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तड़ित (Lightning) या "आकाशीय बिजली" वायुमण्डल में विद्युत आवेश का डिस्चार्ज होना (एक वस्तु से दूसरी पर स्थानान्तरण) और उससे उत्पन्न कड़कड़ाहट (thunder) को तड़ित कहते हैं। संसार में प्रतिवर्ष लगभग 2करोड़ 60 लाख तड़ित पैदा होते हैं।
कड़क के साथ आसमान से गिरने वाली बिजली को तड़ित कहते हैं। आकाश में बादलों के बीच टकराव होती है, यानी घर्षण होने से अचानक एक इलेक्ट्रोस्टेटिक चार्ज निकलती है। अर्थात तूफानी बादलों में विद्युत आवेश पैदा होता है। ये तेजी से आसमान से जमीन की तरफ आता है। इस दौरान हमेंं तेज कड़क के साथ आवाज सुनाई देती है और बिजली की स्पार्किंग की तरह प्रकाश दिखाई देता है इसी पूरी प्रक्रियाा को आकाशीय बिजली कहते हैं।
संभवत: अन्य किसी भी प्राकृतिक घटना ने इतना भय, रोमांच और आश्चर्य उत्पन्न नहीं किया होगा और न ही आज भी करती होगी, जितना तड़ितपात और बादलों की कड़क से उत्पन्न होता है। अनादि काल से संसार के प्राय: सभी देशों में यह विश्वास प्रचलित था कि तड़ित ईश्वर का दंड है, जिसका प्रहार वह उस प्राणी अथवा वस्तु पर करता है जिसके ऊपर वह कुपित हो जाता है। ग्रीक और रोमन देशवासी इसे भगवान जुपिटर का प्रहारदंड मानते थे। आज भी बहुत से लोग ऐसा ही समझते हैं।
विद्युत संबंधी जानकारियों में कुछ वृद्धि होने पर वैज्ञानिकों की यह धारणा बनी कि साधारण तौर पर तड़ित की घटना ठीक उसी प्रकार की होती है जैसा संघनित्र (condenser) को अनाविष्ट (discharge) करते समय उसके प्लेटों के बीच वायु में से होकर स्फुलिंगों का प्रवाह होता है। इस धारणा की पुष्टि करने के लिये प्रयोग करने का साहस किसी को नहीं होता था; किन्तु अन्त में बेंजामिन फ्रैंकलिन (Benjamin Franklin) की प्रेरणा से फ्रांस के दो वैज्ञानिकों, डालिबार्ड (Dalibard) और डेलॉर (Delor), ने प्रयोग करने का निश्चय किया। उन्होंने धातु के दो छड़ लिए। डालिबार्ड का छड़ ४० फुट तथा डेलॉर का छड़ ९९ फूट ऊँचा था। दोनों ही छड़ों से वे लगभग डेढ़ इंच लंबाई तक के स्फुलिंगों का विसर्जन करा सकने में सफल हुए। यह प्रयोग अत्यंत खतरनाक था और आगे चलकर एक अन्य वैज्ञानिक ने यही प्रयोग दोहराते समय अपने प्राणों से ही हाथ धोया था।
फिर भी उपर्युक्त प्रयोग से यह निश्चय न हो सका कि छड़ो में उत्पन्न विद्युत् बादलों से ही आई है, क्योंकि छड़ों की पहुँच बादलों तक नहीं थी। इसलिये बेंजामिन फ्रैंकलिन ने अपना पतंगवाला सुविख्यात प्रयोग किया। उसने एक पतंग उड़ाई और उसे बादलों के अंदर तक पहुँचाया। ज्योंहि पतंग की डोर भीगी, पतंग और डोर दोनों ही तन गए जिससे यह पता चला कि दोनों विद्युत् आवेश युक्त हो गए है। उस डोर में फ्रैंकलिन ने एक चाबी बाँध भी दी थी। चाभी के पास उँगली ले जाने से दोनों के चटचटाहट की आवाज के साथ स्फुलिंगों का विसर्जन हुआ। इतना ही नहीं, उस चाभी का स्पर्श लीडन जार (Leyden Jar) से कराकर उसने उसे आवेशित भी कर लिया। इससे यह निश्चित हो गया कि बादलों में भी विद्युत् होती है। इस विद्युत् के स्फुलिंग रूप में विसर्जन को ही "तड़ित' कहते हैं। यह विसर्जन बादल और बादल, अथवा बादल और पृथ्वी, के बीच हो सकता है।
