Loading AI tools
विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
कौषीतकि उपनिषद् का पूरा नाम कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् है। यह एक ऋग्वेदीय उपनिषद है। यह ॠग्वेद के कौषीतकि ब्राह्मण का अंश है। इसमें कुल चार अध्याय हैं। इस उपनिषद में जीवात्मा और ब्रह्मलोक, प्राणोपासना, अग्निहोत्र, विविध उपासनाएं, प्राणतत्व की महिमा तथा सूर्य, चन्द्र, विद्युत मेघ, आकाश, वायु, अग्नि, जल, दर्पण और प्रतिध्वनि में विद्यमान चैतन्य तत्व की उपासना पर प्रकाश डाला गया है। अन्त में 'आत्मतत्त्व' के स्वरूप और उसकी उपासना से प्राप्त फल पर विचार किया गया है।
कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद | |
---|---|
मूलतत्त्व और आधार | |
आधार |
शुक्ल यजुर्वेदीय उपनिषद |
प्रथम अध्याय में गौतम ऋषि (उद्दालक) एवं गर्ग ऋषि के प्रपौत्र चित्र के संवादों द्वारा 'ब्रह्मज्ञान' के लिए किये जाने वाले अग्निहोत्र तथा उसकी फलश्रुति पर प्रकाश डाला गया है। जब मृत्यु के उपरान्त साधक ब्रह्मलोक पहुंचता हैं, तो उसका सामना अप्सराओं और एक विचित्र पंलग (पर्यंक) पर बैठे ब्रह्माजी से होता है। वह उनसे बातें करता है। इस वार्तालाप को 'पर्यंक-विद्या' भी कहते हैं। गर्ग ऋषि के प्रपौत्र, महर्षि चित्र, यज्ञ करने का निश्चय करके अरुण के पुत्र महात्मा उद्दालक (गौतम) को प्रधान ऋत्विक के रूप में आमन्त्रित करते हैं, परन्तु मुनि उद्दालक स्वयं न जाकर अपने पुत्र श्वेतकेतु को यज्ञ सम्पन्न कराने के लिए भेज देते हैं। श्वेतकेतु अपने पिता की आज्ञानुसार वहां पहुंचकर एक ऊंचे आसन पर विराजमान होते हैं। तब चित्र उससे प्रश्न करता है-'हे गौतमकुमार! इस लोक में कोई ऐसा आवरणयुक्त स्थान है, जहां तुम मुझे ले जाकर रख सकते हो या फिर उसमें भी कोई ऐसा सर्वथा पृथक् और विलक्षण आवरण से शून्य पद है, जिसको जानकर तुम उसी लोक में मुझे प्रतिष्ठित कर सकते हो?'
ऐसा कहकर श्वेतकेतु यज्ञ का आसन छोड़कर चले गये और अपने पिता से प्रश्न किया-'हे पिताश्री! महर्षि चित्र ने जो प्रश्न मुझसे किया है, उसका उत्तर में कैसे दूं?' श्वेतकेतु ने चित्र का प्रश्न अपने पिता के सामने दोहरा दिया। तब उद्दालक ऋषि ने कहा-'पुत्र! मैं भी इसका उत्तर नहीं जानता। हम दोनों महर्षि चित्र की यज्ञशाला में चलकर व इसका अध्ययन करके ही इस विद्या को प्राप्त करेंगे।'
तदनन्तर दोनों पिता-पुत्र प्रसिद्ध आरूणि मुनि के हाथ से समिधा ग्रहण करके जिज्ञासु-भाव से महर्षि चित्र के पास गये और कहा कि वे विद्या-प्राप्ति हेतु उनके पास आये हैं। चित्र ने कहा-'हे गौतम! आप ब्राह्मणों में अति पूजनीय हैं और ब्रह्मविद्या के अधिकारी है; क्योंकि मेरे पास आते हुए आपके मन में अपनी श्रेष्ठता का तनिक-भी अभिमान नहीं है। मैं निश्चय ही आपको इसका बोध कराऊंगा।'
महर्षि चित्र ने कहा-'हे विप्रवर! जो व्यक्ति अग्निहोत्रादि सत्कार्यों का अनुष्ठान करने वाले हैं, वे सभी इस लोक से चन्द्रलोक, अर्थात स्वर्गलोक की ओर गमन करते हैं, लेकिन जो व्यक्ति स्वर्गीय सुख के प्रति आसक्त होकर चन्द्रलोक स्वीकार कर लेता है, उसके सभी पुण्य नष्ट हो जाते हैं और वह पुन: इस धरती पर वापस आ गिरता है, अर्थात उसका फिर से पुनर्जन्म हो जात है। उसे मोक्ष नहीं मिल पाता।'
महर्षि चित्र के ऐसा कहने पर गौतम मुनि ने फिर पूछा-'हे भगवन! मुझे बतायें कि मैं कौन हूँ? मुझे इस भवसागर से पार होने का वह उपाय बतायें, जिससे मैं समस्त भव-बन्धनों से मुक्त हो सकूं?'
