योग्य होते हैं; इनके डिंभ (लार्वा) विविध प्रकार के होते हैं, किंतु ये कभी भी प्रारूपिक बहुपादों (पॉलीपॉड्स Polypods) की भाँति के नहीं होते। साधारणत: इस गण के सदस्यों को अंग्रेजी में 'बीट्ल' कहते हैं और ये विविध आकार प्रकार के होने के साथ ही लगभग सभी प्रकार के वातावरण में पाए जाते हैं। उड़ने में काम आनेवाले पंखों पर चोली के समान संरक्षक पक्षवर्म (एलिट्रा) रहने के कारण ही इन जीवों को कंचुकपक्ष कहते हैं।
कंचुकपक्ष गण में 2,20,000 से अधिक जातियों का उल्लेख किया जा चुका है और इस प्रकार यह कीटवर्ग ही नहीं, वरन् समस्त जंतु संसार का सबसे बड़ा गण है। इनकी रहन-सहन बहुत भिन्न होती है; किंतु इनमें से अधिकांश मिट्टी या सड़ते गलते पदार्थों में पाए जाते हैं। कई जातियाँ गोबर, घोड़े के मल, आदि में मिलती हैं और इसलिए इनको गुबरैला कहा जाता है। कुछ जातियाँ जलीय प्रकृति की होती हैं; कुछ वनस्पत्याहारी हैं और इनके डिंभ तथा प्रौढ़ दोनों ही पौधों के विभिन्न भागों को खाते हैं; कुछ जातियाँ, जिनको साधारणत: घुन नाम से अभिहित किया जाता है, काठ, बाँस आदि में छेदकर उनको खोखला करती हैं और उन्हीं में रहती हैं। कुछ सूखे अनाज, मसाले, मेवे आदि का नाश करती हैं।
नाप में कंचुकपक्ष एक ओर बहुत छोटे होते हैं, दूसरी ओर काफी बड़े। कोराइलोफ़िडी (Corylophidae) तथा टिलाइडी (Ptiliidae) वंशों के कई सदस्य 0.5 मिलीमीटर से भी कम लंबे होते हैं तो स्कैराबीडी (Scarabaeidae) वंश के डाइनेस्टीज़ हरक्यूलीस (Dynastes hercules) तथा सरैंबाइसिडी (Cerambycidaee) वंश के मैक्रोडॉन्शिया सरविकॉर्निस (Maerodontia Cervicornis) की लंबाई 15.5 सेंटीमीटर तक पहुँचती है। फिर भी संरचना की दृष्टि से इनमें बड़ी समानता है। इनके सिर की विशेषता है गल (ग्रीव, अंग्रेजी में gula) का सामान्यत: उपस्थित होना, अधोहन्वस्थि (मैंडिब्ल्स, mandibles) का बहुविकसित और मजबूत होना, ऊर्ध्वहन्वस्थि (मैक्सिली) का सामान्यत: पूर्ण होना तथा अधरोष्ठ (लेबियम) में चिबुक (मेंटम) का सुविकसित होना। वक्ष भाग में वक्षाग्र बड़ा तथा गतिशील हाता है और वक्षमध्य तथा वक्षपश्च एक दूसरे से जुड़े होते हैं; पृष्ठकाग्र (प्रोनोटम) एक ही पट्ट का बना होता है तथा पार्श्वक (प्लूरान) कई पट्टों में नहीं विभाजित होता। टाँगें बहुधा दौड़ने या खोदने के लिए संपरिवर्तित होती हैं, किंतु जलीय जातियों में ये तैरने योग्य होती हैं। पंखों में पक्षवर्म लाक्षणिक महत्व के हैं तथा पिछले पंख का नाड़ीविन्यास (वेनेशन) अन्य गणों के नाड़ीविन्यास से भिन्न होता है-इसकी विशेषता है लंबवत् नाड़ियों की प्रमुखता। नाड़ीविन्यास तीन मुख्य भेदों में बाँटा जाता है :
उदर की संरचना भी विभिन्न होती है, किंतु उसमें बहुधा नौ स्पष्ट खंड होते हैं। कई वंशों में उदर के पिछले खंड पर जनन संबंधी प्रवर्ध होते हैं। नर में ये मैथुन में सहायक होते हैं और स्त्री में अंडरोपकों (ओविपॉज़िटरों Ovipositors) का निर्माण करते हैं। इनका संबंध कुछ हद तक अंखरोपण स्वभाव से होता है और ये वर्गीकरण में सहायक हैं।
