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शुभ विचार से वीर्य रक्षण करते हुए सात्विक जीवनचर्या अपनाना विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
ब्रह्मचर्य योग के आधारभूत स्तंभों में से एक है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है सात्विक जीवन बिताना, शुभ विचारों से अपने वीर्य का रक्षण करना, भगवान का ध्यान करना और विद्या ग्रहण करना। यह वैदिक धर्म वर्णाश्रम का पहला आश्रम भी है, जिसके अनुसार यह ०-२५ वर्ष तक की आयु का होता है और जिस आश्रम का पालन करते हुए विद्यार्थियों को भावी जीवन के लिये शिक्षा ग्रहण करनी होती है। ब्रह्मचर्य से असाधारण ज्ञान पाया जा सकता है वैदिक काल और वर्तमान समय के सभी ऋषियों ने इसका अनुसरण करने को कहा है क्यों महत्वपूर्ण है ब्रह्मचर्य- हमारी जिंदगी मे जितना जरुरी वायु ग्रहण करना है उतना ही जरुरी ब्रह्मचर्य है। वेद का उपदेश है - ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर कन्या युवा पति को प्राप्त करे ।[1][2] आज से पहले हजारों वर्ष से हमारे ऋषि मुनि ब्रह्मचर्य का तप करते आए हैं क्योंकि इसका पालन करने से हम इस संसार के सर्वसुखो की प्राप्ति कर सकते हैं।ब्रह्मचर्य पालन करने का सबसे आसान साधन सिद्धासन करना है।इसे करने के लिए बाए पैर की ऐड़ी को गुड्डा द्वार और लिंग के मध्य स्थित करना होता है तथा से पैर की ऐड़ी को ठीक लिंग के ऊपर रखना होता है।
ये शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है:- ब्रह्म + चर्य , अर्थात ज्ञान प्राप्ति के लिए जीवन बिताना।
अष्ट मैथुनो का परित्याग करना ही ब्रह्मचर्य की व्याख्या है।[3][4]
स्मरणं कीर्तनं केलि प्रेक्षणं गुह्य भाषणं । संकल्पो अध्यवसायश्च क्रिया निवृतिरेवच ।।[5][6] अर्थात् शारीरिक और मानसिक क्षीणता करने वाले ये अष्ट मैथुन हैं - (१) स्त्री का ध्यान करना , स्त्री के बारे में सोचते रहना कल्पना करते रहना । (२) कोई श्रृंगारिक , कामुक कथा का पढ़ना , सुनना । (३) अंगों का स्पर्श , पुरुषों के द्वारा स्त्री के अंगों का स्पर्श करना । (४) श्रृंगारिक क्रीडाएँ करना । (५) आलिंगन करना । (६) दर्शन अर्थात् नग्न चित्र या चलचित्र का दर्शन करना । (७) एकांतवास अर्थात अकेले में पड़े रहना । (८) समागम करना अर्थात यौन सम्बन्ध स्थापित करना । जो इन सभी मैथुनों को त्याग देता है वही ब्रह्मचारी है ।[7][8][9][10]
योग में ब्रह्मचर्य का अर्थ अधिकतर यौन संयम समझा जाता है। यौन-संयम का अर्थ अलग-अलग संदर्भों में अलग-अलग समझा जाता है, जैसे विवाहितों का एक-दूसरे के प्रति निष्ठावान रहना, या आध्यात्मिक आकांक्षी के लिये पूर्ण ब्रह्मचर्य।
योगसुत्र (२/३८) के अनुसार - ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायां वीर्यलाभः । अर्थात् ब्रह्मचर्य के धारण करने से वीर्य यानि बल की प्राप्ति होती है।[11] अष्टांग योग का पहला अंग यम है। इस में अहिंसा , सत्य , अस्तेय , ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यह पाँच यम बताए गए हैं ।[12][13]