महर्षि चित्र ने कहा-'हे गौतम! देवयान मार्ग से जाने वाला साधक क्रमश: अग्निलोक, वायुलोक, सूर्यलोक, वरुणलोक, इन्द्रलोक व प्रजापतिलोक आदि छह लोकों में से होता हुआ 'ब्रह्मलोक' में प्रवेश कर पाता है। 'ब्रह्मलोक' के प्रवेश द्वार पर 'अर' नाम का एक बड़ा जलाशय है। यह जलाशय काम, क्रोध, मोह आदि शत्रुओं द्वारा निर्तित है। यहां पल-भर का भी अहंकार और काम, क्रोध, लोभ आदि का बन्धन, साधक के सभी पुण्यों को नष्ट कर डालता है। 'इष्ट' की प्राप्ति में यह जलाशय सबसे बड़ी बाधा है, परन्तु जो इसे पार कर लेता है, वह फिर से पावन विरजा नदी के किनारे पहुंच जाता है। उसका समस्त श्रम और वृद्धावस्था, विरजा नदी के दर्शन मात्र से ही दूर हो जाते हैं। उसमें आगे 'इल्य' नामक वृक्ष (पृथिवी का एक नाम इला भी है) आता है। यहीं पर अनेक देवताओं के सुन्दर उपवनों, उद्यानों, बावली, कूप, सरोवर, नदी और जलाशय आदि से युक्त नगर है, जो विरजा नदी और अर्धचन्द्राकार परकोटे से घिरा है। ये सभी मन को बार-बार मोहने के लिए सामने आते हैं, किन्तु जो साधक इनमें लिप्त न होकर आगे बढ़ जाता है, उसे सामने ही ब्रह्मा जी का एक विशाल देवालय दिखाई पड़ता है। इस देवालय का नाम 'अपराजिता' है। सूर्य की प्रखर रश्मियों से युक्त होने के कारण इसे विजित करना अत्यन्त कठिन है। इसकी रक्षा मेघ, यज्ञ से उपलक्षित वायु तथा आकाश-स्वरूप इन्द्र एवं प्रजापति द्वारा की जाती है, परन्तु जो उन्हें पराजित कर लेता है, वह ब्रह्मलोक में प्रवेश कर जाता है। वहां एक विशाल वैभव-सम्पन्न सभा-मण्डप के मध्य 'विचक्षणा' (अध्यात्मिक) नामक वेदी (चबूतरा) पर सर्वशक्तिमान प्राणस्वरूप ब्रह्मा जी एक अति सुन्दर सिंहासन (पंलग) पर विराजमान दिखाई पड़ते हैं। विश्व जननी अम्बा और अम्बवयवी नामक अप्सराएं उनकी सेवा में रत हैं, जो ब्रह्मवेत्ता साधक का स्वागत करती हैं और उसे अलंकृत करके ब्रह्मा जी के सम्मुख उपस्थित करती हैं।'
इस उपनिषद में एक अत्यन्त सुन्दर रूपक बांधकर देवयान मार्ग से ब्रह्मलोक तक पहुंचने का मार्ग दिखाया गया है। यहीं पर ऋषि कहता है कि रथ में बैठकर यात्रा करने वाला पुरुष, जिस प्रकार रथ के पहियों को दौड़ते हुए तो देखता है, परन्तु वह पहियों की गति के भूमि से होने वाले संयोग को नहीं देख पाता। इसी प्रकार ब्रह्मलोक की यात्रा करने वाला साधक रथ पर बैठकर दिन और रात को तो देखता है, काल की गति को भी देखता है, पाप-पुण्य को भी देखता है, परन्तु वह उनमें लिप्त नहीं होता। वह उनसे दूर रहकर ही 'ब्रह्म' को प्राप्त करता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार उसके मार्ग के बाधक नहीं बनता।