अधिकांश जातियों में किसी न किसी प्रकार के ध्वनि-उत्पादक अंग पाए जाते हैं। इनकी रचना अनेक प्रकार की होती है। इनकी स्थितियाँ भी बहुत विभिन्न होती हैं। उदाहरण के लिए ये शिर के ऊपर तथा अग्र वक्ष पर स्थित हो सकते हैं, या शिर के नीचे के भाग में। स्थिति के अनुसार गहन (1900) ने इनको चार मुख्य भेदों में बाँटा है। स्कैराबीडी वंश के सदस्यों में ये बहुत सुविकसित दशा में मिलते हैं।
कंचुकपक्ष कीटों के जीवनेतिहास में स्पष्ट रूपांतरण होता है। अंडे विविध स्थानों में दिए जाते हैं और विविध रूप के होते हैं। उदाहरण के लिए ऑसिपस (Ocypus) वंश के अंडे बहुत बड़े और संख्या में थोड़े होते हैं और मिलोइडो (Meloidae) वंश के अंडे बहुत छोटे और बहुसंख्यक होते हैं। हाइड्रोफिलिडी (Hydrophilidae) वंश में अंडे कोषों में सुरक्षित रखे जाते हैं और कैसिडिनी (Cassidinae) उपवंश में वे एक डिंबावरण में लिपटे होते हैं। कॉक्सिनेलिडी (Coccinellidae) के अंडे पत्तियों पर समूहों में दिए जाते हैं और करकुलियोनिडी (Curculionidae) के कीट अपने मुखांग द्वारा पौधों या बीजों में छेद कर उनमें अंडे देते हैं। इसी प्रकार स्कोलाइटिनी (Scolytinae) में स्त्री अंडों और डिंभ की रक्षा और उनका पोषण भी करती है।
इनमें वर्धन काल में स्पष्ट रूपांतरण होता है तथा डिंभ विविध प्रकार के हाते हैं। रोचक बात यह है कि ये डिंभ रहन-सहन के अनुरूप संपरिवर्तित होते हैं। एडिफेगा (Adephaga) उपवर्ग में तथा कुछ पालीफ़ागा (Polyphaga) में डिंभ अविकसित कैंपोडाई (Campodai) रूपी होते हैं, अर्थात् ये जंतुभक्षी, लंबी टाँगों, मजबूत मुखांगोंवाले तथा कुछ चिपटे होते हैं। कुकुजॉयडिया (Cucujoidea) के डिंभ कैंपोडाई रूपी तथा एरूसिफ़ार्म (Eruciform) के बीच के होते हैं, अर्थात् उनमें औदरीय टाँगें दिखाई पड़ती हैं। करकुलियोनायडिया में अपाद (ऐपोडस) अर्थात् बिना टाँगों के डिंभ होते हैं। स्पष्ट है कि कैंपोडाई रूपी डिंभ बहुत गतिशील होते हैं, परिवर्तित कैंपोडाई रूपी कम क्रियाशील तथा पादरहित डिंभ गतिविहीन होते हैं। काठ में सुरंग बनानेवाले डिंभ बहुत साधारणत: मांसल होते हैं, इनके मुखांग मजबूत होते हैं और शिर वक्ष में धँसा रहता है। जलीय वंशों के डिंभों की टाँगें तैरने के निमित्त संपरिवर्तित होती है। कुछ वंशों में, जैसे मिलोइडी (Meloidae), राइपिफ़ोरिडी (Rhipiphoridae) तथा माइक्रोमाल्थिडी (Micromalthidae) में अतिरूपांतरण (हाइपरमेटामॉर्फ़ोसिस, hypermetamorphosis) पाया जाता है। इनमें डिंभ की विभिन्न अवस्थाएँ अलग-अलग रूपों की होती हैं।
इतनी विविधता के कारण कंचुकपक्षों का वर्गीकरण विशेष जटिल है और यहाँ उसकी बहुत संक्षिप्त रूपरेखा मात्र ही दी जा सकती है। क्रोसन (Crowson) द्वारा सन् 1955 में दिए गए आधुनिक वर्गीकरण के अनुसार इस गण को चार उपगणों में बाँटा जाता है-आर्कोस्टेमाटा (Archostemata), एडिफ़ेगा (Adephaga), मिक्सोफ़ेगा (Myxophaga), तथा पॉलिफ़ेगा (Polyphage)। आर्कोस्टेमाटा में केवल दो वंश और लगभग 20 जातियाँ हैं : वंश