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मोनोट्रीम (monotreme, अर्थ: एकविदर) या अंडजस्तनी स्तनधारी प्राणियों का एक जीववैज्ञानिक गण (ऑर्डर) है, जिसमें अब दो ही प्रकार के जंतु जीवित हैं। यह अण्डे देते हैं लेकिन फिर जन्मने वाले शिशु को माता के स्तन से दूध पिलाते हैं। आधुनिक जगत में मोनोट्रीम की पाँच जातियाँ अस्तित्व में हैं जिनमें से एक प्लैटीपुस और चार एकिडना की जातियाँ हैं।
मोनोट्रीम Monotreme | |
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लघुचोंच एकिडना, प्लैटीपुस, स्टेरोपोडोन (विलुप्त) और पश्चिमी दीर्घचोंच एकिडना | |
वैज्ञानिक वर्गीकरण | |
जगत: | जंतु |
संघ: | रज्जुकी (Chordata) |
वर्ग: | स्तनधारी (Mammalia) |
अध:वर्ग: | ऑस्ट्रेलोस्फ़ेनाइडा (Australosphenida) |
गण: | मोनोट्रीमाटा (Monotremata) बोनापार्ट, १८३७ |
उपसमूह | |
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लातीनी भाषा में इस गण का नाम मॉनोट्रीमैटा है, जिसका अर्थ है एकविदर, अर्थात् एक छिद्रवाले जंतु (मॉनो = एक + ट्रीमा = छिद्र, विद्र)। संभवत: इन्हें अंडजस्तनी कहना अधिक उचित होगा, क्योंकि बच्चे अंडे से निकलते हैं और निकलने पर माता के स्तन से दूध पीते हैं।
अंडजस्तनी प्राणी अन्य सभी स्तनधारियों से कुछ इतने भिन्न हैं कि इनके लिए प्रोटोथीरिया नामक एक अलग उपवर्ग की कल्पना करनी पड़ी है जिसमें केवल वरटचंच (डक बिल, ऑरनिथोरिंकस) तथा सकंटी (स्पाइनी ऐंट-ईटर, टैकीग्लॉसस तथा ज़ैग्लॉसस) नामक प्राणी रखे जाते हैं। ये स्तनधारी प्राणी (मैमाल) हैं, क्योंकि इनके सारे शरीर पर बाल, पूर्ण विकसित उर:प्राचीर (डायफ्राम), चार वेश्मोंवाला हृदय, केवल बायाँ ही महाधमनी चाप (एऑटिक आर्च), केवल दंतास्थि की ही बनी अधोहन्वस्थि (मैंडिबिल), शिशुओं के पोषण के लिए नारी के उदर पर उपस्थित स्तनग्रंथियाँ, शरीर का एकसम ताप, त्वचा में स्वेद ग्रंथियाँ तथा तैल ग्रंथियाँ, तीन कर्णस्थिकाएँ तथा (संकटियों में) परिवलित (कनवोल्यूटेड) मस्तिष्क और बाहरी कान तथा कर्णपल्लव (पिना) होते हैं। विकास की दृष्टि से वर्तमान स्तनधारियों में इनकी स्थिति सबसे निम्नकोटि की है, क्योंकि इनमें अनेक लक्षण सरीसृपों के से पाए जाते हैं, जैसे अंसमेखला (पेक्टोरल गर्डिल) में उरोंस्यास्थि (कोराकॉयड), पुर:उरोंस्यास्थि (प्रिकोराकॉयड) तथा अंतराक्षकास्थि (इंटरक्लैविकिल) का अलग अलग होना, ग्रैव पर्शुकाओं (सर्विकल रिब्स) की उपस्थिति, कपाल की अनेक अस्थियों का सरीसृपों की ही भाँति का होना, डिंबवाहिनियों का आरंभ से अंत तक अलग अलग होना और अवस्कर वेश्म (क्लोएकल चेंबर) में अलग अलग जनन रध्रों द्वारा खुलना, आदि। सबसे प्रमुख तथा सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण सरीसृपी लक्षण है, चर्मसदृश तथा आनम्य (लचीला) आवरण तथा पर्याप्त अंडपीत से युक्त अंडे देना, जैसा अन्य किसी भी उन्नत स्तनधारी में नहीं पाया जाता। इनके इस लक्षण के कारण ही हम इन्हें अंडजस्तनी कहते हैं।
इन प्राणियों के सिर का अगला भाग तुंड के रूप का होता है और प्रौढ़ावस्था में दाँत अनुपस्थित रहते हैं। स्तनग्रंथियों में चूचुक नहीं होते। नारी में न तो गर्भाशय ही होता है और न योनि ही। नर में वृषण उदर में ही स्थित रहते हैं तथा शिश्न से केवल शुक्राणु बाहर आते हैं, मूत्र नहीं। पाचन तथा जननतंत्र अलग अलग छिद्रों द्वारा बाहर न खुलकर केवल एक अवस्कर (गुदा) द्वार ही बाहर खुलते हैं। स्तनियों में एक यही ऐसे हैं जिनमें क्रव्यांगक (कैरंकल) तथा अंडदंत (एग टूथ) पाए जाते हैं। जीवाश्मों (फ़ॉसिल्स) की अनुपस्थिति में इनके प्राचीन इतिहास के विषय में ऐसा अनुमान है कि इनका उद्भव संभवत: रक्ताश्म (ट्रायसिक) युग में (या इससे भी पूर्व) हुआ था। ये प्राणी आज आस्ट्रेलिया, तस्मानिया, न्यू गिनी तथा पापुआ में ही शेष रह गए हैं और वहाँ भी संवभत: इसलिए कि एक तो भौगोलिक दृष्टि से इनका निवासस्थल अन्य भूभागों से अलग था और दूसरे इनके जीवनयापन के ढंग में इनका प्रतिस्पर्धी दूसरा स्तनधारी उस भूभाग में नहीं था।
अंडजस्तनिन गण के उदाहरण सकंटी (टैकीग्लॉसस) तथा प्रसकंटी (ज़ैकीग्लॉसस) हैं, जिनकी पीठ पर आत्मरक्षा के साधनस्वरूप बालों के साथ ही अनेक पृष्ठकंट होते हैं। उनके छोटे तथा मजबूत पैरों की अँगुलियों में, अपने रहने का विवर खोदने और अपने आहार के लिए चींटियों और दीमकों के बिल खोदने के लिए लंबे, तेज तथा सुदृढ़ नख होते हैं। एक अन्य उदाहरण अर्धजलचारी वरटचंचु हैं जो जल में डुबकी लगाकर अपनी बतख की सी चोंच से घोंघे, सीप, कृमि तथा कठिनिवल्कियों को कीचड़ से निकालकर अपने गालों में भर लाता है और तट पर बनाए हुए अपने विवर में जाकर उनके कवच आदि तोड़कर आराम से उन्हें खाता है। वरटचंचु गोता लगाने तथा तैरने में बड़ा ही कुशल होता है, जिसके लिए इसके पैरों की अँगुलियाँ त्वग्बद्ध होती हैं। इसका मुलायम लोमश चर्म (ऊर्णाजिन) तथा मांस दोनों ही मनुष्य अपने उपयोग में लाता है।
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