महर्षि चित्र आगे बताते हैं-'हे गौतम! ब्रह्मवेत्ता बन साधक अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों में ब्रह्मगन्ध, ब्रह्मरस, ब्रह्मतेज, ब्रह्मयश तथा ब्रह्मनाद का अनुभव करता है। तब ब्रह्मा जी उस ब्रह्मज्ञानी से प्रश्न करते हैं-'तुम कौन हो?' उस समय ब्रह्मा जी द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर ब्रह्मज्ञानी को इस प्रकार देना चाहिए—
प्र.-'नपुंसकवाची नामों को किससे ग्रहण करते हो?' उ.-'मन से।' प्र.-'गन्ध का अनुभव किससे करते हो?' उ.-'प्राण से- घ्राणेन्द्रिय से।' प्र.–'रूपों को किससे ग्रहण करते हो?' उ.-'नेत्रों से।' प्र.-'शब्दों को किससे सुनते हो?' उ.-'कानों से।' प्र.-'अन्न का आस्वादन किससे करते हो?' उ.-'जिह्वा से।' प्र.-'कर्म किससे करते हो?' उ.-'हाथों से।' प्र.-'सुख-दु:ख का अनुभव किससे करते हो?' उ.-'शरीर से।' प्र.-'रति का आनन्द एवं प्रजोत्पत्ति का सुख किससे उठाते हो?' उ.-'उपस्थ से, अर्थात इन्द्री से।' प्र.-'गमन-क्रिया किससे करते हो?' उ.-'दोनों पैरों से।' प्र.-'बुद्धि-वृत्तियों को, ज्ञातव्य विषयों को और मनोरथों को किससे ग्रहण करते हो?' उ.-'प्रज्ञा से।'
इस प्रकार ब्रह्मा जी के सभी प्रश्नों का उत्तर देने के उपरान्त स्वयं ब्रह्मा जी साधक से कहते हैं कि 'जल' आदि प्रसिद्ध पांच महाभूत मेरे स्थान हैं। अत: यह मेरा लोक भी जल आदि तत्त्व द्वारा प्रधान है। तुम मुझसे अभिन्न मेरे उपासक हो। अत: यह तुम्हारा भी लोक है।'
इस प्रकार वह साधक ब्रह्मा की 'जिति' (विजय प्राप्त करने की शक्ति) और 'व्यष्टि' (सर्वव्यापक शक्ति), दोनों को प्राप्त कर लेता है।'
महर्षि चित्र ने इस प्रकार 'ब्रह्मज्ञान' का उपदेश देकर गौतम ऋषि को अभिभूत किया। ऋषि गौतम अपने पुत्र श्वेतकेतु के साथ महर्षि चित्र को प्रणाम करके वापस लौट गये।
इस अध्याय में 'प्राणतत्त्व' की उपासना और 'ब्रह्मविद्या' के व्यावहारिक पक्ष पर प्रकाश डाला गया है। इसके अतिरिक्त अपने पापों को नष्ट करने के लिए 'सूर्योपासना' पुत्र की कुशल-मंगल कामना और सुरक्षा के लिए, 'चन्द्रोपासना,' अच्छे स्वास्थ्य के लिए 'सोमोपासना,'मोक्ष-प्राप्ति के लिए 'प्राणोंपासना' तथा पुत्र को अपने सम्पूर्ण जीवन का दायित्व-भार सौंपते समय 'सम्प्रदान कर्म' का बड़ा ही सांगोपांग वर्णन किया है।
प्राणतत्त्व की उपासना