क्यूपेडाइडी (Cupedidae) की जतियाँ केवल जीवाश्म रूप में पाई जाती हैं और माइक्रोमैल्थिडी में जीवित जातियाँ हैं। यह उपगण अति अविकसित है। एडिफ़ेगा उपगण कुछ लक्षणों में अविकिसित तथा कुछ लक्षणों में विशिष्ट है। कुछ सदस्यों को छोड़ सभी जंतुभक्षी होते हैं। इस उपगण में 10 वंश रखे गए हैं-राइसोडाइडी (Rhisodidae), पासिडी (Paussidae), कैराबिडी (Carabidae), ट्रैकीपैकीडी (Trachypachidae), हैलिप्लाइडी (Haliplidae), ऐंफ़िजोइडी (Amphizoidae), हाइग्रोबाइडी (Hygrobiidae), नोटेरिडी (Noteridae), डाइटिस्किडी (Dytiscidae) तथा गाइरिनिडी (Gyrinidae)। इनमें से कैराबिडी प्रारूपिक वंश है और इसके सदस्य संसारव्यापी हैं; तथा डाइटिस्किडी के सदस्य वास्तविक जलीय प्रवृत्ति के हैं। मिस्कोफ़ेगा उपगण में अधिकांश संदेहजनक स्थिति की जातियाँ हैं जिनको चार छोटे वंशों में रखा जाता है-लेपिसेरिडी (Lepiceridae), हाइड्रोस्कैफ़िडी (Hydroscaphidae), स्फ़ीराइडी (Sphaerijdae) तथा कैलिप्टोमेरिडी (Calyptomeridae)। पालीफ़ेगा में अधिकांश बीट्लों की जतियाँ आती हैं जिनकी विविध संरचना तथा रहन-सहन के कारण उनका वर्गीकरण बहुत कठिन समझा जाता है। क्रोसन इस उपगण को 19 वंशसमूहों में बाँटते हैं जिनके अंतर्गत रखे जानेवाले वंशों की कुल संख्या 141 है। इन वंशों का नाम तो यहाँ देना संभव नहीं है, किंतु वंशसमूह इस प्रकार हैं। हाइड्रोफ़िलॉयडिया (Hydrophiloidea) जिसके अंतर्गत अधिकतर जलीय प्रकृति की जातियाँ हैं। इनमें पाँच वंश माने गए हैं; हिस्ट्ररॉयडिया, (Hysteroidea), जिसमें तीन वंश हैं; स्टैफ़िलिनोडिया (Staphylinodea) जिसमें 10 वंश रखे जाते हैं; स्कैराबायडिया (Scaraboidea), जिसमें छह वंश हैं; डैस्किलिफ़ॉर्मिया (Dascilliformia), जिसमें चार वंश हैं; बिरायडिया (Byrrhojdea), जिसमें केवल एक ही वंश है; ड्रायोपायडिया, जिसमें आठ वंश रखे गए हैं; ब्युपेस्टेरायडिया (Bupesteroidea) जिसमें एक ही वंश है; रिपेसेरायडिया (Rhipiceroidea), जिसमें दो वंश हैं; इलेटेरायडिया (Elateroidea), जिसमें छह वंश हैं; कैथेरायडिया (Cantheroidea), जिसमें नौ वंश हैं; बोस्ट्रिकाडिया (Bostrychoid a), जिसमें चार वंश हैं; डरमेस्टायडिया (Dermestoidea) जिसमें पाँच वंश हैं; क्लेरायडिया (Cleroidea), जिसमें पाँच वंश है; लाइमेक्सिलायडिया (Lymexyloidea), जिसमें एक ही वंश है; कुकुजायडिया (Cucujoidea), जो सबसे बड़ा 57 वंशोंवाला उपसमूह है; क्राइसोमेलायडिया (Crysomeloidea), जिसमें केवल दो किंतु बहुत बड़े वंश हैं; करकुलियोनायडिया (Curculoinoidea), जिसमें नौ वंश हैं तथा स्टाइलोपायडिया (Stylopoidea), जिसमें दो वंश रखे जाते हैं।
कंचुकपक्ष गण के कीट हमारे लिए बहुत आर्थिक महत्व के हैं। इसके अंतर्गत अनाज, तरकारियों, फलों आदि का विनाश करनेवाली विविध जातियाँ, चावल, आटा, गुदाम में रखी दाल, गेहूँ, चावल आदि में लगनेवाले घुन, सूँड़ी इत्यादि, ऊन चमड़े आदि की 'कीड़ी' तथा काठ में छेद करनेवाले धुन हैं।
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