योगेश्वर श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन से कहते हैं - यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः । ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥ ११ ॥ अर्थात् वेद के जानने वाले विद्वान जिसे अक्षर कहते हैं ; रागरहित यत्नशील जिसमें प्रवेश करते हैं ; जिसकी इच्छा से ( साधक गण ) ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं उस पद ( लक्ष्य ) को मैं तुम्हें संक्षेप में कहूँगा।[14][15][16] भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्मचर्य को शारीरिक तप बताया है - ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ।। (श्रीमद्भागवतगीता १७/१४)[17]
ब्रह्मचर्य, जैन धर्म में पवित्र रहने का गुण है, यह जैन मुनि और श्रावक के पांच मुख्य व्रतों में से एक है (अन्य है सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह )| जैन मुनि और आर्यिका दीक्षा लेने के लिए मन, वचन और काय से ब्रह्मचर्य अनिवार्य है। जैन श्रावक के लिए ब्रह्मचर्य का अर्थ है शुद्धता। यह यौन गतिविधियों में भोग को नियंत्रित करने के लिए इंद्रियों पर नियंत्रण के अभ्यास के लिए हैं। जो अविवाहित हैं, उन जैन श्रावको के लिए, विवाह से पहले यौनाचार से दूर रहना अनिवार्य है।
आयुर्वेद में कहा गया है कि ब्रह्मचर्य शरीर के तीन स्तम्भों में से एक प्रमुख स्तम्भ (आधार) है।
अथर्ववेद का ग्यारहवें काण्ड का पाँचवाँ सूक्त ब्रह्मचर्य्य के लिये ही समर्पित है। इसमें तरह-तरह से ब्रह्मचर्य की महिमा वर्णित है।
ब्रह्मचार्येति समिधा समिद्धः कार्ष्णं वसानो दीक्षितो दीर्घश्मश्रुः।
स सद्य एति पूर्वस्मादुत्तरं समुद्रं लोकान्त्संगृभ्य मुहुराचरिक्रत्॥ -- (अथर्ववेद ११.५.१७)
अर्थ-- जो ब्रह्मचारी होता है, वही ज्ञान से प्रकाशित तप और बड़े बड़े केश श्मश्रुओं से युक्त दीक्षा को प्राप्त होके विद्या को प्राप्त होता है। तथा जो कि शीघ्र ही विद्या को ग्रहण करके पूर्व समुद्र जो ब्रह्मचर्याश्रम का अनुष्ठान है, उसके पार उतर के उत्तर समुद्रस्वरूप गृहाश्रम को प्राप्त होता है और अच्छी प्रकार विद्या का संग्रह करके विचारपूर्वक अपने उपदेश का सौभाग्य बढ़ाता है।
ब्रह्मचारी जनयन् ब्रह्मापो लोकं प्रजापतिं परमेष्ठिनं विराजम्।
गर्भो भूत्वामृतस्य योनाविन्द्रो ह भूत्वाऽसुरांस्ततर्ह॥ -- (अथर्ववेद ११.५.१८)
अर्थ-- वह ब्रह्मचारी वेदविद्या को यथार्थ जान के प्राणविद्या, लोकविद्या तथा प्रजापति परमेश्वर जो कि सब से बड़ा और सब का प्रकाशक है, उस का जानना, इन विद्याओं में गर्भरूप और इन्द्र अर्थात् ऐश्वर्ययुक्त हो के असुर अर्थात् मूर्खों की अविद्या का छेदन कर देता है।
ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं वि रक्षति।
आचार्यो ब्रह्मचर्य्येण ब्रह्मचारिणमिच्छते॥ -- (अथर्ववेद ११.५.१९)