इस अध्याय में 'प्राण' को ही 'ब्रह्म' का रूप माना है। प्राण की कल्पना राजा के रूप में की गयी है। 'मन' उसका दूत है, 'वाणी' उसकी रानी है, 'चक्षु' उसकी सुरक्षा करने वाले मन्त्री हैं, 'कर्णेन्द्रिय' सन्देश ग्रहण करने वाले द्वारपाल हैं। प्राण के आते ही समस्त इन्द्रियों की सेवा प्राण-रूपी राजा को स्वत: ही प्राप्त हो जाती है। सुप्रसिद्ध महात्मा शुष्कभृंगार 'प्राण' को ही ब्रह्म का रूप स्वीकार करते हैं। अत: प्राण की उपासना ही इष्ट सिद्धियों को देने वाली है। जीवन में श्रेष्ठता, सुख-समृद्धि, यश, तेजस्विता तथा ज्ञान प्राणोपासना द्वारा हो सकता है।
सूर्योपासना
कौषीतकि ऋषि ने अपने अनुभव से सूर्योपासना तीन बार-प्रात:काल, मध्याह्नकाल और सांयकाल- करने की बात कही है। उन्होंने कहा है कि प्रात:काल यज्ञोपवीत को सव्य भाव से बाएं कन्धे पर रखकर आचमन करें। फिर जलपात्र को तीन बार शुद्ध जल से भरकर, उदय होते हुए सूर्य को अर्घ्य प्रदान करें और इस मन्त्र का उच्चारण करें—'ॐ वर्गोऽसि पाप्मानं मे वृडधि।'[1] इस प्रकार मध्याह्नकाल में, भगवान भास्कर को स्मरण करें और इस मन्त्र का उच्चारण करें-'ॐ उद्वर्गोऽसि पाप्मानं में संवृडधि।'[2] इसी प्रकार सांयकाल में, अस्त होते हुए सूर्य की उपासना करें और इस मन्त्र का उच्चारण करें- 'ॐ संवर्गोऽसि पाप्मानं मे संवृडधि।'[3] इस प्रकार सूर्योपासना करने से मनुष्य के दिन-रात के सारे पापों का शमन हो जाता है, पाप कर्म न करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है।
चन्द्रोपासना
अमावस्या में, जब सूर्य पश्चिम भाग में स्थित हो तथा चन्द्रमा सुषुम्ना नामक रश्मि में चन्द्रमा स्थित हो, तब इस विधि से चन्द्रोपासना करनी चाहिए। अर्घ्य देने वाले पात्र में दो हरी दूर्वा के अंकुर भी अवश्य रख लें। तब अर्घ्य देते हुए इस मन्त्र का उच्चारण करें-'यत्ते सुसीमं हृदयमधि चन्द्रमसिश्रितं तेनामृतत्वस्येशाने माऽहं पौत्रमद्यं रूदम्।'[4] इस प्रकार की प्रार्थना से उपासक पुत्र शोक से बचा रहता है तथा पुत्र न होने की स्थिति में पुत्र-रत्न प्राप्त कर लेता है।
सोमोपासना
ऋषि ने सोमोपासना को स्वस्थ शरीर का कारण माना है। वह सोम से प्रार्थना करता है-'हे स्त्री-रूपी सोम! तुम पुरुष-रूपी सूर्य के प्रकाश से विकास को प्राप्त हो। तुम सभी ओर से अन्न की प्राप्ति में सहायक बनो। हे सोम! तुम सौम्य गुणों से युक्त हो। तुम्हारा दिव्य रस सूर्य के तेज को प्राप्त करके पुरुष मात्र के लिए अत्यन्त हितकारी हो जाता है। तुम इस दिव्य रस का सेवन करने वाले पुरुषों को पुष्टि दो और उनके सभी शत्रुओं का पराभव कराने में पूरी तरह से सहायक बनो। हे सोम! तुम आग्नेय तेज से प्रसन्नता को प्राप्त करते हुए, अमृत्व की प्राप्ति में सहयोग प्रदान करो और स्वयं अपने यश को स्वर्गलोक में स्थिर करो। हे सोम! मैं तुम्हारी ही गति का अनुगमन करते हुए अपनी दाहिनी भुजा को बार-बार घुमाता