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राजस्थान में बांसवाड़ा से लगभग 14 किलोमीटर दूर तलवाड़ा ग्राम से मात्र 5 किलोमीटर की दूरी पर ऊंची रौल श्रृखलाओं के नीचे सघन हरियाली की गोद में उमराई के छोटे से ग्राम में माताबाढ़ी में प्रतिष्ठित है मां त्रिपुरा सुंदरी। कहा जाता है कि मंदिर के आस-पास पहले कभी तीन दुर्ग थे। शक्तिपुरी, शिवपुरी तथा विष्णुपुरी नामक इन तीन पुरियों में स्थित होने के कारण देवी का नाम त्रिपुरा सुन्दरी पड़ा।
त्रिपुर सुंदरी मंदिर, बांसवाड़ा | |
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धर्म संबंधी जानकारी | |
सम्बद्धता | हिन्दू धर्म |
अवस्थिति जानकारी | |
अवस्थिति | राजस्थान में बांसवाड़ा |
वास्तु विवरण | |
प्रकार | हिन्दू शैली |
यह स्थान कितना प्राचीन है प्रमाणित नहीं है। वैसे देवी मां की पीठ का अस्तित्व यहां तीसरी सदी से पूर्व का माना गया है। गुजरात, मालवा और मारवाड़ के शासक त्रिपुरा सुन्दरी के उपासक थे। गुजरात के सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह की यह इष्ट देवी रही। ख्याति लब्ध भूपातियों की इस इष्ट देवी परम्परा को बाबूजी स्व. हरिदेव जोशी प्रणीत उसी परम्परा के संरक्षण को बीड़ा अब वसुन्धरा राजे सिन्धिया ने उठाया है। मां की उपासना के बाद ही वे युद्ध प्रयाण करते थे।
कहा जाता है कि मालव नरेश जगदेश परमार ने तो मां के श्री चरणों में अपना शीश ही काट कर अर्पित कर दिया था। उसी समय राजा सिद्धराज की प्रार्थना पर मां ने पुत्रवत जगदेव को पुनर्जीवित कर दिया था।
"निष्प्राण में फूंके प्राण, पीड़ितों का करे परित्राण
मंदिर का जीर्णोद्धार तीसरी शती के आस-पास पांचाल जाति के चांदा भाई लुहार ने करवाया था। मंदिर के समीप ही भागी (फटी) खदान है, जहां किसी समय लोहे की खदान हुआ करती थी। किंवदांती के अनुसार एक दिन त्रिपुरा सुंदरी भिखारिन के रूप में खदान के द्वार पर पहुंची, किन्तु पांचालों ने उस तरफ ध्यान नहीं दिया। देवी ने क्रोधवश खदान ध्वस्त कर दी, जिससे कई लोग काल के ग्रास बने। देवी मां को प्रसन्न करने के लिए पांचालों ने यहां मां का मंदिर तथा तालाब बनवाया। इस मंदिर का 16 वीं शती में जीर्णोद्धार कराया। आज भी त्रिपुरा सुन्दरी मंदिर की देखभाल पांचाल समाज ही करता है। यहां अनेक मंदिरों के ध्वसांवशेष मिले है।
सन् 1982 में खुदाई के दौरान यहां शिव पार्वती की मूर्ति निकली थी, जिसके दोनों तरफ रिद्धि-सिद्धि सहित गणेश व कार्तिकेय भी हैं। प्रचलित पौराणिक कथानुसार दक्ष-यज्ञ तहस-नहस हो जाने के बाद शिवजी सती की मृत देह कंधे पर रख कर झमने लगे। तब भगवान विष्णु ने सृष्टि को प्रलय से बचाने के लिए योगमाया के सुदर्शन चक्र की सहयता से सती के शरीर को खण्ड-खण्ड कर भूतल पर गिराना आरम्भ किया। उस समय जिन-जिन स्थानों पर सती के अंक गिरे, वे सभी स्थल शक्तिपीठ बन गए। ऐसे शक्तिपीठ 51 हैं और उन्हीं में से एक शक्तिपीठ है त्रिपुरा सुंदरी।
