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जयपुर के कछवाहा राजपूतों कि कुलदेवी विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
शिला देवी मंदिर भारत के राजस्थान राज्य के जयपुर नगर में आमेर महल में स्थित एक मंदिर है। इसकी स्थापना यहां सवाई मानसिंह द्वितीय द्वारा की गयी थी।[1] स्थानीय लोगों से मिली सूचनानुसार शिला देवी जयपुर के कछवाहा राजपूत राजाओं की कुल देवी रही हैं।[2] इस मंदिर में लक्खी मेला लगता है जो काफ़ी प्रसिद्ध है। इस मेले में नवरात्र में यहां भक्तों की भारी भीड़ माता के दर्शनों के लिए आती है। शिला देवी की मूर्ति के पास में भगवान गणेश और मीणाओं की कुलदेवी हिंगला की मूर्तियाँ भी स्थापित हैं। कहते हैं कि यहां पहले मीणाओं का राज हुआ करता था। नवरात्रों में यहाँ दो मेले लगते हैं एवं देवी को प्रसन्न करने के लिए पशु बलि दी जाती है।[3] आमेर दुर्ग के महल में जलेब चौक है जिसके दक्षिणी भाग में शिला माता का ऐतिहासिक मंदिर स्थित है। ये शिला माता राजपरिवार की कुल देवी भी मानी जाती हैं। यह मंदिर जलेब चौक से दूसरे उच्च स्तर पर मौजूद है अतः यहां से कुछ सीढ़ियाँ चढ़ कर मंदिर तक पहुंचना होता है। ये शिला देवी मूलतः अम्बा माता का ही रूप हैं एवं कहा जाता है कि आमेर या आंबेर का नाम इन्हीं अम्बा माता के नाम पर ही अम्बेर पड़ा था जो कालान्तर में आम्बेर या आमेर हो गया। माता की प्रतिमा एक शिला पर उत्कीर्ण होने के कारण इसे शिला देवी कहा जाता है।
शिला माता मन्दिर | |
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धर्म संबंधी जानकारी | |
सम्बद्धता | हिन्दू धर्म |
देवता | काली माता (अम्बा माता) |
अवस्थिति जानकारी | |
अवस्थिति | आमेर दुर्ग, जयपुर, राजस्थान |
भौगोलिक निर्देशांक | 26.9871261°N 75.8504435°E |
वास्तु विवरण | |
शैली | राजस्थानी शैली |
निर्माता | सवाई मानसिंह प्रथम ने किया तथा पुनर्निर्माण मानसिंह 2nd ने किया |
स्थापित | १९०६ |
वर्तमान में मंदिर सम्पूर्ण रूप से संगमरमर के पत्थरों द्वारा बना हुआ है, जो महाराज सवाई मानसिंह द्वितीय ने १९०६ में करवाया था। मूल रूप में यह चूने का बना हुआ था। यहाँ प्रतिदिन भोग लगने के बाद ही मन्दिर के दरवाजे खुलते हैं तथा यहाँ विशेष रूप से गुजियाँ व नारियल का प्रसाद चढ़ाया जाता है। [3] इस मूर्ति के ऊपरी भाग में बाएं से दाएं तक अपने वाहनों पर आरूढ़ भगवान गणेश, ब्रह्मा, शिव, विष्णु एवं कार्तिकेय की सुन्दर छोटे आकार की मूर्तियां बनी हैं। शिलादेवी की दाहिनी भुजाओं में खड्ग, चक्र, त्रिशूल, तीर तथा बाईं भुजाओं में ढाल, अभयमुद्रा, मुण्ड और धनुष उत्कीर्ण हैं।[2]
पहले यहां माता की मूर्ति पूर्व की ओर मुख किये हुए थी। जयपुर शहर की स्थापना किए जाने पर इसके निर्माण में कार्यों में अनेक विघ्न उत्पन्न होने लगे। तब राजा जयसिंह ने कई बड़े पण्डितों से विचार विमर्श कर उनकी सलाह अनुसार मूर्ति को उत्तराभिमुख प्रतिष्ठित करवा दिया, जिससे जयपुर के निर्माण में कोई अन्य विघ्न उपस्थित न हो, क्योंकि मूर्ति की दृष्टि तिरछी पढ़ रही थी। तब इस मूर्ति को वर्तमान गर्भगृह में प्रतिष्ठित करवाया गया है, जो उत्तराभिमुखी है। यह मूर्ति काले पत्थर की बनी है और एक शिलाखण्ड पर बनी हुई है। शिला देवी की यह मूर्ति महिषासुर मर्दिनी के रूप में बनी हुई है। सदैव