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पक्षियों का प्रव्रजन या पक्षियों का प्रवास (Migration) पक्षीविज्ञान का बहुत महत्वपूर्ण अंग है। उनका यह प्रव्रजन, ऋतुपरिवर्तन के समान नियमित और क्रमिक होता है और युग-युग से यह मनुष्यों में उत्सुकता और जिज्ञासा उत्पन्न करता रहा है, यहाँ तक कि रेड इंडियनों ने अपने कलेंडर के महीनों के नाम प्रव्रजन करनेवाली चिड़ियों के आगमन पर ही रखा है।
चिड़ियों के प्रव्रजन के विषय के मान्य पंडित लैंड्सबरो टॉमसन (Landsborough Tomson) ने प्रव्रजन की व्याख्या इस प्रकार की है:
बहुत पूर्व ऐसा विश्वास किया जाता था कि जिस प्रकार कुछ स्तनपायी और उरग शरद ऋतु में ठंढ से बचने के लिए शीतनिष्क्रियता (hibernation) में चले जाते हैं, उसी भाँति अबाबील, कलविंकक (nightingale) और कोयल भी शीतशयन करती हैं। ऐसी धारणा अरस्तू के समय से ही चली आ रही थी।
उष्णरक्तता, पंख और उड़ान की अद्भुत शक्ति के कारण चिड़ियों में स्थानपरिवर्तन करने की क्षमता का विकास बहुत अधिक हुआ है। यद्यपि अन्य प्राणियों की अपेक्षा पक्षी अत्यधिक शीत या अत्यधिक उष्णता दोनों के प्रति सहनशील होते हैं, तथापि शरद् ऋतु में जब भोजन का अभाव हो जाता है तब उन्हें बाध्य होकर प्रव्रजन करना पड़ता है, अन्यथा वे मर जाएँ। प्रव्रजन के द्वारा चिड़ियों को दो प्रतिकूल ऋतुओं में भी दो अनुकूल क्षेत्र प्राप्त हो जाते हैं। एक क्षेत्र में वे निवास करती हैं और प्रजनन करती है और दूसरे क्षेत्र में भोजन तथा विश्राम के हेतु जाती हैं। यह प्रकृति का विधान है कि चिड़िया प्रव्रजन क्षेत्र के ठंढे भाग में ही अंडे देती हैं। अतएव उत्तरी गोलार्ध में उनका मैथुनक्षेत्र आर्कटिक उत्तरी ध्रुव अथवा समशीतोष्ण क्षेत्र होता है, किंतु दक्षिणी गोलार्ध में इसके ठीक विपरीत, शीतकालीन आवास भूमध्य रेखा के समीप होता है।
प्राय: प्रव्रजन उत्तर से दक्षिण की ओर होता है, यद्यपि कुछ प्रव्रजन पूर्व से पश्चिम की ओर भी होता है। प्रव्रजन कुछ किलोमीटर से लेकर हजारों किलोमीटर तक का होता है, जैसे कुछ चिड़ियाँ हिमालय की अधिक ऊँचाई से उतरकर उत्तरी भारत के समतल भागों में चली आती हैं और कुछ हजारों किलोमीटर सुदूर दक्षिण में चली जाती हैं। सबसे अधिक दूर का प्रव्रजन उत्तर ध्रुवीय कुररी (Arctic tern) करती है। यह प्रव्रजन प्रत्येक वर्ष दो बार होता है। यह आर्कटिक के शीतकाल में दक्षिण की ओर देशागमन करती है, संसार को पार कर दक्षिण ध्रुव अनटार्कटिक में ग्रीष्म ऋतु बिताकर पुन: वापस होती है। इस प्रकार जाने और आने की एक ओर की यात्रा में लगभग 17,742 किलोमीटर की दूरी तय करती है।
चिड़ियों में प्रव्रजन का आरंभ होने के संबंध में अनेक सिद्धांत प्रातिपादित हैं। प्रव्रजन से चिड़ियों को निम्नलिखित लाभ होते हैं :
चिड़ियों का प्रव्रजन पक्षी की अंत: और बाह्य दोनों ही उत्तेजनाओं पर निर्भर करता है। प्रयोगों से प्रकट होता है कि बाह्य उत्तेजनाओं में से दिन की अवधि में परिवर्तन प्रमुख है ; अंत : उत्तेजना प्रजननांगों से उत्पन्न हारमोन द्वारा प्राप्त होती है।
प्रव्रजन का लक्ष्यस्थान कैसे निर्धारित होता है और चिड़ियाँ इस गंतव्य स्थान का रास्ता कैसे मालूम करती हैं, इनका अनेक प्रयोगों और प्रेक्षणों से पर भी अभी तक संतोषजनक उत्तर नहीं मिल सका है।
