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तर्कवाचस्पति तारानाथ भट्टाचार्य (1812-1885) संस्कृत के विद्वान एवं कोशकार थे। इन्होने वाचस्पत्यम् नामक शब्दकोश की रचना की जो संस्कृत का आधुनिक महाशब्दकोश है। वे बंगाल के राजकीय संस्कृत महाविद्यालय में अध्यापक थे। वाचस्पत्यम् का निर्माण सन १८६६ ई में आरम्भ हुआ और १८८४ ई में समाप्त। इस प्रकार इसको पूरा करने में १८ वर्ष लगे। शब्दकल्पद्रुम की अपेक्षा संस्कृत कोश का यह एक बृहत्तर संस्करण है।
तारानाथ तर्कवाचस्पति का जन्म ४ नवम्बर १८१२ ई में वर्धमान जिले के कालना में हुआ था। उनके पितामह रामराम तर्कसिद्धान्त का मूल निवास बरिशाल जिले का वैचण्डी नामक ग्राम में था। तर्कसिद्धान्त के पूर्वजों ने संस्कृत शिक्षादान में विशेष ख्याति अर्जित की थी। उस समय वर्धमान के महाराजा तिलकचन्द्र वाहादुर देश के विभिन्न स्थानों से पण्डितों को कालना बुलाकर उनकी सभा कराते थे। रामराम तर्कसिद्धान्त उस सभा में आये थे। महाराजा उनको कालना के श्यामराइपाड़ा में भूमि देकर वहीं बसाया। स्थानीय लोग इन्हें 'वाङाल भट्टाचार्य' के नाम से जानते थे।
बचपन में जब माता माहेश्वरी देवी का निधन हो गया, तो उनका पालन-पोषण वर्धमान के 'घोषपंचका' नामक गाँव में मामा के घर में हुआ। पांच वर्ष की उम्र में कलना के एक स्कूल में उनकी शिक्षा आरम्भ हुई। वे अत्यन्त प्रतिभाशाली थे। 'बंगाल भट्टाचार्य' परिवार के बन्धु तथा संस्कृत कॉलेज के तत्कालीन प्राचार्य और बंगाल बैंक के दीवान रामकमल सेन का ध्यान उनके शास्त्र विषयक तर्क-वितर्क की प्रतिभा की तरफ अकृष्ट हुआ। उन्होंने ही सबसे पहले 10 मई, 1830 ई. में तारानाथ को अलंकार वर्ग में प्रवेश दिया । वे कलकाता के ठनठनिया से पढ़ाई करते थे। धीरे-धीरे उन्होंने व्याकरण, अलङ्कार, न्याय, ज्योतिष, स्मृति, वेदान्त, पातञ्जल, उपनिषद विषयों में अगाध पाण्डित्य अर्जित कर लिया। प्रसङ्ग वश यह उल्लेख्य है कि संस्कृत कालेज में जब तारानाथ न्याय श्रेणी के छात्र थे, तब ईश्वरचन्द्र विद्यासागर इसमें अलङ्कार श्रेणी के छात्र थे। तारानाथ ईश्वरचन्द्र को प्यार करते थे और ईश्वरचन्द्र भी तारानाथ पर श्रद्धा करते थे।
१५ जनवरी, १८३५ ई को कालेज छोड़ते हुए कालेज की शिक्षा समिति ने उन्हें 'तर्कवाचस्पति' उपाधि प्रदान किया। १९३६ ई में वे लॉ कमीटी की तथा मुनसेफी परीक्षाय उत्तीर्ण किए एवं प्रशंसापत्र प्राप्त किये। इसके पश्चात वे काशी चले गये। वहाँ चार वर्ष वेदान्त और पाणिनि व्याकरण का अध्ययन किया।
संस्कृत कॉलेज से सेवानिवृत्त होने के बाद, उन्होंने अपने आप को शिक्षा, प्रकाशन और पुस्तकों के सम्पादन के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने कलकत्ता में एक घर बनाया और छात्रों को निःशुल्क भोजन देकर संस्कृत पढ़ाने के लिए एक अवैतनिक संस्कृत कॉलेज की स्थापना की। भारत के विभिन्न भागों से विद्यार्थी उनके पास संस्कृत सीखने आते थे। वह भी एक विद्यार्थी ही थे। उस समय 'किरातार्जुनीयम् और 'शिशुपालवध दुर्लभ थे। उन्होंने छात्रों के लिए इन दोनों काव्यों को छापने की व्यवस्था की और कोई लाभांश नहीं लिया।
समाज सुधारक के रूप में उनकी भूमिका भी असाधारण थी। वे विधवा विवाह आन्दोलन में ईश्वर चंद्र विद्यासागर के पूर्ण समर्थक थे। लेकिन उन्होंने बहुविवाह-निरोध आन्दोलन का विरोध किया। उन्होंने बाल विवाह को रोकने, विधवा-विवाह के प्रचलन और स्त्री शिक्षा को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे विद्यासागर के पुत्र नारायण चंद्र के विधवा विवाह समारोह में उपस्थित थे। चूंकि विद्यासागर के अपने निकट सम्बन्धी उस विवाह में नववधू को स्वीकार करने के लिए सहमत नहीं थे, इसलिए तारानाथ ने अपनी पत्नी के साथ दुल्हन को स्वीकार कर लिया। वह महिलाओं की शिक्षा के प्रति भावुक थे और हिंदू मेले एक उद्यमी आयोजक थे। महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए जब कलकत्ता में मिस्टर बेथ्यून के स्कूल की स्थापना की गई, तो उन्होंने सबसे पहले अपनी बेटी ज्ञानदा को भर्ती कराया। उन्हें देश में पारम्परिक मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं था और वे विदेश यात्रा या समुद्री यात्रा को शास्त्र-विरुद्ध नहीं मानते थे। 175 ई. में भारत में एडिनबर्ग के ड्यूक के आगमन पर उन्होंने बंगाली समाज की ओर से उनके स्वागत के लिये राजस्तुति की रचना की थी।
तारानाथ तर्कवाचस्पति द्वारा रचित उल्लेखयोग्य ग्रन्थों में सिद्धान्तकौमुदी पर 'सरला' नामक टीका समादृत है। इसके अतिरिक्त उन्होंने वाचस्पत्यम् की रचना की जो उनके जीवन की प्रधान कीर्ति है।
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