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भारतीय पत्थरों पर फारसी शिलालेख डॉ॰ अली असगर हिकमत शिराज़ी की बहुमूल्य पुस्तकों में से एक है जो साल 1956 और 1958 में प्रकाशित हुई थी।
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लेखक | हेकमत इ शिराज़ी and Dr.Ajam |
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मूल शीर्षक | نقش پارسی بر احجار هند |
रचनाकार | Dr. Mohammad Ajam |
कवर कलाकार | Dr.Ajam |
भाषा | Persian -English |
विषय | Persian Inscriptions on the Indian Monuments |
प्रकाशित | 1956-1958-2013 |
प्रकाशक | New Delhi, Tehran university |
Text | [[s:Parssea |]] at Wikisource |
इस पुस्तक में 80 से अधिक उत्कृष्ट फारसी शिलालेख शामिल है जो भारत के ऐतिहासिक स्मारकों में पाए जाते हैं। इनमें से कई स्मारक आज राष्ट्रीय धरोहर में शामिल किए गए हैं और उन को यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर के रूप में भी पंजीकृत किया गया है।
इस पुस्तक को आधी शताब्दी से अधिक के बाद पुन: प्रकाशित किया गया है। नए संस्करण में इन शिलालेखों में से कई की छवियाँ और एक नया अध्याय (सातवाँ अध्याय) शामिल किए गए हैं इस अध्याय के पाँच भाग हैं
File:Agra India persian poem.jpg|Calligraphy of Persian poems (18th century) File:Agra castle India persian poem.jpg|Persian poem पहला भाग: हैदराबाद के कुछ उत्कृष्ट शिलालेख दूसरा भाग: फारसी बंगाली पत्थरों पर तीसरा भाग: गोरखानी वास्तुकला - मुगल वास्तुकला या भारत की ईरानी वास्तुकला चौथा भाग: फारसी भाषा का महत्व और हिंदी और उर्दू जैसी अन्य भाषाओं पर उसका प्रभाव पांचवाँ भाग: शाही आदेशों के कुछ नमूने - सरकारी अनुदेश, हैदराबाद और दिल्ली के संग्रहालयों में पाए जाने वाले फारसी चित्रों की उत्कृष्ट प्रतियां।
इस नए संस्करण को डॉ॰ मोहम्मद अजम के प्रयासों से मुद्रित किया गया है।
नए संस्करण को भारत में “पूरे विश्व की विरासत पर फारसी प्रभाव ” शीर्षक के तहत मुद्रित किया गया है। यह शीर्षक अधिक उचित और सही है क्योंकि कुछ शिलालेख आज केवल पत्थर नहीं हैं बल्कि वास्तव में मानव की वैश्विक और आध्यात्मिक विरासत का रिकॉर्ड हैं। नए संस्करण में 120 चित्र शामिल हैं। पुस्तक के प्रकाशक का कहना हैं : य़ह पुस्तक उन प्रयासों का परिणाम है जो भारत में फारसी भाषा के सांस्कृतिक मूल्यों को श्रद्धांजलि देने की भावना से अन्जाम दिए गए हैं। आज फारसी भाषा भारत में अपनी गतिशीलता खो चुकी है और केवल इतिहास तथा संग्रहालयों तक ही सीमित होकर रह गयीं है।
यदि हिकमत ने इस के अलावा कोई और किताब न लिखी होती तो यही किताब उनका नाम अमर बनाने के लिए काफी थी और यदि किताबखाने इबने सीना ताबान और प्रकाशन ने इस किताब को प्रकाशित न किया होता तो सम्भवतः यह पुस्तक भी भुला दी गई पुस्तकों में से एक होती। इस पुस्तक को तीसरी बार प्रकाशित करने से हमारा उद्देश्य यह है कि इस बेहतरीन पुस्तक को पुस्तकालयों की अलमारियों से बाहर निकाल कर समाज के बीच लाया जाए। समय और संसाधनों की कमी के कारण इस पुस्तक में सम्मिलित तस्वीरों को साधारण कैमरे और मोबाइल से लिया गया है। एक विशेषज्ञ ही पत्थरों के शिलालेखों की तस्वीरें अच्छी तरह ले सकता है और यह कार्य एक शोधकर्ता की क्षमता से ऊपर है। इस कार्य के लिए सरकारी या निजी क्षेत्रों द्वारा आर्थिक सहायता की भी आवश्यकता है। अफसोस की बात है कि निजि कंपनियाँ और धनी वर्ग हर जगह पैसा खर्च करते हुए देखे जा सकते हैं, लेकिन