शरत्कालीन आवासक्षेत्र में शरद् ऋतु बिताने के पश्चात् वसंत ऋतु में प्रजनन क्षेत्र अथवा ग्रीष्म-आवास-क्षेत्र में वयस्क नरों का प्रथम पुनरागमन होता है। इसके बाद वयस्क मादाएँ और अंत में अवयस्क चिड़ियाँ पहुँचती हैं। किंतु शरद् में यह क्रम उलट जाता है। प्रथम अवयस्क पक्षी और मादाएँ दक्षिणी यात्रा के लिए प्रस्थान करती हैं और बाद में वयस्क नर। दक्षिण की यात्रा बड़े इतमीनान से औैर स्थान स्थान पर रुक रुककर होती है। छोटे बच्चे अथवा किशोर, जिनकी उम्र कुछ ही महीनों की होती है, काफिले (vanguard) का पथप्रदर्शन करते हैं और वयस्क बाद में उनका अनुसरण करते हैं। यह कैसे होता है? इसकी अनेक व्याख्याएँ की गई हैं। उनमें से अधिक स्वीकृत मत यह है कि अनेक पीढ़ियों के प्रति वर्ष प्रव्रजन के कारण पक्षियों में अन्य जन्मजात गुणों, जैसे ठीक समय पर, बिना किसी पूर्व अनुभव के, जातिपरंपरा के अनुसार एक विशेष प्रकार का नीड़ निर्माण करना है, उसी भाँति बिना किसी पूर्व अनुभव के प्रव्रजन भी एक जन्मजात गुण हो गया है।
पक्षी सुदूर प्रदेशों के रास्ते का किस प्रकार पता लगाते हैं? इसके विषय में भी अनेक अनुमान हैं जिनमें से कुछ पृथ्वी के चुंबकत्व के प्रति सूक्ष्म संवेदनशीलता, स्थलचिह्रों की दृष्टि द्वारा पहचान इत्यादि हैं। किंतु पूर्वानुभवविहिन कल की चिड़ियों में दूर गंतव्य स्थान और उसके पथ को निर्धारण अब भी रहस्यमय बना हुआ है।
जिस प्रकार मनुष्य सुदूर की यात्रा कर फिर अपने घर को लौट आता है, ठीक उसी भाँति पक्षी हजारों किलोमीटर की यात्रा कर और शरद् ऋतु किसी सुदूर स्थान में व्यतीत कर न केवल अपने ग्रीष्म-निवास-क्षेत्र में ही पहुँच जाते हैं, बल्कि अपने त्यक्त घोंसले में भी पहुँच जाते हैं। चिड़ियों को छल्ला पहनाने की विधि (banding) से यह स्थापित हो गया है कि यूरोप में अबाबील प्राय: न केवल उसी बस्ती में पहुँच जाती है, बल्कि उसी घर में जिसको छोड़कर वह सुदूर की यात्रा पर गई थी, पहुँच जाती है। अबाबीलें इस यात्रा में 9,677 किलोमीटर की दूरी तय करती हैं। यहीं बात अन्य वास्तविक प्रव्रजन करनेवाली चिड़ियों में भी पाई जाती है।
अनेक वर्षों के निरीक्षण के फलस्वरूप प्रकाशित कुछ ज्ञात तथ्यों से पता चलता है कि चिड़ियाँ न केवल अपने निवासक्षेत्र और पुराने नीड़ में ही पहुँच जाती है, बल्कि ठीक उसी दिन लौटकर आ जाती हैं जिस दिन वे पिछले वर्ष में लौटकर आई थीं। अतएव जब इतनी लंबी यात्रा करती हों तो एक निश्चित समय पर लौटकर पक्षियों का अपने घोंसले में उपस्थित हो जाना और भी आश्चर्यजनक है।
भारत के विभिन्न क्षेत्रों में शरद् में आगमन करनेवाले प्रत्येक शरद्यात्री पक्षी की स्थिति भिन्न होती है। उदाहरण के लिए किसी भी स्थान को ले लें, जैसे मध्य भारत का भोपाल क्षेत्र। पक्षियों की अधिकांश जातियाँ, जो उत्तर या उत्तर पश्चिम सीमांत प्रदेशों से शरद् ऋतु में, सुदूर दक्षिण की या लंका की, उस देश से होकर यात्रा करती हैं, वे भोपाल होकर जाती हैं। इन यात्रियों में से कुछ तो पीछे रह जाते हैं और वे शरद् ऋतु भर भोपाल में देखें जा सकते हैं। इनका हम वास्तविक शरद्यात्री के अंतर्गत वर्गीकरण कर सकते हैं, किंतु कुछ केवल शरद् ऋतु के आगमन पर थोड़े समय के लिए ही रहते हैं और उसके बाद दिखाई नहीं पड़ते क्योंकि वे वहाँ से और आगे यात्रा के लिए प्रस्थान कर चुके होते हैं। वे पुन: ग्रीष्म ऋतु के