हूं।' ऋषि ने सोम को पांच मुख वाला प्रजापति कहा है। उसका एक मुख 'ब्राह्मण' है, दूसरा मुख 'क्षत्रिय' हैं, तीसरा मुख 'बाज' पक्षी है, चौथा मुख 'अग्नि' है। और पांचवां मुख तुम 'स्वयं' हो। इस प्रकार सोम की प्रार्थना करने के उपरान्त गर्भाधान के लिए तत्पर स्त्री के पास बैठने से पहले उसके हृदय का स्पर्श करें और इस मन्त्र का पाठ करें—'यत्ते सुमीमे हृदये हितमन्त: प्रजापतौ मन्येऽहं मां तद्विद्वांसं तेन माऽहं पौत्रमधं रूदम्।'[5] इस प्रकार की गयी प्रार्थना से साधक को कभी पुत्र शोक नही झेलना पड़ता। ऋषि का संकेत उस माता की ओर है, जो अपना दूध अपनी सन्तान को पिलाती है। उसके दूध में सोमरस-जैसी रक्षात्मक शक्ति विद्यमान होती है। उसी से बालक स्वस्थ रहता है। माता का दूध बालक के लिए नैसर्गिक प्रक्रिया है। प्रकृति का विरोध अनेकानेक भयानक परिणामों का कारण बन जाता है।
मोक्ष हेतु प्राणोपासना
मोक्ष के लिए प्राणतत्त्व की उपासना के सन्दर्भ में, ऋषि ने एक सुन्दर रूपक द्वारा प्राणों के महत्व को दर्शाया है। एक समय वाणी आदि समस्त देवता अहंकार के वशीभूत होकर अपनी-अपनी महत्त सिद्ध करने के लिए परस्पर विवाद करने लगे। प्राण के साथ सभी ने शरीर से बहिर्गमन कर दिया। उनके निकल जाने से शरीर काष्ठ की भांति चेतना-रहित होकर सो गया। 'वाणी' ने अपना वर्चस्व सिद्ध करने के लिए शरीर में अकेले ही प्रवेश किया। वाणी के प्रवेश करते ही शरीर वाणी से बोलने लगा, लेकिन वह अपने स्थान से उठ नहीं सका। इसके बाद 'नेत्रेन्द्रिय' देवता ने शरीर में प्रवेश किया। तब वह वाणी से बोलने और नेत्रों से देखने लगा, परन्तु इस बार भी वह उठ नहीं सका। फिर 'श्रोतेन्दिय' देवता ने शरीर में प्रवेश किया। वह सुनने लगा, बोलने भी लगा और देखने भी लगा। लेकिन इस बार भी वह उठ नहीं सका, निश्चेष्ट ही पड़ा रहा। तत्पश्चात् उस शरीर में 'मन' ने प्रवेश किया। मन के द्वारा वह सोचने योग्य तो हो गया, पर इस बार भी वह उठ नहीं सका। तब सबसे अन्त में 'प्राण' ने उस शरीर में प्रवेश किया। उस प्राणतत्त्व के प्रवेश करते ही वह शरीर उठकर बैठ गया। इससे प्राणों का महत्त्व सर्वोपरि सिद्ध हो गयां सभी अन्य इन्द्रियों ने प्राण में ही, मोक्ष आदि साधना की शक्ति को स्वीकार किया। उन्होंने जाना कि प्राणों के द्वारा ही अमृत्व गुण को प्राप्त किया जा सकता है और यह शरीर ऊपर उठकर स्वर्गलोक की ओर जा सकता है। प्राणों के द्वारा ही, शरीर की समस्त चेतनाएं और इन्द्रियां कार्य करती हैं। अत: प्राणों की उपासना द्वारा ही ब्रह्म से संयोग का कारण बनता है। प्राणों के द्वारा ही विशिष्ट ज्ञान-स्वरूप परब्रह्म को प्राप्त किया जा सकता है।