तड़ित प्राय: कपासीवर्षी (cumulonimbus) मेघों में उत्पन्न होती है। इन मेघों में अत्यंत प्रबल ऊर्ध्वगामी पवनधाराएँ चलती हैं, जो लगभग ४०,००० फुट की ऊँचाई तक पहुँचती हैं। इनमें कुछ ऐसी क्रियाएँ होती हैं जिनके कारण इनमें विद्युत् आवेशों की उत्पत्ति तथा वियोजन होता रहता है।
इन क्रियाओं के स्पष्टीकरण के लिए विल्सन, सिंपसन, सक्रेज (Scrase) आदि ने अपने सिद्धांत प्रस्तुत किए हैं, जो परस्पर विरोधी जान पड़ते हैं, किंतु इतना तो सभी बतलाते हैं कि तड़ित की जननप्रक्रिया मेघों में होती है और इसके लिये उन मेघों में विद्यमान जलसीकर, अथवा हिमकण आदि अवक्षेपण कण (precipitation particles), ही उत्तरदायी होते हैं। बादलों में विद्युद्वितरण के संबंध में भी सभी एकमत हैं कि इनके ऊपरी स्तर धनाविष्ट तथा मध्य और निम्नस्तर ऋणाविष्टि होतें हैं। इन आवेशों का विभाजन मेघों के अंदर शून्य डिग्री सें॰ तापवाले स्तरों के भी काफी ऊपर होता है। इससे यह निष्कर्ष सहज ही प्राप्त होता है कि आवेशविभाजन मेघों में बनने वाले हिमकणों तथा ऊर्ध्वगामी पवनधाराओं से ही होता है, जल की बूँदों से नहीं। कभी-कभी निम्न स्तर में भी कहीं-कहीं धनावेशों का एक केंद्र सा बन जाता है।
बादलों के निम्न स्तरों पर ऋणवेश उत्पन्न हो जाने के कारण नीचे पृथ्वी के तल पर प्रेरण द्वारा धनावेश उत्पन्न हो जाते हैं। बादलों के आगे बढ़ने के साथ ही पृथ्वी पर के ये धनावेश भी ठीक उसी प्रकार आगे बढ़ते जाते हैं। ऋणावेशों के द्वारा आकर्षित होकर भूतल के धनावेश पृथ्वी पर खड़ी सुचालक या अर्धचालक वस्तुओं पर ऊपर तक चढ़ जाते हैं। इस विधि से जब मेघों का विद्युतीकरण इस सीमा तक पहुँच जाता है कि पड़ोसी आवेशकेंद्रों के बीच विभव प्रवणता (potential gradient) विभंग मान तक पहुँच जाती है, तब विद्युत् का विसर्जन दीर्घ स्फुलिंग के रूप में होता है। इसे तड़ित कहते हैं। पृथ्वी की ओर आनेवाली तड़ित कई क्रमों में होकर पहुँचती है। बादलों से इलेक्ट्रानों का एक हिल्लोल १ माइक्रो सेकंड (1x10E-६ सेकंड) में ५० मीटर नीचे आता है और रुक जाता है। लगभग ५० मा॰ से॰ के पश्चात् दूसरा क्रम आरंभ होता है और इसी प्रकार कई क्रमों में होकर अंत में यह तरंग पृथ्वी तक पहुँचती है। इसे प्रमुख आघात (Leader stroke) कहते हैं। अपने उद्गमस्थल से पृथ्वी तक पहुँचने में इसे कुल ०.००२ सेकंड तक का समय लगता है।
उपर्युक्त तथ्य शॉनलैंड (Schonland) तथा उनके सहयोगियों द्वारा अत्यंत सुग्राही कैमरे की सहायता से लिए गए फोटो चित्र से प्रकट हुए थे। उसी फोटो पट्टिका पर यह भी दिखलाई पड़ा कि प्रमुख क्रम (step leader) के पृथ्वी पर पहुँचने के क्षण ही एक अत्यंत तीक्षण ज्योति पृथ्वी से मेघों की ओर उन्हीं क्रमों में होकर गई जिनसे होकर प्रमुख क्रम आया था। इसे प्रतिगामी आपात (Return stroke) कहते हैं। जहाँ प्रमुख क्रम का औसत वेग १०५ मीटर प्रति सेकंड होता है वहीं प्रतिगामी आधात (return stroke) का वेग १०७ मीटर प्रति सेकंड होता है, क्योंकि उसका मार्ग पहले से ही आयनित (ionized) होने के कारण प्रशस्त रहता है।