अर्थ-- पूर्ण ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़ के और सत्यधर्म के अनुष्ठान से राजा राज्य करने को और आचार्य विद्या पढ़ाने को समर्थ होता है। आचार्य उस को कहते हैं कि जो असत्याचार को छुड़ा के सत्याचार का और अनर्थों को छुड़ा के अर्थों का ग्रहण कराके ज्ञान को बढ़ा देता है॥6॥
पंचशील के महत्व को समझाते हुए तथागत बुद्ध ने भिक्खुओं को धम्मोपदेश दिया था। तृतीय पंचशील का नियम है - व्यभिचार से विरत रहना : मानव को मिथ्या आचरणों के कारण अपमानित होना पड़ता है , इसलिए गलत आचरण करने से बचना चाहिए । व्याभिचारी व्यक्ति का जीवन पतित होता है , समाज में ऐसे व्यक्ति को सम्मान नहीं मिलता । जो मानव कामवासना से विरत रहता है , समाज उसका सम्मान करता है । तथागत बुद्ध ने भिक्खुओं को धम्मोपदेश देते कहा है कि मनुष्य को शारीरिक दुष्चरित्र को त्याग करके शरीर से सदाचार का आचरण करना चाहिए । शरीर को सदैव संयत रखना चाहिए । पर - स्त्री का सेवन करने वाला प्रमत्त मनुष्य का जीवन पापमय व दुखदायी होता है यथा - चत्तारि ठानानि नरो पमत्तो , आपज्जति परदारूपसेवी । अपुज्जलाभं न निकामसेय्यं निन्दं ततियं निरयं चतुत्थ ।। धम्मपद - 309
अर्थात्- प्रमादी एवँ परस्त्रीगामी मनुष्य को चार - गतियां प्राप्त होती है- पाप का भागीदार , सुख में अनिद्रा , निन्दा तथा दुखदायी जीवन |
यो च वस्ससतं जीवे , दुस्सीलो असमाहितो । एकाहं जीवितं सेय्यो , सीलवन्तस्स झायिनो । धम्मपद - 110
अर्थात्- दुराचारी और असंयत रहकर सौ वर्ष जीवित रहना निरर्थक है , सदाचारी और संयत शीलवान का एक दिन का जीवित रहना ही श्रेष्ठ है ।[23]
भगवान बुद्ध कहते हैं - जो लोग ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करते और जवानी में धन नहीं जुटाते , वे उसी तरह नष्ट हो जाते हैं , जिस तरह मछलियों से रहित तालाब में बूढ़े क्रौंच पक्षी ।[24]
शिवसंहिता में लिखा है - मरणं बिन्दु पातेन जीवनं बिन्दु - धारणात् अर्थात् बिंदु या वीर्य धारण करना ही जीवन है एवं बिन्दु का पतन हो जाना ही मृत्यु है ।[25][26][27][28] ब्रह्मचर्य से कितने लाभ होते हैं यह बताते हुए डॉ.मोन्टेगाजा कहते हैं - ‘‘ सभी मनुष्य , विशेषकर नवयुवक ब्रह्मचर्य के लाभों का तत्काल अनुभव कर सकते हैं । स्मृति की स्थिरता और धारण एवं ग्रहण शक्ति बढ़ जाती है । बुद्धिशक्ति तीव्र हो जाती है , इच्छाशक्ति बलवती हो जाती है । सच्चारित्र्य से सभी अंगों में एक ऐसी शक्ति आ जाती है कि विलासी लोग जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते । ब्रह्मचर्य से हमें परिस्थितियाँ एक विशेष आनंददायक रंग में रँगी हुई प्रतीत होती हैं । ब्रह्मचर्य अपने तेज - ओज से संसार के प्रत्येक पदार्थ को आलोकित कर देता है और हमें कभी न समाप्त होनेवाले विशुद्ध एवं निर्मल आनंद की अवस्था में ले जाता है , ऐसा आनंद जो कभी नहीं घटता । "[29] अगर आप मन, वाणी व बुद्धि को शुध्द रखना चाहते है तो आप को ब्रह्मचर्य पालन करना बहुत जरुरी है आयुर्वेद का भी यही कहना है कि अगर आप ब्रह्मचर्य का पालन पूर्णतया 3 महीनो तक करते है तो आप को मनोवल, देहवल और वचनवल मे परिवर्तन महसूस होगा , जीवन के ऊँचे से ऊँचे लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचर्य का जीवन मे होना बहुत जरुरी है।
