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चिकित्सा की शाखा विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
दंतचिकित्सा (dentistry) स्वास्थ्यसेवा की वह शाखा है, जिसका संबंध मुख के भीतरी भाग और दाँत आदि की आकृति, कार्यकरण, रक्षा तथा सुधार और इन अंगों तथा शरीर के अंत:संबंध से है। डा0 राहुल कुमार दन्त चिकित्सा पदाधिकारी झारखण्ड सरकार का कहना हैै कि शरीर के रोगों के मुख संबंधी लक्षण, मुख के भीतर के रोग, घाव, विकृतियाँ, त्रुटियाँ, रोग अथवा दुर्घटनाओं से क्षतिग्रस्त दाँतों की मरम्मत और टूटे दाँतों के बदले कृत्रिम दाँत लगाना, ये सभी बातें आती हैं। इस प्रकार दंतचिकित्सा का क्षेत्र लगभग उतना ही बड़ा है, जितना नेत्र या त्वचाचिकित्सा का। इसका सामाजिक महत्व तथा सेवा करने का अवसर भी अधिक है। दंतचिकित्सक का व्यवसाय स्वतंत्र संगठित है और यह स्वास्थ्यसेवाओं का महत्वपूर्ण विभाग है। दंतचिकित्सा की कला और विज्ञान के लिये मुख की संरचना, दाँतों की उत्पत्ति विकास तथा कार्यकरण और इनके भीतर के अन्य अंगों और ऊतकों तथा उनके औषधीय, शल्य तथा यांत्रिक उपचार का समुचित ज्ञान आवश्यक है।
दंतविज्ञान की बढ़ती हुई जटिलताओं के कारण इसमें कई एक विशेषताएँ उत्पन्न हो गई हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे सामान्य आयुर्विज्ञान (मेडिसिन) में। इसकी कुछ शाखाएँ नीचे वर्णित हैं :
यह दंतचिकित्सा की वह शाखा है, जिसके अंतर्गत जबड़े का भंग अथवा अन्य क्षति या मुख के भीतरी भार्गों, जैसे दाँत, जबड़े और पास की संरचनाओं के विकास की वे विकृतियाँ तथा रोग संमिलित हैं जो शल्यचिकित्सा से अच्छे किए जा सकते हैं। मुखचिकित्सक के क्षेत्र में फटे तालू को बंद करना, कटे होंठ को टाँकना और बाहर से घुसे पदार्थों को निकालना आदि सभी संमिलित हैं।
यह दंतचिकित्सा की वह शाखा है जिसका संबंध मानव दाँतों तथा उससे संबद्ध भागों के स्थान पर कृत्रिम दाँत आदि लगाने से है। इसके अंतर्गत नकली दंतसमूह (artificial denture), शल्य द्वारा रिक्त स्थानों में दाँत लगाना (surgical prosthesis), खंडित दाँतों को ठीक करना (obturation), दंतमूलों पर दाँत बैठाना, सेतु बनाना और दाँत सजाना आते हैं। गत बीस वर्षों में इस शाखा में बड़ी प्रगति हुई है। शीघ्र प्रगति और नवीन तकनीकों के विकास के कारण, पुरानी सभी विधियाँ प्राय: लुप्त हो गई हैं। इन नवीन उपकरणों का निर्माण करने के लिये मुख संबंधी अंगरचना, ऊतक विज्ञान और शरीरक्रिया विज्ञान इत्यादि का ज्ञान आवश्यक है। रोगी की हानि तीन प्रकार की होती है, अर्थात् शरीररचनात्मक, शरीरक्रियात्मक और मन:शारीरिक (psychosomatic)। दंतचिकित्सा की इस शाखा के विशेषज्ञ का कार्य केवल इतना ही नहीं है कि वह यांत्रिक रीति से दाँत बैठा दे, परंतु यह भी है कि वह रोगी की अन्य क्षतियों की पूर्ति करे और उसे फिर पहले जैसा चंगा बना दे।