प्रारंभ में, जब वे उत्तर की तरफ लौटते होते हैं, दिखाई पड़ते हैं। ये शरद् और वसंत में प्रव्रजन करनेवाले यात्री होते हैं। कुछ तो शरद् ऋतु में, जब दक्षिण की यात्रा पर होते हैं, तब तो दिखाई पड़ते हैं, किंतु जब वे वसंत में पुन: अपने निवास की ओर लौटते होते हैं, तब दिखाई नहीं पड़ते, क्योंकि वे किसी दूसरे मार्ग से होकर लौट जाते हैं। अतएव वे पक्षी भोपाल में शरद् ऋतु में दिखाई पड़ते हैं और वसंत में किसी दूसरे भाग में दिखाई पड़ते हैं।
कुछ चिड़ियाँ देश के अंदर ही एक भाग से दूसरे भाग में स्थानपरिवर्तन करती हैं, जैसे शाह बुलबुल या दुधणजु (paradise flycatcher), सुनहरा पोलक (golden oriole) और नौरंग (pitta)। यह स्थानीय प्रव्रजन देश के उत्तरी भाग या पहाड़ों की तलहटी में अधिक होता है, जहाँ भूमध्यरेखा की अपेक्षा ऋतुपरिवर्तन अत्यधिक प्रभावकारी होता है। वास्तविक प्रव्रजन करनेवाली चिड़ियों की भाँति इनमें भी प्रव्रजन क्रमिक और नियमित होता है। देश के किसी भाग में कोई जाति ग्रीष्म ऋतु में, कोई जाति बरसात में और कोई जाति शरद् में आगमन करती है। इसके अतिरिक्त एक अन्य प्रकार का भी स्थानपरिवर्तन बराबर होता रहता है, जो आहार पर प्रभाव डालनेवाली स्थानीय परिस्थितियों, जैसे गर्मी, सूखा या बाढ़ इत्यादि, अथवा किसी विशेष प्रकार के फूल लगने और फल पकने की ऋतु, के कारण होता है। उस समय चिड़ियाँ एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में चली जाती हैं।
कभी-कभी असाधारण परिस्थितियों से बाध्य होकर अपने उपयुक्त निवासस्थान की छोड़कर भोजन की तलाश में चिड़ियाँ किसी अन्य क्षेत्रों में भी भ्रमण करती हुई पाई जाती हैं। अतएव किसी क्षेत्र में किसी भी समय में पक्षियों की जनसंख्या स्थायी नहीं रहती, क्योंकि सभी क्षेत्रों में पक्षियों का आगमन और निर्यमन सर्वदा होता रहता है।
हिमालय के ऊँचे पहाड़ों में रहनेवाली चिड़ियाँ जाड़े में नीचे उतर आती है और इस प्रकार तूफानी मौसम और हिमरेखा से नीचे चली आती है। वसंत के आगमन पर जब बरफ गलने लगती है और हिमरेखा ऊपर की ओर बढ़ जाती है, तब वे अंडे देने के लिए पहाड़ों के ऊपरी भाग में पुन: चढ़ जाती हैं। यह क्रम केवल ऊँचाई में रहनेवाले पक्षियों में ही नहीं वरन् नीचे रहनेवाली चिड़ियों में भी चलता रहता है।
चिड़ियों के प्रव्रजन का वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त करने के अतिरिक्त प्रकार के अवलोकनों के लिए भी ब्रिटेन तथा अमरीका में बहुसंख्यक चिड़ियों के पैर में ऐल्यूमिनियम की हल्की और अंकित अंगूठियां पहना दी जाती है। यह विधि अमरीका में पक्षिवलयन (birdringing) अथवा पक्षिपटबंधन (bird banding) कहलाती है। इसमें क्रमसंख्या के अतिरिक्त स्थान का पता भी अंकित रहता है। चिड़ियों को अँगूठी पहनाकर उनका पूर्ण विवरण एक पुस्तिका में लिख कर उन्हें छोड़ दिया जाता है। अब इन चिड़ियों के सुदूर स्थानों पहुँचने पर इन्हें मारकर अथवा फँसाकर इनकी अंगूठी उतार ली जाती है और ये जिस स्थान से उड़ी थीं, उस पते पर भेज दी जाती है। जब काफी संख्या में इस प्रकार की तालिका इकट्ठी हो जाती है तब इन तालिकाओं का विश्लेषण करके उसके आधार पर किसी विशेष जाति की चिड़िया के प्रव्रजन के मार्ग अथवा अन्य किसी समस्या का हल निर्धारित किया जाता है। अतएव पश्चिमी जर्मनी और पूर्वी प्रशा में श्वेत बक के