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प्राचीन अयोध्या के सूर्यवंशी राजा विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
दिलीप(खटवांग ) इक्ष्वाकु वंश के प्रतापी राजा थे जिन्हें 'खटवांग' भी कहते हैं। तथा इनकी बाहु अजानबाहु तथा प्रचंड बल होने के कारण इन्हें ' दीर्घाबायु ' भी कहा जाताहै। उनकी पत्नी का नाम सुदक्षिणा था। महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य रघुवंशम् में दिलीप के चरित्र का बड़ा ही अजस्वी वर्णन किया है, जो इस प्रकार है-
...उन्हीं वैवस्वत मनु के उज्जवल
वंश में चन्द्रमा के समान सबको सुख प्रदान करने वाले और बहुत ही शुद्ध चरित्र वाले राजा दिलीप ने जन्म लिया। उनके जन्म से ऐसा लगा मानों क्षीर सागर में चंद्रमा ने जन्म लिया हो। राजा दिलीप के शरीर सौष्ठव का वर्णन करते हुए कालिदास कहते हैं-
राजा दिलीप की परम कामना यही थी कि उनकी प्रिय पत्नी सुदक्षिणा उनके समान ही तेजस्वी, ओजस्वी पुत्र को जन्म दे। किन्तु दिन बीतते जा रहे थे और राजा दिलीप का मनोरथ पूर्ण नहीं हो पा रहा था। इससे खिन्न होकर राजा ने अपने मन में निश्चय किया कि सन्तान उत्पन्न करने के लिए कोई न कोई उपाय किया जाना चाहिए। यह निश्चय करने के उपरान्त सर्वप्रथम राजा ने सारा राज्य कार्य अपने सुयोग्य मंत्रियों के ऊपर सौंप दिया। राज्य भार सौंप देने पर उन्होंने महर्षि वसिष्ठ के आश्रम में जाकर उनसे परामर्श करने का निश्चय किया। उसके लिए सर्वप्रथम उन्होंने अपनी पत्नी सहित प्रजापति ब्रह्मा की पूजा अर्चना की और फिर पत्नी सुदक्षिणा को लेकर वे अपने कुलगुरु महर्षि वसिष्ठ के आश्रम को गए।
आश्रमवासियों को जब राजा और रानी के आने का समाचार प्राप्त हुआ तो वहां के सभ्य एवं संयमी मुनियों ने अपने रक्षक, आदरणीय तथा नीति के अनुसार चलने वाले राजा का सपत्नीक सम्मान के साथ आश्रम में स्वागत किया।
आश्रम में प्रविष्ट होने पर वहां उन्होंने संध्या की सब क्रियाएं पूर्ण की। इसी प्रकार सब आश्रमवासियों की सब सांध्य क्रियाएं सम्पन्न होने के बाद महाराज और महारानी उन तपस्वी महामुनि वसिष्ठ के समीप वहां पर गए जहां वे बैठे हुए थे। उनके समीप पहुंचने पर राजा और उनकी पत्नी मगधकुमारी सुदक्षिणा ने कुलगुरु तथा उनकी पत्नी के चरण स्पर्श कर उनको प्रणाम किया। महर्षि वसिष्ठ और उनकी पत्नी अरुंधती ने हृदय से उनको आशीर्वाद प्रदान कर आनंदित किया और बड़े प्यार तथा दुलार से उनका स्वागत किया।
सब क्रियाओं से निवृत्त होने के उपरान्त महर्षि वसिष्ठ ने राजा दिलीप से पूछा- "राजन् ! आपके राज्य में सब प्रकार से कुशल तो है न ?" राजा दिलीप ने केवल शस्त्रास्त्र विद्या के संचालन में ही निपुण थे, न केवल अपनी वीरता से ही उन्होंने अनेकानेक नगर जीते थे, वे बातचीत में भी उतने ही कुशल थे। इसलिए अथर्ववेद के रक्षक वसिष्ठ जी से उनके प्रश्न के उत्तर में बड़ी अर्थभरी वाणी में उन्होंने कहा- "गुरुदेव ! आपकी कृपा से मेरे राज्य के सातों अंग-राजा, मंत्री, मित्र, राजकोष, राज्य, दुर्ग और सेना सब परिपूर्ण हैं। अग्नि, जल, महामारी और अकाल-मृत्यु इन दैवी विपत्तियों तथा चोर, डाकू शत्रु आदि मानुषी आपत्तियों को दूर करने वाले तो आप यहां प्रत्यक्ष विराजमान हैं। आप मंत्रों के रचयिता हैं, आपके मंत्र ही इतने शक्तिशाली हैं कि मुझे बाण चलाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती, क्योंकि अपने वाणों से तो मैं केवल उनको वेध ही सकता हूं जो कि मेरी सम्मुख आते हैं, परन्तु आपके मंत्र तो यहीं से मेरे शत्रुओं का नाश कर देते हैं। महामुनि ! आप जब शास्त्रीय विधि से अग्नि में हवि छोड़ते हैं तो आपकी आहुतियां अनावृष्टि से सूखे हुए धान के खेतों पर जल वृष्टि के रूप में बरसने लगते हैं। यह आपके ही के ब्रह्म के तेज का बल है कि मेरे राज्य में न तो कोई सौ वर्ष से कम की आयु पाता है और न किसी को- बाढ़, सूखा, चूहा, तोता, राजकलह, वैरी की चढ़ाई आदि तथा विपत्ति का भय रहता है।"
अन्त में राजा ने अपने निःसन्तान होने की बात बताई । तब महर्षि वशिष्ठ बोले – “ हे राजन ! तुमसे एक अपराध हुआ है, इसलिए तुम्हारी अभी तक कोई संतान नहीं हुई है ।”
तब राजा दिलीप ने आश्चर्य से पूछा – “ गुरुदेव ! मुझसे ऐसा कोनसा अपराध हुआ है कि मैं अब तक निसंतान हूँ। कृपा करके मुझे बताइए ?”