ये लोग पुस्तक के प्रकाशन में अपना धन नहीं लगाते। इस पुस्तक के प्रकाशन का उद्देश्य सांस्कृतिक अधिकारियों और परोपकारियों का ध्यान इस ओर आकर्षित करना है कि वो इस लोग पुस्तक के प्रकाशन की ओर ध्यान दे ताकि भविष्य में इस पुस्तक को बेहतरीन तरीके से और पेशेवर तस्वीरों के साथ प्रकाशित किया जा सके। अकादमिक हलकों में इस पुस्तक की कमी को तीव्रता के साथ महसूस किया जा रहा था। विशेष रूप से फ़ारसी भाषा और साहित्य के छात्रों ने इस किताब की बहुत कमी महसूस की। यह जरूरत भी महसूस की गई कि एक सचित्र और अधिक प्रामाणिक किताब दुबारा लिखी जाए जिसमें डॉ॰ हिकमत द्वारा उपयोग किए गए अरबी शब्दों को बदल दिया जाए क्योंकि आज के फारसी भाषी लोग इन शब्दों को समझ नहीं पाते। इसलिए इन शब्दों को बदला गया और कुछ चीजें बढ़ाई भी गई हैं। किंतु डॉ॰ हिकमत की किताब की मूल भाषा ईमानदारी के साथ सुरक्षित रखी गई है। यह केवल पहला कदम है। डॉ॰हिकमत की इच्छा थी कि भविष्य में आने वाले लोग इस बारे में अधिक कदम उठाएँगे। नए संस्करण की एक कॉपी इंटरनेट पर भी अपलोड की गई है जिसको मुफ्त इस्तेमाल किया जा सकता है। लेकिन इसकी पेज संख्या पुस्तक की पेज संख्या से भिन्न है। इस पुस्तक में सम्मिलित शिलालेखों को उदाहरण इस प्रकार हैं।
जामा मस्जिद दिल्ली बीबी का मकबरा हुमायूं का मकबरा ताज महल नूर महल [[सराय सिकन्दरा]] फतेहपुर सीकरी आगरा फोर्ट मोइनुद्दीन चिश्ती लाल किला दिल्ली बाबरी मस्जिद बादशाही मस्जिद
मध्यकालीन मुस्लिम वास्तु[संपादित करें]
वास्तुकला, फारसी और भारत में 1800 तक की अवधि के 1300 की वास्तुकला पर ईरानी प्रभाव
स्पष्ट है। इस अवधि में मुगल की अवधि कहा जाता है फारसी है और मुगल काल गलत है यमुना के दूसरे पार से ताजमहल का दृष्य मुगल वास्तुकला, जो कि भारतीय, इस्लामी एवं फारसी वास्तुकला का मिश्रण है, एक विशेष शैली, जो कि मुगल साम्राज्य ने भारत में 16वीं एवं 17वीं सदी में जन्म लिया। वास्तुकला पर मुसलमानों के आक्रमण का जितना प्रभाव भारत में पड़ा उतना अन्यत्र कहीं नहीं, क्योंकि जिस सभ्यता से मुस्लिम सभ्यता की टक्कर हुई, किसी से उसका इतना विरोध नहीं था जितना भारतीय सभ्यता से। चिर प्रतिष्ठित भारतीय सामाजिक और धार्मिक प्रवृत्तियों की तुलना में मुस्लिम सभ्यता बिलकुल नई तो थी ही, उसके मौलिक सिद्धात भी भिन्न थे। दोनों का संघर्ष यथार्थवाद का आदर्शवाद से, वास्तविकता का स्वप्नदर्शिता से और व्यक्त का अव्यक्त से संघर्ष था, जिसका प्रमाण मस्जिद और मंदिर के भेद में स्पष्ट है। मस्जिदें खुली हुई होती हैं, उनका केंद्र सुदूर मक्का की दिशा में होता है; जबकि मंदिर रहस्य का घर होता है, जिसका केंद्र अनेक दीवारों एवं गलियारों से घिरा हुआ बीच का देवस्थान या गर्भगृह होता है। मजिस्द की दीवारें प्राय: सादी या पवित्र आयतों से उत्कीर्ण होती हैं, उनमें मानव आकृतियों का चित्रण निषिद्ध होता है; जबकि मंदिरों की दीवारों में मूर्तिकला और मानवकृति चित्रण उच्चतम शिखर पर पहुँचा, पर लिखाई का नाम न था। पत्थरों के सहल रंगों में ही इस चित्रण द्वारा मंदिरों की सजीवता आई; जबकि मस्जिदों में रंगबिरंगे पत्थरों, संगमर्मर और चित्र विचित्र पलस्तर के द्वारा दीवारें मुखर की गई। [1] [2]
गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत पर एक ही प्रकार की भारी भरकम संरचनाएँ खड़ी करने में सिद्धहस्त, भारतीय कारीगरों की युगों युगों से एक ही लीक पर पड़ी, निष्प्रवाह प्रतिभा, विजेताओं द्वारा अन्य देशों से लाए हुए नए सिद्धांत, नई पद्धतियाँ और नई दिशा पाकर स्फूर्त हो उठी। फलस्वरूप धार्मिक इमारतों, जैसे मस्जिदों, मकबरों, रौजों और दरगाहों के अतिरिक्त अन्य अनेक प्रकार की धर्मनिरपेक्ष इमारतें भी, जैसे महल, मंडप, नगरद्वार, कूप, उद्यान और बड़े बड़े किले, यहाँ तक कि सारा शहर घेरनेवाले परकोटे तक तैयार हुए। देश में उत्तर से दक्षिण तक जैसे जैसे मुस्लिम प्रभत्व बढ़ता गा, वास्तुकला का युग भी बदलता गया।
भारत में फारसी epigraphs आमतौर पर मस्जिदों और मकबरों या किलों, महलों, प्रवेश द्वार, टैंकों, कुओं, उद्यान, पुलों, sarais और पसंद की तरह धर्मनिरपेक्ष इमारतें जैसे इमारतों पर पाए जाते हैं। हथियार, जवानों, Signets, फूलदान, बर्तन जैसे कुछ जंगम वस्तुओं आदि भी शिलालेख भालू . भारतीय इस्लामी शिलालेख हरियाणा में पाया पहले तिथियाँ असर के बारे में एक या दो दर्जन के अपवाद के साथ 12 वीं सदी ई. (मोहम्मद गोरी दिल्ली पर विजय प्राप्त की और वहां अपनी सल्तनत स्थापित जब सटीक एएच 587 = 1192 होने के लिए), के अंतिम दशक से तारीख, गुजरात और केरल. फारसी, अरबी और भारत की हाल ही में उर्दू शिलालेख में प्रतिनिधित्व प्रमुख राजवंशों Mamluks (या लोकप्रिय कहा जाता दास) हैं, Khaljis, Tughluqs, Sayyids, Lodis, मुगलों (khorasanid) और केंद्र में Surs और क्षेत्रीय राजवंशों के बीच सुल्तानों की बंगाल, गुजरात, कश्मीर, मालवा और मैसूर, गुलबर्ग, जौनपुर की Sharqis, बीजापुर के आदिल Shahis, Ahmadangar के निजाम Shahis, गोलकुंडा के कुतुब Shahis, खानदेश के Faruqis, हैदराबाद आसफ Jahis की Bahmanis, अर्काट, अवध और मुर्शिदाबाद के Nawwabs, नागपुर, बड़ौदा की Gaikwads, इंदौर Holkars, तंजौर के मराठा, ग्वालियर Sindhiyas और Rohillas की Bhonslas . शक्तिशाली मुगलों (khorasanid) आया था, वे मुख्य रूप से सभी शैक्षणिक और प्रशासनिक गतिविधियों के लिए फारसी में इस्तेमाल किया, epigraphs, सिक्के, फरमान, पत्र आदि बाद में मुगलों, केंद्र में भी, उनके प्रमुखों के तहत, फारसी जारी रखा जो कई क्षेत्रीय रियासतों की स्वायत्तता देखा राजभाषा के रूप में . उर्दू भाषा दृश्य पर दिखाई दिया जब बाद में, अपने अस्तित्व भी शिलालेख में दर्ज की गई थी।.[3]
इसके अलावा अरबी, फारसी और उर्दू शिलालेखों से, द्विभाषी और त्रिभाषी शिलालेख कन्नड़, तेलुगू, उड़िया, तमिल, गुजराती और मराठी जैसी प्रांतीय भाषाओं के साथ गुजराती, बंगाली, तमिल और मलयालम और फारसी की तरह क्षेत्रीय भाषाओं के साथ अरबी, यानी वहां हैं। अरबी और फारसी अन्य भाषाओं अर्थात् संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, पुर्तगाली आदि त्रिभाषी शिलालेख अरबी एवं फारसी उर्दू के साथ या किसी भी अन्य भाषा के संयोजन के साथ कर रहे हैं के साथ इस्तेमाल किया गया है। हम भी चार भाषाओं में प्रयुक्त epigraphs मिलता है।
इस का सबसे अच्छा उदाहरण कला नई दिल्ली, सिकन्दरा में अकबर का मकबरा, Pandua पर आदिना मस्जिद (बंगाल), अहमदाबाद में जौनपुर, जामी मस्जिद पर Atala मस्जिद (गुजरात), गोलकुंडा और हैदराबाद, बीजापुर, ताज में इब्राहिम Rauda में कुतुब मीनार हैं लागू पुरानी दिल्ली (शाहजहानाबाद) में आगरा और जामी मस्जिद पर महल . अरबी और फारसी epigraphs इस्लामी सुलेख अर्थात् ., Kufi, naskh, Thulth, Riqa और Nastaliq के विभिन्न लोकप्रिय स्क्रिप्ट या शैलियों में निष्पादित पाए जाते हैं।
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भारतीय पत्थरों पर फारसी शिलालेख प्रवेशद्वार |
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