पिता द्वारा सम्प्रदान-कर्म (उत्तराधिकार देना) करना
इस अध्याय में पिता द्वारा अपने पुत्र को उत्तराधिकारी बनाने की प्रक्रिया का सांगोपांग उल्लेख किया गया है। ऋषि का कहना है कि अपना अन्तिम समय आया जानकर, पिता को अपने सम्पूर्ण उत्तरदायित्वों से मुक्त हो जाना चाहिए और जो कुछ भी उसके पास है, उसे अपने पुत्र को सौंप देना चाहिए। पुत्र को भी अपने पिता द्वारा छोड़े गये दायित्व को सहर्ष स्वीकार कर लेना चाहिए। पिता को चाहिए कि शुभ्र वस्त्र धारण करके अपने पुत्र को अपने पास बुलाये और उससे कहे-'हे पुत्र! मैं तुम्हें अपनी वाक शक्ति, अपने प्राण, अपने नेत्र, अपने कान, अपने रसास्वादन, अपने समस्त श्रेष्ठ कर्म, अपने सुख-दु:ख, अपनी मैथुनजन्य शक्ति तथा रति-सुख, अपनी गतिशीलता, अपनी समस्त इच्छाएं, अपनी बुद्धि, अपना यश, ब्रह्मतेज औ अपना श्रेष्ठ स्वास्थ्य तथा अन्न को पचाने की शक्ति आदि सभी सद्गुण प्रदान करता हूं या तुम्हारे भीतर प्रतिष्ठित करता हूँ।' पिता द्वारा ऐसा कहने पर पुत्र विनम्रता से उन्हें स्वीकार करे और अपने बाएं कन्धे की ओर दृष्टि करके हाथ से ओट करके कहे-'पिताश्री! आप अपनी इच्छानुसार कामनायुक्त स्वर्ग को तथा वहां के समस्त भोगों को प्राप्त करें।' इसके उपरान्त, यदि पिता निरोग हो, तो वह अपने पुत्र को घर का स्वामी बनाकर अथवा मानकर उसके साथ निवास करे या फिर सभी कुछ त्यागकर व घर छोड़कर संन्यास का जीवन बिताये। ऐसा पिता उचित समय के आने पर दिव्यलोक को गमन करने वाला होता है। वास्तव में उत्तराधिकार का सही नियम यही है।
इस अध्याय में ऋषि ने प्राण, प्रज्ञा और इन्द्रियों का विषद वर्णन करते हुए उनके पारस्परिक सम्बन्धों का विश्लेषण किया है। इसके लिए संवाद-शैली का सहारा लिया गया है। यहां इन्द्र और दिवोदास राजा के पुत्र प्रतर्दन के पारस्परिक संवादों द्वारा प्राण को प्रज्ञा का स्वरूप बताया है और कहा है कि इस प्रज्ञा से ही लोकहित सम्भव है।
एक बार देवासुर संग्राम में, देवाताओं की सहायता के लिए राजा दिवोदास के पुत्र प्रतर्दन स्वर्गलोक गये थे। वहां उनकी अद्वितीय युद्धकला एवं शौर्य से प्रसन्न होकर इन्द्र ने उन्हें वरदान देना चाहा था। इस पर प्रतर्दन ने कहा-'हे देवराज! जिस श्रेष्ठ वर को आप मानव-जाति के लिए परम कल्याणयुक्त मानते हों, वैसा ही कोई श्रेष्ठ वर आप स्वयं ही मुझे प्रदान करें।'
प्रतर्दन की बात सुनकर देवराज इन्द्र ने कहा-'राजन! इस संसार में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है, जो दूसरों के सुख के लिए वर मांगता हो। आप कोई ऐसा वर मांगें, जो आपके अपने लिए हो?'