वस्त्रों और लाल गुलाब के फूलों से ढंकी मूर्ति का केवल मुहँ व हाथ ही दिखाई देते है। मूर्ति में देवी महिषासुर को एक पैर से दबाकर दाहिनें हाथ के त्रिशूल से मार रही है। इसलिए देवी की गर्दन दाहिनी ओर झुकी हुई है। यह मूर्ति चमत्कारी मानी जाती है। शिला देवी की बायीं ओर कछवाहा राजाओं की कुलदेवी अष्टधातु की हिंगलाज माता की मूर्ति भी बनी हुई है। मान्यता अनुसार हिंगलाज माता की मूर्ति पहले राज कर रहे मीणाओं द्वारा बलूचिस्तान के हिंगलाज भवानी शक्तिपीठ मन्दिर से लायी गई है।[4]
मंदिर के प्रवेशद्वार पर चाँदी का पत्र मढ़ा हुआ है जिस दस महाविद्याओं, नवदुर्गा की आकृतियाँ अंकित हैं। मन्दिर का मुख्य द्वार चांदी का बना हुआ है और उस पर नवदुर्गा, शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघण्टा, कूष्माण्डा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री की प्रतिमाएँ उकेरी हुई हैं। दस महाविद्याओं के रूप में यहां काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, त्रिपुरभैरवी, धूमावती, बगलामुखी, श्रीमातंगी और कमला देवी को दर्शाया गया है। द्चार के ऊपर लाल पत्थर की भगवान गणेश की मूर्ति प्रतिष्ठित है। मुख्यद्वार के सामने झरोखे है जिसके अंदर चांदी का नगाड़ा रखा हुआ है। यह नगाड़ा प्रातः एवं सायंकाल आरती के समय बजाया जाता है। मन्दिर की तरफ प्रवेश करते ही दाईं ओर कलाकार धीरेन्द्र घोष द्वारा महाकाली और महालक्ष्मी की सुन्दर चित्रकारी की हुई है। मंदिर के कुछ भाग एवं स्तम्भों में बंगाली वास्तु शैली दिखाई देती है।[2]
आज के इस देवी मंदिर धार्मिक इमारतों की प्राचीन वस्तुशिल्प शैली दिखाई देती है। यहां स्थापित शिला माता की प्रतिमा का चेहरा कुछ टेढा है। इस मंदिर में वर्ष १९७२ तक तक पशु बलि का प्रावधान था, किन्तु आधुनिक समाज के, विशेषकर जैन धर्मावलंबियों के विरोध होने के कारण यह बंद कर दी गई। मंदिर में शिला देवी की मूर्ति के बारे में कई तरह की कथाएँ एवं किंवदन्तियां सुनाई देती हैं:
यहाँ वर्ष में दो बार चैत्र और आश्विन के नवरात्र में मेला लगता है। इस अवसर पर माता का विशेष श्रंगार किया जाता है।। इनमें देवी को प्रसन्न करने के लिए पशुओं की बलि दी जाती है। तब यहां उदयपुर के राज परिवार के सदस्य और भूतपर्व जयपुर रियासत के सामन्तगण नवरात्र के इस समारोह में सम्मिलित होते हैं। आने वाले भक्तों के लिए दर्शन की विशेष सुविधा का प्रबन्ध किया जाता है। मन्दिर की सुरक्षा का सारा प्रबन्ध पुलिस अधिकारियों द्वारा किया जाता है। भक्त पंक्ति में बारी-बारी से दर्शन करते है तथा भीड़ अधिक होने पर महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग पंक्तियां बनाकर दर्शन का प्रबन्ध किया जाता है। मुख्य मन्दिर में दर्शन के बाद बीच में भैरव मन्दिर बना हुआ है, जहाँ माँ के दर्शन के बाद भक्त भैरव दर्शन करते हैं। मान्यता के अनुसार शिला माँ के दर्शन तभी सफल होते हैं, जब भक्त भैरव दर्शन करके लौटते हैं।[4] इसका कारण है कि भैरव का वध करने पर उसने अन्तिम इच्छा में माँ से यह वरदान मांगा था कि आपके दर्शनों के उपरान्त मेरे दर्शन भी भक्त करें ताकि माँ के नाम के साथ भैरव का नाम भी लोग याद रखें और माँ ने भैरव की इस इच्छा को पूर्ण कर उसे यह आशीर्वाद प्रदान किया था।
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