इस शाखा में दाँत तथा जबड़ों के असामान्य संबंध तथा इसके कारण उत्पन्न मुखड़े की विकृतियों का संशोधन और रोकथाम है। इस शाखा का विशेषज्ञ इन असामान्य संबंधों को, दाँतों के कार्यों को जबड़े और मुखड़े की अस्थियों और पेशियों की प्राकृतिक सीमाओं के भीतर रखकर, उचित कार्यकरण उत्पन्न करके ठीक करता है। जबड़ों तथा मुखड़े की पेशियों और अस्थियों का कितना विकास हुआ है, इसी पर दाँतों की चाल निर्भर है। दंतशोधन उपकरणों, अथवा असामान्य आदतों के संशोधन से, स्थायी लाभ तभी उत्पन्न होता है जब यह उपकरण, या नवीन आदत, इतने समय तक काम करती रहे कि अस्थि और पेशियों में संबंध स्थिर हो जाए।
इस शाखा में दाँत को सहारा देनेवाले अंगों के रोगों और त्रुटिमय परिवर्तन को रोकना और उनकी चिकित्सा करना आता है। ये अंग ऐडव्योलर प्रोसेस, (Alveolar process), जिनजिवी, (Gingivae), सिमेंटम (Cementum) और पेरिसिमेंटम (Pericementum) हैं। सामूहिक रूप से ये भाग परिदंत (पेरियडोंथियम) कहलाते हैं। परिदंत ऊतकों के स्वस्थ बने रहने पर ही दाँतों का स्थायी रहना बहुत कुछ निर्भर है। परिदंतकला (periodontal membrane) का नष्ट होना ही पेरियोडॉण्टोक्लेशिया नामक रोग है। इसी को साधारण भाषा में मसूड़ों का सड़ना (पाइरिया, pyorrhoea) कहते हैं।
इस शाखा में बच्चों की दंतचिकित्सा आती है। इसमें बच्चों के मुख और दाँतों का अध्ययन और उपचार किया जाता है और यह प्रौढ़ों के उपचारादि से भिन्न है।
दंतचिकित्सा की नई शाखा है। इसके अंतर्गत प्राणरहित दाँतों की जड़ों का उपचार और भरना आते हैं। इन क्रियाओं से दाँत जबड़ों में दृढ़ हो जाते हैं, जिससे वे काटने और चबाने के काम आ सकते हैं।
रोग के निदान में एक्स रश्मियाँ बहुत महत्वपूर्ण हैं। इनसे रोग की चिकित्सा भी हो सकती है; ठीक वैसे ही जैसे सामान्य आयुर्विज्ञान में। परंतु इनका अधिक प्रयोग विशेष रोगों के निदान में ही किया जाता है।
इस शाखा में पूरे समाज की दंत-स्वास्थ्य-समस्याओं पर विचार किया जाता है। इसका उद्देश्य यह है कि समाज संगठित रूप से ऐसा प्रयत्न करे कि दाँतों की क्षमता बढ़ जाय और रोग होने न पाएँ। दाँतों के रोग व्यक्तियों के विशेष समूह में ही नहीं होते। ये रोग सभी को हो सकते हैं, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, उसकी आयु कुछ भी हो और वह किसी भी जाति का हो। इसलिये दाँतों के रोग का महत्व सर्वव्यापी है।
भारत में दंतचिकित्सकों और उनके सहायकों की बड़ी कमी है। स्वास्थ्य संगठन और स्वास्थ्य परिस्थितियों के संरक्षण के लिये सरकार ने भोर समिति नियुक्त की थी। उसका प्रतिवेदन 1946 ई में उपस्थित किया गया था। उसकी संस्तुति है कि 5,000 व्यक्तियों के पीछे एक दंतचिकित्सक अवश्य होना चाहिए, यद्यपि पाश्चात्य देशों में 3,000 व्यक्तियों के पीछे कम से कम एक दंतचिकित्सक परमावश्यक समझा जाता है। भोर समिति की संस्तुति के अनुसार 30-35 वर्षों में 75,000 दंतचिकित्सकों की आवश्यकता पड़ेगी। फलत: इस काल में कम से कम ढाई हजार दंतचिकित्सक प्रति वर्ष प्रशिक्षित करने पड़ेंगे। ऐसा तभी संभव है जब 25 दंतचिकित्सक विद्यालय खोले जायँ, जिसमें प्रति वर्ष 100 विद्यार्थी भरती किए जायँ। इस समय 4,00,000 व्यक्तियों के पीछे केवल एक दंतचिकित्सक है। न्यूज़ीलैंड में पहले इसी प्रकार दंतचिकित्सकों