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दीपिका सिंह बनाम केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण & अन्य (2022) भारत के उच्चतम न्यायालय का एक ऐतिहासिक निर्णय है जो भारतीय क़ानून के तहत 'परिवार' की परिभाषा का विस्तार करता है। [1]
दीपिका सिंह बनाम केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण | |
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अदालत | भारतीय उच्चतम न्यायालय |
पूर्ण मामले का नाम | दीपिका सिंह बनाम केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण & अन्य |
फैसला किया | 16 अगस्त 2022 |
उद्धरण(एस) | C.A. No 5308/2022 |
मामले की राय | |
असामान्य परिवार कानून के तहत समान सुरक्षा और सामाजिक कल्याण कानून के तहत उपलब्ध लाभों के पात्र हैं। |
दीपिका सिंह, जिन्होंने चंडीगढ़ में एक सरकारी मेडिकल संस्थान, स्नातकोत्तर चिकित्सा शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान चण्डीगढ़ (PGIMER), में बतौर नर्स काम किया, की अपने बच्चे को जन्म देने के बाद की मातृत्व अवकाश की अर्ज़ी अस्वीकृत की गई थी। दीपिका के पति, आमिर सिंह, की शादी एक बार पहले हो चुकी थी और उनकी पहली बीवी का देहांत 16 फ़रवरी 2013 को हुआ था। 18 फ़रवरी 2014 को दीपिका और आमिर की शादी हुई। अपनी पहली शादी से आमिर के 2 बच्चे थे - एक लड़का और एक लड़की। दीपिका ने 4 मई 2015 को PGIMER में एक अर्ज़ी दायर की जिसमें उन्होंने संस्थान से अनुरोध किया कि वह उनके पति, आमिर, की पहली शादी से हुए दोनों बच्चों को उनके आधिकारिक रिकॉर्ड में लिख दें।
दीपिका का पहला जैविक बच्चा 4 जून 2019 को उनके पति आमिर के साथ हुआ। 6 जून 2019 को उन्होंने 27 जून 2019 - 23 दिसंबर 2019 तक के लिए मातृत्व अवकाश के लिए अर्ज़ी जमा के (केंद्रीय सिविल सेवा (अवकाश) नियम 1972 के नियम 43 के संदर्भ में)। दीपिका के नियोक्ता ने कहा कि उनकी मातृत्व अवकाश की अर्ज़ी को 3 सितंबर 2019 को नामंज़ूर कर दिया और वजह ये बताई कि उनके दो जीवित बच्चे हैं (आमिर की पहली शादी से) और वह पहले ही इन दोनों बच्चों के लिए मातृत्व अवकाश का लाभ उठा चुकी हैं। और क्योंकि मातृत्व अवकाश केवल 2 या 2 से कम जीवित बच्चों के लिए ही मिलता है, और दीपिका के पहले जैविक बच्चे को उनका तेसरा बच्चा माना गया, उनकी अर्ज़ी अस्वीकृत हुई। इस निर्णय से नाख़ुश, दीपिका ने अधिकरण में केस दायर किया।[2]
मातृत्व अवकाश के लिए 2013 के केंद्रीय सिविल सेवा नियमों के प्रावधानों के अनुसार, उनके अनुरोध को केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण और पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने अस्वीकार कर दिया था।[2]
उच्चतम न्यायालय ने ठहराया कि किसी महिला के मातृत्व अवकाश लेने के वैधानिक अधिकार को प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता सिर्फ़ इसलिए कि उसने पहले अपने ग़ैर-जैविक बच्चों के लिए बाल देखभाल अवकाश का उपयोग किया था। याचिकाकर्ता के पक्ष में निर्णय सुनाते हुए, न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ और बोपन्ना ने कहा कि क़ानून और समाज दोनों की "परिवार" की अवधारणा की व्यापक समझ दो बातों को नज़रअंदाज़ करती है - (अ) जीवन की ऐसी कई परिस्थितियां जो किसी के परिवार के ढाँचे में बदलाव का कारण बन सकती हैं, और (ख) यह तथ्य की कई भारतीय परिवार आज भी इस व्यापक अवधारणा के अनुसार नहीं चलते।[1]
इस संदर्भ में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ और बोपन्ना ने अपने निर्णय के पृष्ठ 19-20 में लिखा (अंग्रेज़ी से अनुवादित):
पारिवारिक रिश्ते घरेलू, अविवाहित या समलैंगिक संबंधों का रूप ले सकते हैं। पति/पत्नी की मृत्यु, अलगाव या तलाक़ सहित कई अन्य कारणों से एक परिवार सिंगल माता-पिता वाला घर बन सकता है। इसी तरह, बच्चों के अभिभावक और देखभाल करने वाले (जो पारंपरिक रूप से "माँ" और "पिता" की भूमिका में होते हैं) पुनर्विवाह, दत्तक ग्रहण (गोद लेने) या पालन-पोषण (फ़ॉस्टरिंग) के साथ बदल सकते हैं। प्यार और परिवारों की ये अभिव्यक्तियाँ चाहे आम न हों लेकिन वे अपने पारंपरिक समकक्षों की जितनी हीं वास्तविक हैं।
इसके अलावा, न्यायाधीशों ने यह भी कहा कि ऐसे असामान्य परिवार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में गारंटीकृत क़ानून के अनुसार समान सुरक्षा और सामाजिक कल्याण क़ानूनों के तहत उपलब्ध लाभों के पात्र हैं। [1]
यह निर्णय भारतीय क़ानून में 'परिवार' की परिभाषा का विस्तार करता है और उसमें अविवाहित जोड़ों, क्वीअर रिश्तों और सिंगल माता-पिता को शामिल करता है।[1]
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