ब्रह्मचर्य मनुष्य का मन उनके नियंत्रण में रहता है। |
ब्रह्मचर्य का पालन करने से देह निरोगी रहती है। |
ब्रह्मचर्य का पालन करने से मनोबल बढ़ता है। |
ब्रह्मचर्य का पालन करने से रोग प्रतिरोधक शक्ति बढती है। |
ब्रह्मचर्य मनुष्य की एकाग्रता और ग्रहण करने की क्षमता बढाता है। |
ब्रह्मचर्य पालन करने वाला व्यक्ति किसी भी कार्य को पूरा कर सकता है। |
ब्रह्मचारी मनुष्य हर परिस्थिति में भी स्थिर रहकर उसका सामना कर सकता है। |
ब्रम्हचर्य के पालन से शारीरिक क्षमता , मानसिक बल , बौद्धिक क्षमता और दृढ़ता बढ़ती है। |
ब्रम्हचर्य का पालन करने से चित्त एकदम शुद्ध हो जाता है। |
ब्रह्मचर्य को नष्ट करने से आधि भौतिक , आधि दैविक और आध्यात्मिक तीनों प्रकार की हानियाँ होती है ।[30]
(१) आधि भौतिक हानि यह है कि शरीर कमजोर हो जाता है , नेत्रों की दृष्टि निर्बल पड़ जाती है । पाचन क्रिया मंद होती है , फेफड़े निर्बल बनते हैं , सहन शक्ति घटती है । तेज नष्ट होता है और दुर्बलता के कारण देह में नाना प्रकार के रोगों का अड्डा स्थापित हो जाता है ।[30]
(२) आधि दैविक हानियाँ यह हैं कि - मस्तिष्क पोला हो जाता है । बुद्धि मंद पड़ जाती है , स्मरण शक्ति का ह्मस होता है । सूक्ष्म विचारों को ग्रहण करने की शक्ति घट जाती है , विद्या सीखी नहीं जाती । अन्तः करण ऐसा मलीन हो जाता है कि , स्वार्थ , लोभ , कपट , पाप आदि के आक्रमणों का विरोध करने की उसमें क्षमता नहीं रहती , इच्छा शक्ति , ज्ञान मनुष्य साहस हीन , इन्द्रियों का गुलाम भयभीत , चिन्तित और हीन मनोवृत्ति का बन जाता है ।[30]
(३) ब्रह्मचर्य नष्ट करने से जो आध्यात्मिक हानि होती है वह तो बहुत ही दुखदायी है । आत्मा के स्वरूप को पहचानना , ईश्वर में परायण होना , धर्म कर्तव्यों पर बढ़ने के लिए कदम उठाना विषय वासना में रत मनुष्य के लिए क्या कभी संभव है ? ऐसे व्यक्तियों के लिए योग साधना एक कल्पना का विषय ही हो सकता है । कई असंयमी मनुष्य योग क्रियाओं में उलझे तो उन्हें तपैदिक , पागलपन या अकाल मृत्यु का सामना करना पड़ा ।[30]
ब्रह्मचर्य को नष्ट करना एक ऐसा अपराध है जिसका फल न केवल अपने को वरन् समस्त सृष्टि को भोगना पड़ता है । लम्पट व्यक्तियों के निर्बल वीर्य से जो संतान उत्पन्न होती है वह भी अपने पिता की कमजोरी विरासत में साथ लाती है । ऐसी सन्तान संसार के लिए भार रूप ही सिद्ध होती है वह अपने और दूसरों के कष्ट में ही वृद्धि करती रहती है । जीवों के श्रेणी उत्पादन का क्रम यही है कि उन्नत आत्माएं तेजस्वी पिताओं के वीर्य में प्रवृष्ट होकर जन्म धारण करती हैं और पाप योनियों में जाने वाली पतित आत्मायें निर्बल व्यक्तियों के वीर्य का आश्रय ग्रहण करके जन्म लेती हैं । जिस देश के मनुष्य लम्पट और दुर्बल होंगे वहाँ कुल को कलंक लगाने वाली , देश और जाति को लज्जित करने वाली संतान ही उत्पन्न होगी ।[30]
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