उपर्युक्त प्रमुख और प्रतिगामी आघातों के बाद भी कई आघात क्रमश:- नीचे और ऊपर की ओर आते-जाते दिखलाई पड़ते हैं। ये द्वितीयक आघात (Secondary strokes) कहलाते हैं। नीचे आने वाले ये द्वितीयक आघत प्रमुख आघात की भाँति क्रमों में नहीं आते।
सी॰एफ॰ वाग्नर (C.F. Wagner) और जी॰ डी॰ मैककैन (G. D. Mc. Cann) ने बतलाया है कि बादलों के विभव प्राय: दो करोड़ वोल्ट की कोटि के होते है। सिंपसन और स्क्रेज ने प्रयोगों द्वारा यह निष्कर्ष प्राप्त किया कि १०,००० फुट की ऊँचाई पर स्थित बादलों के विभव का प्राय: ५० से १०० वोल्ट प्रति सेंमी॰ की दर से पतन होता है। तड़ित प्रक्रिया के बीच में विद्युद्धारा का मान दो लाख से पंद्रह हजार एंपियर के बीच रहता है। इस प्रचंड धारा के कारण तड़ित के पथ में विद्यपान वायु के अणु और परमाणु आयनित हो जाते हैं और प्रकाश उत्पन्न करते हैं। यही चमक हमें दामिनी के रूप में दिखलाई पड़ती है।
यह स्पष्ट है कि वायु से होकर बादलों और पृथ्वी के बीच विद्युद्विसर्जन वहीं अधिक संभाव्य होगा जहाँ विद्युत् को वायु का प्रतिरोध कम से कम पार करना पड़ेगा। इसलिये ऊँची मीनारों, ऊँचे भवनों, एकाकी वृक्ष (चाहे मैदान में हो या पहाड़ी पर) तथा पताकादंड इत्यादि पर तड़ितपात अधिकतर होता है इसका एक कारण यह भी है कि कोई वस्तु बादल से जितनी अधिक निकट होगी, उसपर उतना ही अधिक प्ररित आवेश उत्पन्न होगा। इसके अतिरिक्त सपाट मैदान की अपेक्षा मीनारों, वृक्षों की चोटियों आदि के नुकीले होने के कारण उन पर विद्युत आवेश अधिक मात्रा में एकत्र होता है।
तड़िताघातजनित विद्युद्धारा एकदिश होती है। आघात के लगभाग पाँच माइक्रोसेकंड की अवधि में ही इसका मान घातीय (exponential) क्रम से बढ़ता हुआ अधिकतम हो जाता है और लगभग २५ माइक्रोसेकंड के अंदर घटकर आधा मात्र रह जाता है। यह प्रबल धारा प्राय: १०० माइक्रोसेकंड तक रहती है। इसके पश्चात् क्रमश: घटती हुई कुछ सहस्त्र एंपियर तक पहुँच जाती है और कुछ सहस्राशं सेकंड (मिलिसेकंड) तक ऐसी ही बनी रहती है। यदि तड़िताघात की पुनरावृति नहीं हुई तो कम होते होते यह धारा निशेष हो जाती है।
सामान्यतया तड़ित तीन प्रकार की होती है:
(१) विस्तृत (Sheet) तड़ित काफी विस्तृत क्षेत्र पर होती है और इसका अविरल प्रकाश बादलों पर काफी दूर तक फैल जाता है।
(2) धारीदार या रेखावर्ण (Streak) तड़ित अक्सर दिखलाई पड़ती है। इसमें एक या अधिक प्रकाशरेखाएँ, सीधी या टेढ़ी इधर-उधर दौड़ती हुई दृष्टिगोचर होती हैं। इसमें विद्युद्विसर्जन बादल से बादल में, बादल से धरती में अथवा बादल से वायुमंडल के बीच होता। यह तड़ित स्वयं तीन प्रकार की हो सकती:
(३) कंदुक (Ball) तड़ित एक ज्योतिर्मय गेंद की भाँति पृथ्वी की और आती हुई दिखलाई पड़ती है। इसका औसत व्यास २० सें॰मी॰ होता है। ज्यों-ज्यों वह पृथ्वी की ओर अग्रसर होती है, इसका वेग घटता जाता है। लगभग तीन से पाँच सेकंड तक दिखलाई पड़ने के उपरांत वह अत्यंत प्रचंड ध्वनि के साथ विस्फोटित हो जाती है। यह बहुत ही कम दिखलाई पड़ती है और इसकी उत्पत्ति का कारण अज्ञात है।