की कमी थी और उसकी पूर्ति दंतचिकित्सक परिचारिकाओं के प्रशिक्षण से की गई। उनका प्रशिक्षण दो वर्ष तक होता था। उनकी न्यूनतम योग्यता यह थी कि वे हाई स्कूल परीक्षा पास हों। इन परिचारिकाओं में इतनी योग्यता आ जाती थी कि वे दंतचिकित्सा की सरलतम क्रियाएँ कर सकें। साधारण दंतचिकित्सक का अधिकतर समय इन्हीं सरल क्रियाओं में लग जाता है। इनमें विशेष निपुणता की आवश्यकता नहीं होती। भारत में बहुत से हाई स्कूल उत्तीर्ण व्यक्ति बेकार बैठे रहते हैं। उनमें से कई एक इस काम को सुगमता से सीख सकते हैं। प्रशिक्षित होने पर वे योग्य दंतचिकित्सकों की देखरेख में अस्पतालों तथा दाँत के स्कूलों में सहायक का काम कर सकते हैं। ऐसे व्यक्तियों को "दंतरक्षक" कहा जा सकता है। उन्हें सरकारी खर्च से प्रशिक्षित किया जा सकता है और उनसे अनुबंध लिखा लिया जा सकता है कि वे पाँच से दस वर्ष तक अवश्य काम करेंगे।
संस्तुति की गई है कि तीन प्रकार के व्यक्ति प्रशिक्षित किए जायँ :
(1) दंतचिकित्सक
(2) दंतरक्षक
(3) दंतयांत्रिक
दंतचिकित्सकों का प्रशिक्षण आयुर्वेज्ञानिक तथा दंतविद्यालयों में हो और शेष व्यक्तियों का प्रशिक्षण केवल दंतविद्यालयों मे। भोर समिति की एक संस्तुति यह भी है कि दंतचिकित्सा शिक्षा सब स्थानों पर एक ही स्तर की हो। यह कार्यरूप में परिणत कर दी गई है। कुछ संस्तुतियाँ एम डी एस (मास्टर ऑव डेंटल सर्जरी) नामक उपाधि के लिये थीं। उन्हें धीरे धीरे अवसर के अनुसार कार्यरूप में परिणत किया जा सकता है। दंतविषयक विधान के बारे में संस्तुतियाँ मान ली गई हैं और दंतचिकित्सक अधिनियम स्वीकृत हो गया है।
सन् 1948 ई के दंतचिकित्सक विधान के अनुसार यह परिषद् स्थापित हुई थी। इसे इस व्यवसाय को नियंत्रित करने और नियम बनाने का अधिकार है। यह परिषद् दंत-चिकित्सा-शिक्षा का भी नियंत्रण करती है और इस प्रकर शिक्षा का स्तर सदा समान रूप से ऊँचा रहता है। प्रत्येक संस्था को, जो दंतचिकित्सा संबंधी उपाधियाँ देती है, इस परिषद् के माँगने पर अपने पाठ्यक्रम और परीक्षाओं के बारे में ब्यौरेवार सूचना देनी पड़ती है। यदि उनका परीक्षास्तर संतोषजनक नहीं होता तो संस्था की मान्यता छीन ली जा सकती है।
प्रत्येक राज्य में अपनी निजी दंतचिकित्सा परिषद् है, जिसके सदस्य अंशत: चुने जाते हैं और अंशत: मनोनीत होते हैं। इसका कार्य अपने प्रांत में व्यवसाय को नियंत्रित करना और यह देखना है कि आचारिक स्तर पर्याप्त ऊँचा रहे।
इस परिषद् में एक पंजिका रहती है, जिसे भारतीय दंतचिकित्सक पंजिका कहते हैं। इसके दो खंड हैं। प्रथम खंड (खण्ड ए) में उन सब दंतचिकित्सकों के नाम लिखे जाते हैं, जिन्हें मान्यता प्राप्त दंतचिकित्सा उपाधियाँ मिली हैं। द्वितीय खंड (खण्ड बी) में उनके नाम रहते हैं, जिनके पास ऐसी कोई उपाधि नहीं है। दंतयांत्रिकों और दंतरक्षकों की भी पंजिकाएँ रखी जाती हैं।