तीनों पुरियों में स्थित देवी त्रिपुरा के गर्भगृह में देवी की विविध आयुध से युक्त अठारह भुजाओं वाली श्यामवर्णी भव्य तेजयुक्त आकर्षक मूर्ति है। इसके प्रभामण्डल में नौ-दस छोटी मूर्तियां है जिन्हें दस महाविद्या अथवा नव दुर्गा कहा जाता है। मूर्ति के नीचे के भाग के संगमरमर के काले और चमकीले पत्थर पर श्री यंत्र उत्कीण है, जिसका अपना विशेष तांत्रिक महत्व हैं। मंदिर के पृष्ठ भाग में त्रिवेद, दक्षिण में काली तथा उत्तर में अष्ट भुजा सरस्वती मंदिर था, जिसके अवशेष आज भी विद्यमान है। यहां देवी के अनेक सिद्ध उपासकों व चमत्कारों की गाथाएं सुनने को मिलती हैं।
मंदिर शताब्दियों से विशिष्ट शक्ति साधकों का प्रसिद्ध उपासना केन्द्र रहा है। इस शक्तिपीठ पर दूर-दूर से लोग आकर शीष झुकाते है। नवरात्रि पर्व पर इस मंदिर के प्रागण में प्रतिदिन विशेष कार्यक्रम होते है, जिन्हें विशेष समारोह के रूप में मनाया जाता है। नवरात्रि में गरबा का उत्सव भी होता है और नौ दिन तक प्रतिदिन त्रिपुरा सुंदरी की नित-नूतन श्रृंगार की मनोहारी झांकी बरबस मन मोह लेती है। चेत्र व वासन्ती नवरात्रि में भव्य मूर्ति के दर्शन प्राप्त करने दूरदराज से लोग आते हैं। चौबीसों घंटे भजन कीर्तन जागरण, साधना, उपासना, जप व अनुष्ठान की लहर में डूबा हर भक्त हर पल केवल मात की जय को उद्घोष करता दिखाई देता है। प्रथम दिवस शुभ मुहूर्त में मंदिर में घट स्थापना की जाती है। शुद्ध स्थान पर गोबर मिट्टी बिछा कर उसमें जौ या गेहूं बोये जाते हैं। इसके समीप ही अखण्ड ज्योति जलाई जाती है। मिट्टी-गोबर में बोये गए धान पर एक मिट्टी के कलश में जल भर कर रखा जाता है। इसे घट स्थापना कहते हैं। जल कलश के ऊपर मिट्टी के ढ़क्कन में गोबर-मिट्टी रखकर जौ बोये जाते हैं। दो तीन दिन पश्चात् धान के अंकुर फूटते हैं, जिन्हें जवारे कहते हैं। इनके सामने देवी मां के चित्र की धूप, अगरबत्ती, नारियल, पुष्प, रोली, मोली आदि से पूजा करते हैं। नवरात्रि की अष्टमी और नवमीं को यहां हवन होता है। नवमीं या दशहरे पर जवारों को माताजी पर चढ़ाते हैं। तत्पश्चात् पूजा अर्चना करके इस कलश को जवारों सहित माही नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है। विसर्जन स्थल पर पुनः एक मेला सा जुटता है, जहां त्रिपुरे माता की जय से समस्त वातावरण गूंज उठता है। अष्टमी पर यहां दर्शनार्थ पहुंचने वालों में राजस्थान के अलावा गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली और महाराष्ट्र के भी लाखों श्रद्धालु शमिल होते है।
वाग्वरांचल में शक्ति उपासना की चिर परम्परा रही है। साढ़े ग्यारह स्वयं भू-शिवलिंगों के कारण लघुकाशी कहलाने वाला यह वाग्वर प्रदेश शक्ति आराधना के कारण ब्राहाी, वैष्णवी और वाग्देवी नगरी के रूप में लब्ध प्रतिष्ठित है। जगतज्जननी त्रिपुरा सुन्दरी शक्तिपीठ के कारण यहां की लोक सत्ता प्राणवंत, ऊर्जावान और शक्ति सम्पन्न है।
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