भवनों को तड़ित के सीधे आघात से बचाने के लिये बेंजामिन फ्रैंकलिन द्वारा विकसित तड़ित दंड (Lightning rod) व्यवस्था सर्वाधिक श्रेष्ठ है। लोहे का एक छड़, जिसका ऊपरी सिरा भाले की भाँति नुकीला होता है और भवन के काफी ऊपर तक निकला रहता है, भवन के पार्श्व से होता हुआ भूमि के अंदर काफी गहराई तक गड़ा रहता है। निचला सिरा भूमि में ताँबे की एक पट्टिका में लगा होता है। यह तड़ित दंड बादल में विद्यमान तड़ित के लिए न्यूनतम प्रतिरोध का मार्ग ही नहीं प्रशस्त करता, बल्कि यह भवन पर उत्पन्न प्रेरित विद्युत आवेशों को तत्काल पृथ्वी के अंदर पहुँचा देता है। इस प्रकार यह बादलों और भवन के बीच आवेशों के पारस्परिक आकर्षण की संभावना भी पर्याप्त घटा देता है। अतीत से ही विद्युत् झंझाओं के दिनों में, नाविक अपने जलयानों के मस्तूलों से इस प्रकार बादलों के विद्युत् का क्षरण देखते चले आ रहे हैं। यह क्षरण रात को अधिक स्पष्ट दिखलाई पड़ता है। इसे यूरोपीय नाविक संत एल्मो की अग्नि (St. Elmo's Fire) कहते हैं।
आजकल तड़ितनियंत्रण संबंधी अनेक प्रयोग किए जा रहे हैं। एक मनोरंजक प्रयोग मोटरकार में एक व्यक्ति को बैठाकर और उस मोटर पर कृत्रिम तड़ित ऊपर से नीचे की ओर भेजकर किया गया। चूँकि तड़ित में विद्यमान इलेक्ट्रानों में, समान आवेशयुक्त होने के कारण, परस्पर विकर्षण होता है, इसलिये मोटरकार की छत पर गिरते ही वे बिखर गए और उसकी दीवारों से होते हुए नीचे पृथ्वी में चले गए। इससे मोटर के अंदर उनकी पैठ न हो सकी और वह व्यक्ति सर्वथा सुरक्षित रह गया। इस प्रयोग से यह निश्चय हो जाता है कि आधुनिक धातु के ढाँचेवाले भवनों में, जिनकी नींव काफी गहरी होती है, बैठा हुआ व्यक्ति तड़ित के प्रहार से अत्यंत निरापद होता है। यदि ऐसे भवन, अथवा तड़ितचालकयुक्त भवन, न मिल सकें तो ऐसे विशाल भवन में आश्रय लेना चाहिए जो काफी विस्तृत हो। तड़ितयुक्त आँधी तूफान के समय अँगीठियों (fire places), स्टोव तथा विद्युत के अन्य सुचालकों से स्वयं को यथाशक्ति दूर ही रखना चाहिए। बाहर रहनेवालों को पहाड़ियों के ऊपर, पुआल इत्यादि के ढेर पर, एकाकी वृक्षों के नीचे, पताकादंडों (flag poles) के पास, अथवा किसी प्रकार की धातुनिर्मित वस्तु के समीप, कभी न रहना चाहिए, न धातु से बनी किसी वस्तु को ही हाथ में लिए रहना चाहिए। पहाड़ों की कंदराओं में, घने वनों अथवा किसी ढालू पहाड़ी के नीचे रहना सर्वथा निरापद होता है।
यह ऐसी व्यवस्था होती है जिसमें अपने ऊपर आरोपित विभव को तत्क्षण घटा देने का विशेष गुण होता है। साथ ही यह अपने अंदर से प्रवाहित होने वाली तड़ितधारा की प्रबलता में वृद्धि को रोकता है। इसमें साधारणत: एक आंतर व्यवस्था (gap arrangement) होती है, जो एक प्रतिरोधक (resister) से श्रेणीक्रम में संबद्ध होती है। इसका प्रतिरोध इसमें प्रवाहित विद्युतद्धारा के मान में वृद्धि होने के साथ घटता है। अंतर युक्ति (gap device) का कार्य यह होता है कि वह अरैखिक प्रतिरोधक (nonlinear resistor) को प्रत्यावर्ती धारा के शक्तिपरिपथ (A.C. power circuit) से स्थूलत: पृथक् रखती है। इन दोनों में संपर्क तभी हो पाता है जब इतना ऊँचा विभव उत्पन्न हो जाता है जो खाली स्थान (gap) की वायु को भी सुचालक बना देता है। इस प्रकार तड़ित धारा प्रत्यावर्ती धारा के शक्ति परिपथ को क्षति पहुँचाए बिना निरोधक (arrester) से होकर पृथ्वी के अंदर सकुशल पहुँचाती है।
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