भारत में प्रथम दंतचिकित्सा शाला सन् 1920 ई में कलकत्ते में खोली गई थी। 1926 ईदृ में दूसरी शाला कराची में खुली। नैयर दंतचिकित्सा विद्यालय 1933 ई में खुला। सन् 1936 में लाहौर के डे मॉण्टमोरेंसी कॉलेज ऑव डेंटिस्ट्री में बीदृ डीदृ एसदृ उपाधि के लिये नियमित शिक्षा आरंभ हुई। सन् 1945 में 'एम डी एस' उपाधि के लिये पढ़ाई प्रारंभ की गई। सन् 1949 में उत्तर प्रदेश में एक दंतचिकित्सा विद्यालय, लखनऊ में खोला गया और किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज से संबद्ध कर दिया गया। वर्तमान काल में ये सात दंतचिकित्सा विद्यालय हैं जो किसी न किसी विश्वविद्यालय से संबद्ध हैं :
1. डेंटल कॉलेज ऐंड हॉस्पिटल, किंग जॉर्जेज़ मेडिकल कॉलेज, लखनऊ।
2. सर सीदृ ईदृ एमदृ डेंटल कॉलेज, बाइकुला, बंबई।
3. नैयर हॉस्पिटल डेंटल कॉलेज, लैमिंग्टन रोड, बंबई।
4. कलकत्ता डेंटल कॉलेज, 114, लोअर सर्कुलर रोड, कलकत्ता।
5. पंजाब गवर्नमेंट डेंटल कॉलेज, अमृतसर।
6. डेंटल विगं, मद्रास मेडिकल कॉलेज, मद्रास।
7. गवर्नमेंट डेंटल कॉलेज, पटियाला।
भर्ती होने के लिये न्यूनतम योग्यता, जीवविज्ञान सहित इंटरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण हैं। पाठ्यक्रम चार वर्ष का है और बैचलर ऑव डेंटल सर्जरी की उपाधि मिलती है। इन सब विद्यालयों में पाठ्क्रम एक ही स्तर का है। दंतशल्य में मास्टर की उपाधि के लिये बंबई के डेंटल कॉलेज में पाठ्यक्रम चालू कर दिया गया है।
दंतचिकित्सा के अध्यापक भारत के सभी मेडिकल कॉलेज में नियुक्त कर दिए गए हैं। इसका उद्देश्य यह है कि सभी आर्युवैज्ञानिक विद्यार्थी दंतशल्य के मूलाधार से परिचित हो जाएँ और रोगियों की देखभाल कर सकें। इंडियन काउंसिल ऑव मेडिकल रिसर्च तथा उत्तर प्रदेश साइंटिफ़िक रिसर्च कमेटी के तत्वावधान में दंतचिकित्सा विद्यालयों में दंतचिकित्सा संबंधी अनुसंधान भी हो रहा है।
आर्मी डेंटल कोर, आर्मी मेडिकल कोर की भगिनी शाखा है। मेडिकल कोर के प्रधान को कर्नल की पदवी मिली रहती है और वह दंतसेवाओं का उपनिदेशक (डेप्युटी डाइरेक्टर) भी कहलाता है। नाविक और वायुसेनाओं में पृथक् दंतविभाग होते हैं। दंतचिकित्सा की विविध शाखाओं के लिये पाँच विशेषज्ञ होते हैं। दंतयांत्रिक और दंतरक्षकों के प्रशिक्षण के लिये आम्र्ड फोर्सेज़ मेडिकल कॉलेज, पूना, में पढ़ाई होती है। भर्ती पहले अल्प काल के कमीशन के लिये होती है। इनमें से कुछ चुने हुए अभ्यर्थियों को स्थायी कमीशन दिया जाता है।
सन् 1946 से पूर्व केवल थोड़े से स्वतंत्र दंतसंघ थे, जो लाहौर, कलकत्ता, बंबई और कराची के दंतचिकित्सा विद्यालयों से संबंद्ध थे। जनवरी, 1946 में इन समस्त संघों को एक में संयोजित करके अखिल भारतीय दंतचिकित्सक संघ (ऑल इंडिया डेंटल एसोसिएशन) स्थापित किया गया। अधिक समुन्नत देशों में दंतचिकित्सा की प्रत्येक विशेषज्ञ शाखा के लिये पृथक् संघ होते हैं।
संसार में दंतचिकित्सा पर अनेक पुस्तकें और पत्रिकाएँ प्रकाशित होती हैं, जिनमें युनाइटेड स्टेंट्स, अमरीका और ग्रेट ब्रिटेन अग्रगामी हैं। भारत में "दि जर्नल ऑव ऑल इंडिया डेंटल ऐसोसिएशन" नामक एक पत्रिका प्रकाशित होती है।
देखें - दाँत का बुरुश
https://web.archive.org/web/20190726100851/https://www.myhealth100.com/
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