बलयन के फलस्वरूप यह निश्चित और नि:संदिग्ध रूप से स्थापित हो चुका है कि पूर्वी एशिया की चिड़ियाँ दक्षिण-पूर्वी मार्ग से बालकन होती हुई अफ्रीका का भ्रमण करती है, जबकि पश्चिम जर्मनी के श्वेत बक दक्षिण पश्चिमी मार्ग से स्पेन होकर अफ्रीका जाते हैं। बीकानेर में इसी प्रकार की अँगूठीधारी चिड़ियों के प्राप्त होने से हमें पता चला है कि कुछ श्वेत बक जो हमारे देश में, शरद् ऋतु में, आते हैं, वे जर्मनी के होते हैं। भारत में इस प्रकार का पक्षिवलयन का कार्य बहुत थोड़ा हुआ है। किंतु जितना कुछ हुआ है उससे प्राप्त सूचनाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण और उपयोगी सिद्ध हुई हैं।
प्रव्रजन करनेवाली चिड़ियों की गति विभिन्न चिड़ियों में विभिन्न होती है और यह गति कई बातों, जैसे वायु की दिशा, मौसम इत्यादि पर निर्भर करती है। बतखों और हंसों में उड़ान की गति (cruising speed) 64 से 80 किलोमीटर प्रति घंटे पाई गई है और अनुकूल मौसम में यह गति 90 से 97 किलोमीटर या इससे अधिक पाई गई है। दिन रात निरंतर उड़कर यात्रा करनेवाली चिड़ियों में यह गति 9.5 से 17.7 किलोमीटर प्रति घंटा होती है। निम्नलिखित सारणी से यह अनुमान किया जा सकता है कि एक बार की उड़ान (hop) में कौन चिड़िया कितनी दूरी तय करती है :
पूर्वी सुनहरा टिट्टिभ (eastern golden plover या Caradrius dominicus fulvus) बिना कहीं रुके लगातार उड़कर 3226.00 किलोमीटर के खुले समुद्र को पार कर जाता है। यह टिट्टिभ शरद् ऋतु में, भारत में भ्रमण करने आते हैं। यह पश्चिमी अलास्का और उत्तर-पूर्व साइबिरिया में अंडे देता है और हवाई द्वीपों का नियमित रूप से भ्रमण करता है। चाहा (Copella hardwickii) जिसकी मादा केवल जापान में अंडे देती है, जाड़ा पूर्वी आस्ट्रेलिया और टैजमानिया में व्यतीत करता है, इस प्रकार अवश्य ही 4839.00 किलोमीटर की दूरी बिना कही रुके निरंतर उड़कर पार कर जाता है। कुछ और भी ऐसी चिड़ियाँ है, जो बिना दाना पानी के बहुत बड़ी दूरी पार जाती हैं। अधिक दूर की यात्रा करनेवाली भारतीय चिड़ियों में संभवत: में भंडु तीतर (wood cock, Scolopax rusticola) है जिसका अंडे देने का सबसे निकटवर्ती स्थान हिमालय में हैं। कुछ झंडु तीतर जाड़ा नीलगिरि अथवा दक्षिण की अन्य पहाड़ियों में बिताते हैं और उसके बीच अन्य कहीं नहीं मिलते। इससे इतना स्पष्ट है कि ये एक उड़ान में कम से कम 2419.5 किलोमीटर की दूरी अवश्य ही पार करते हैं।
पहले ऐसा विश्वास किया जाता था कि प्रव्रजन करनेवाली चिड़ियाँ बहुत ऊँचाई पर उड़ती हैं, क्योंकि इससे उनको, स्थान का निर्धारण करने, हवा के द्वारा उत्पन्न अवरोध कम होने, इत्यादि का लाभ होता है। किंतु अब यह पाया गया है कि यदि किसी ऊँची पर्वतमाला को पार करना नहीं हुआ तो वस्तुत: ये प्रव्रजन करनेवाली चिड़ियाँ 396.24 मीटर की ऊँचाई पर उड़ती हैं और बिरली ही चिड़िया 914.4 मीटर की ऊँचाई तक की जाती है। जब समुद्र पार करना होता है अथवा यहाँ किसी प्रकार के वृक्ष या पहाड़ का अवरोध नहीं होता, तब कुछ चिड़याँ स्वभावत: इससे भी कम ऊँचाई पर उड़ती हैं। हाँ, यदि आवश्यकता हुई तो चिड़ियाँ बहुत की अधिक ऊँचाई से भी उड़ सकती हैं। 3.048 मीटर से लेकर 8229.6000 मीटर तक की ऊँचाई पर उड़ने का उल्लेख पाया जाता है।
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