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बीजीय वक्र
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किसी एकबिमीय बीजीय आकृति (algebraic variety) को बीजीय वक्र (algebraic curve) कहते हैं। इन वक्रों से सम्बन्धित सिद्धान्त अधिकांशत: उन्नीसवीं शती में ही सुविकसित हो गये थे। वृत्त एवं अन्य शांकवोंसे आरम्भ करके अनेक तरह के विशेष स्थितियों वाले वक्रों पर काफी गहराई से विचार किया गया था।
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दूसरे शब्दों में, यदि किस वक्र के कार्तीय (Cartesian), या प्रक्षेपीय निर्देशांकों का केवल एक स्वतंत्र चर, या प्राचल (parameter), के बीजीय फलनों के रूप में लिखा जा सके, तो वक्र को बीजीय वक्र कहते हैं। इस वक्र के समीकरण में केवल बीजीय फलन ही आते हैं। (यदि समीकरण में अबीजीय (transcendental) फलन आते हैं, तो वक्र अबीजीय वक्र कहलाता है।) विभिन्न शांकव बीजीय वक्रों के और चक्रज (cycloid), कैटिनरी (catenary) आदि, अबीजीय वक्रों के उदाहरण हैं।
वक्र प्रथम, द्वितीय, तृतीय, कोटि के कहे जाते हैं, यदि उनके समीकरणों में x, या y के प्रथम, द्वितीय, तृतीय, घात आते हों। वृत्त, दीर्घवृत्त (ellipse), परवलय (parabola), अतिपरवलय (hyperbola) द्वितीय कोटि के वक्रों के उदाहरण हैं। वक्र किसी बिंदु पर असंतत भी हो सकता है। संतत वक्रों पर विचार करते समय उन्हें बिंदुओं की एक एकल अनंती के रूप में भी लिया जा सकता है।
कोई बीजीय वक्र कहीं पर टूट नहीं सकता, या असंतत नहीं हो सकता। उसकी स्पर्श रेखाओं (tangents) की दिशाओं में अचानक ही परिवर्तन नहीं हो सकता। उसका कोई भी भाग एक सीधी रेखा नहीं हो सकता। इस प्रकार किसी बीजीय वक्र का यह एक सामान्य लक्षण है कि उसको बनानेवाले बिंदु की विभिन्न स्थितियाँ क्रमिक और संतत होती हैं और इन बिंदुओं पर खींची गई स्पर्श रेखाओं की दिशा में परिवर्तन भी क्रमिक और संतत होता है।