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नरेन्द्रमण्डल अथवा नरेशमण्डल(अन्य वर्तनीयां: "नरेन्द्र मंडल", "नरेंद्र मंडल" या "नरेश मंडल")(अंग्रेज़ी: Chamber of Princes; उच्चारण:"चेम्बर आॅफ़ प्रिन्सेज़") भारतवर्ष का एक पूर्व विधान मंडल था। यह ब्रिटिशकालीन भारत के विधान मंडल के रुप में स्वीकृत किया गया था जो की प्राचीनत्म नरेन्द्रपद पादशाही का ही स्वरुप था एक उच्च व शाही सदन था। इसकी स्थापना सन 1921
में ब्रिटेन के राजा, सम्राट जौर्ज पंचम के शाही फ़रमान द्वारा हुई थी। इस्की स्थापना करने का मूल उद्देश्य ब्रिटिशकालीन भारत की रियासतों को एक विधानमण्डल रूपी मंच प्रदान करना था ताकी ब्रिटिश-संरक्षित रियासतों के साशक ब्रिटिश सरकार से अपनी आशाओं और आकांशाओं को प्रस्तुत कर सकें। इस्की बैठक "संसद भवन" के तीसरे कक्ष में होती थी जिसे अब "सांसदीय पुस्तकालय" में परिवर्तित कर दिया गया है। इस सदन को 1947 में ब्रिटिश राज के समापन के पश्चात भारत की स्वतंत्रता व गणराज्य की स्थापना के बाद विस्थापित कर दिया गया। [1]
नरेंद्र मंडल को अंग्रेज़ी में "चेम्बर आॅफ़ प्रिन्सेज़"(अंग्रेज़ी: Chamber of Princes) कहा जाता था जिसे हिंदी में "नरेंद्रमण्डल/नरेशमण्डल" कहा जाता था। हिंदी में इसे "राजकुमारों का कक्ष" आथवा "शाही/राजकीय कक्ष" या "शाही सदन" के रूप में अनुवादित किया जा सकता है। अंग्रेज़ी में "चेम्बर" का अर्थ "कक्ष", "प्रकोष्ठ" अथवा "कमरा" होता है और "प्रिन्स्" का अर्थ होता है "राजकुमार" जिस्से किसी वस्तू के राजकीय होने का बोध होता है। "नरेंद्रमण्डल/नरेशमण्डल" शब्द दो संस्कृत शब्दों से बना है, "नरेंद्र/नरेश" अर्थात् 'शासक' और "मण्डल" अर्थात् 'समूह' या 'सभा'। अतः "नरेंद्रमण्डल" शब्द का अर्थ है "शासकों की सभा" या "राजाओं की सभा"।
नरेंद्र मंडल की स्थापना सन 1920 में ब्रिटेन के राजा सम्राट जौर्ज (पंचम) के शाही फ़रमान द्वारा 23 दिसम्बर 1919 को हुई थी जब 1919 के भारत सरकार अधीनियम को ग्रेट ब्रिटेन के संसद में पारित कर दिया गया और उसे ब्रिटेन के राजा द्वारा शाही स्वीकृती मिल गई थी। इस सदन के स्थापना के साथ ही ब्रिटिश सरकार की उस नीती का भी अंत हो गया जिस्के तहत वह ब्रिटिश-संरक्षित भारतीय रियाषतों को एक-दूसरे से व विश्व के अन्य देशों से भी आलग रखती थी। नरेंद्र मंडल की पहली बैठक 8 फ़रवरी 1921 को हुई थी। [2]
शुरुआती दिनों में इस सदन में कुल 120 सदस्य थे। इनमें से 108 सदस्यों को स्थाई सदस्यता हासिल थी। यह सौभाग्य कवल महतवपूर्ण व सार्थक साशनों को हासिल थी। अन्य बचे हुए 12 सीटें, आवर्ती आधार पर, आन्य 127 आस्थाई रियासतों का प्रतिनिधित्व करते थे। इस प्रतिनिधित्व प्रणाली में भारत की कुल 562 रियासतों में से 327 छोटी रियासतों का प्रतिनिधित्व के लिये कोई जगह नहीं थी। इन असार्थक रायासतों का नरेंश मंडल में में प्रतिनिधित्व नहीं किया जाता था। इसके अलावा कुछ बहुत महत्वपूर्ण रियासतों ने(जैसे की बडोदा, ग्वालियर और इंदौर रियासतें) इसकी सदस्यता लेने से इनकार कर दिया था। इस सदन की बैठकें " संसद भवन " के तीसरे कक्ष में होती थी जिसे अब "सांसदीय पुस्तकालय" में परिवर्तित कर दिया गया है। [3]
यह सभा साल में केवल एक बार, ब्रिटिश भारत के राजप्रतिनीधी(वाइसराॅय) की अध्यक्षता में, बुलाई जाती थी। इन बैठकों में रियासतों के साशक ब्रिटिश सरकार के समक्ष आपने प्रस्ताव रखते थे। इस्के गठन का मूल उद्देश्य ब्रिटिश-संरक्षित भारतीय रियासतों को एक ऐसा मंच प्रदान करना था जहां वे ब्रिटिश सरकार के समक्ष अपनी आशाओं और आकांशाओं को प्रस्तुत कर सकें। यह सभा एक स्थाइ समिति को नियुक्त करती थी और एक कुलाधिपति का चुनाव करती थी जिसका काम स्थाइ समिति की अध्यक्षता करना था। यह समिती अधिक बार एकत्र होती थी और इसका काम सभा में लिये गए विभिन्न प्रस्तावों को कार्यान्वित करना था।
कुलाधिपती, नरेंद्रमण्डल की स्थाइ समिति के अध्यक्ष को कहा जाता था। जिसे अंग्रेज़ी में "चांसलर" कहा जाता था। निम्न वषय-सुची नरेंद्रमण्डल की स्थाई समिति के कुलाधिपतियों की सुची है।
उपादी | नाम | कार्यकाल |
---|---|---|
बीकानेर के महाराज | महामहिं मेजर-जनरल महाराजाधिराज राजराजेश्वर नरेंद्र शिरोमणी महाराज सर गंगा सिंह बहादुर | 1921–1926 |
पटियाला के महाराज | अधिराज मेजर-जनरल महामहिं भुपिंदर सिंह महेंद्र बहादुर | 1926–1931 |
नवानगर के जामसाहब | कर्नल महामहिं श्री सर रणजीतसिंहजी विभाजी (द्वितीय) | 1931–1933 |
नवानगर के जामसाहब | कर्नल महाहिं महाराज जाम दिगविजयसिंहजी रणजीतसिंहजी जडेजा | 1933–1944 |
भोपाल के नवाब | उप वायू मार्शल महामहिं सिकन्दर सौलात, इफ़तख़ार उल्-मुल्क़, हाजी नवाब हफ़ीज़ सर मुहम्मद हमीदुल्लाह ख़ान बहादुर | 1944–1947 |
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