महर्षि वशिष्ठ बोले – “ राजन ! एक बार की बात है, जब तुम देवताओं की एक युद्ध में सहायता करके लौट रहे थे । तब रास्ते में एक विशाल वटवृक्ष के नीचे देवताओं को भोग और मोक्ष देने वाली कामधेनु विश्राम कर रही थी और उनकी सहचरी गौ मातायें निकट ही चर रही थी। तुम्हारा अपराध यह है कि तुमने शीघ्रतावश अपना विमान रोककर उन्हें प्रणाम नहीं किया । जबकि राजन ! यदि रास्ते में कहीं भी गौवंश दिखे तो दायीं ओर होकर राह देते हुयें उन्हें प्रणाम करना चाहिए । यह बात तुम्हे गुरुजनों द्वारा पूर्वकाल में ही बताई जा चुकी थी । लेकिन फिर भी तुमने गौवंश का अपमान और गुरु आज्ञा का उल्लंघन किया है । इसीलिए राजन ! तुम्हारे घर में अभी तक कोई संतान नहीं हुई ।” महर्षि वशिष्ठ की बात सुनकर राजा दिलीप बड़े दुखी हुए।
आँखों में अश्रु लेकर और विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर राजा दिलीप गुरु वशिष्ठ से प्रार्थना करने लगे – “ गुरुदेव ! मैं मानता हूँ कि मुझसे अपराध हुआ है किन्तु अब इसका कोई तो उपाय होगा ?”
तब महर्षि वशिष्ठ बोले – “ एक उपाय है राजन ! ये है मेरी गाय नंदिनी है जो कामधेनु की ही पुत्री है। इसे ले जाओ और इसके संतुष्ट होने तक दोनों पति-पत्नी इसकी सेवा करो और इसी के दुग्ध का सेवन करो । जब यह संतुष्ट होगी तो तुम्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी ।” ऐसा आशीर्वाद देकर महर्षि वशिष्ठ ने राजा दिलीप को विदा किया।
अब राजा दिलीप प्राण-प्रण से नंदिनी की सेवा में लग गये । जब नंदिनी चलती तो वह भी उसी के साथ-साथ चलते, जब वह रुक जाती तो वह भी रुक जाते । दिनभर उसे चराकर संध्या को उसके दुग्ध का सेवन करके उसी पर निर्वाह करते थे।
एक दिन संयोग से एक सिंह ने नंदिनी पर आक्रमण कर दिया और उसे दबोच लिया । उस समय राजा दिलीप कोई अस्त्र – शस्त्र चलाने में भी असमर्थ हो गया । कोई उपाय न देख राजा दिलीप सिंह से प्रार्थना करने लगे – “ हे वनराज ! कृपा करके नंदिनी को छोड़ दीजिये, यह मेरे गुरु वशिष्ठ की सबसे प्रिय गाय है । मैं आपके भोजन की अन्य व्यवस्था कर दूंगा ।”
तो सिंह बोला – “नहीं राजन ! यह गाय मेरा भोजन है अतः मैं उसे नहीं छोडूंगा । इसके बदले तुम अपने गुरु को सहस्त्रो गायें दे सकते हो ।”
बिलकुल निर्बल होते हुए राजा दिलीप बोले – “ हे वनराज ! आप इसके बदले मुझे खा लो, लेकिन मेरे गुरु की गाय नंदिनी को छोड़ दो ।”
तब सिंह बोला – “यदि तुम्हें प्राणों का मोह नहीं है तो इसके बदले स्वयं को प्रस्तुत करो । मैं इसे अभी छोड़ दूंगा ।”
कोई उपाय न देख राजा दिलीप ने सिंह का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और स्वयं सिंह का आहार बनने के लिए तैयार हो गया । सिंह ने नंदिनी गाय को छोड़ दिया और राजा को खाने के लिए उसकी ओर झपटा । लेकिन तत्क्षण हवा में गायब हो गया।
तब नंदिनी गाय बोली – “ उठो राजन ! यह मायाजाल, मैंने ही आपकी परीक्षा लेने के लिए रचा था । जाओ राजन ! तुम दोनों दम्पति ने मेरे दुग्ध पर निर्वाह किया है अतः तुम्हें एक गुणवान, बलवान और बुद्धिमान पुत्र की प्राप्ति होगी ।” इतना कहकर नंदिनी अंतर्ध्यान हो गई।
उसके कुछ दिन बाद नंदिनी के आशीर्वाद से महारानी सुदक्षिणा ने एक पुत्र को जन्म दिया, रघु के नाम से विख्यात हुआ और उसके पराक्रम के कारण ही इस वंश को रघुवंश के नाम से जाना जाता है ।
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