इस पर प्रतर्दन ने कोई भी वर ग्रहण करने से इंकार कर दिया। राजा प्रतर्दन को सत्य का आरूढ़ देखकर देवराज इन्द्र ने कहा-'हे राजन! तुम मुझे ही, मेरे यथार्थ रूप को जानो? यही मानव-जाति के लिए श्रेष्ठ वरदान है।'
देवराज के इस कथन में प्रतर्दन ने पहचाना कि इन्द्र ने न जाने कितने पथभ्रष्ट असुरों और ऋषि-मुनियों को दण्ड दिया, पर अहंकारविहीन और निष्कामी होने के कारण इन्द्र का बाल भी बांका नहीं हुआ। तब उसने समझा कि निष्काम कर्म करते हुए और अहंकार का सर्वथा त्याग करते हुए, जो जीवन जिया जाता है, वह मानव-कल्याण के लिए ही होता है। अत: लोक-कल्याणकारी व्यक्ति के लिए निरभिमानी और निष्काम कर्मी होना परम आवश्यक है। ऐसा व्यक्ति ही इन्द्र, अर्थात प्रज्ञा-रूपी प्राण-तत्त्व के यथार्थ स्वरूप को प्राप्तज कर सकता है और बड़े-से-बड़ा पापकर्म भी उसे प्रभावित नहीं कर सकता। यदि दैविक प्रवृत्तियों की रक्षा के लिए किसी आततायी व्यक्ति का वध भी करना पड़े, तो उसका भी पाप नहीं लगता।
देवराज इन्द्र ने प्रतर्दन को उपदेश देते हुए कहा कि जो भी मेरे सत्य स्वरूप को पहचान जाता है, उसे कभी पाप नहीं लगता; क्योंकि, 'मैं स्वयं ही प्रज्ञा-स्वरूप प्राण हूं।'[6] इन्द्र आगे कहता है कि उस प्राण तथा श्रेष्ठ ज्ञान से युक्त आत्मस्वरूप के रूप में प्रख्यात, मुझ इन्द्र की, तुम आयु औ अमृत-रूप से उपासना करो। वह स्पष्ट करता है कि आयु ही प्राण है, प्राण ही आयु है और प्राण ही अमृततत्व है। इस शरीर में जब तक प्राण है, तभी तक आयु है। इस प्राणतत्त्व के द्वारा ही साधक दूसरे लोक में जाकर अमृततत्त्व के विशेष सुख को प्राप्त करता है। जो व्यक्ति 'आयु' और 'अमृत' के रूप में इन्द्र की उपासना करता है, वह इस लोक में पूर्णायु को प्राप्त करता है और स्वर्ग के सुखों का पान करता है। शरीर में प्राण का महत्त्व ही सर्वोपरि है। यदि प्राण के रहते शरीर का कोई अंग नष्ट हो जाये, तो भी शरीर जीवित रहता है, परन्तु प्राण के न रहने पर, एक क्षण भी शरीर का जीवित रहना असम्भव है। क्रिया शक्ति का बोध कराने वाला प्राण ही है। प्राण ही ज्ञान में प्रवृत्ति होने की शक्ति देता है। इसे ही 'प्रज्ञा-स्वरूप प्राण' अथवा 'आत्मा' कहा गया है। अत: जीवन के उत्थान के लिए प्रज्ञा-स्वरूप इस प्राण की ही उपासना करनी चाहिए। शरीर में प्रज्ञा और प्राण, दोनों साथ-साथ निवास करते हैं तथा जीवात्मा के साथ मिलकर एक साथ ही इस शरीर को छोड़ते हैं। प्राणमय परब्रह्म का यही दर्शन (ज्ञान) है और यही विज्ञान है। इसी की उपासना जन-कल्याण का मुख्य स्रोत है।
सुषुप्त अवस्था में, जब मनुष्य सोया हुआ होता है, तब सभी इन्द्रियां और ज्ञान, प्राण में समाहित हो जाते हैं। लेकिन जब वह जागता है, तब सभी प्रकार का ज्ञान, प्राण से निकलकर अपनी-अपनी इन्द्रियों में समा जाता है और सुषुप्त इन्द्रियां सजग हो जाती हैं। इसे उपनिषद में मरणासन्न व्यक्ति के उदाहरण से समझाया है। एक व्यक्ति, जो मरणासन्न अवस्था में है, उसकी समस्त चेतना शक्ति इन्द्रियों का साथ छोड़कर प्राण में समा जाती है। उस समय वह न तो सुनता है, न देखता है, न बोलता है, ने हाथ-पैर हिला पाता है, न उसका मस्तिष्क ही काम करता है। यही स्थिति ध्यानस्थ योगी की होती है। परन्तु जब वह मरणासन्न व्यक्ति रोगों से छुटकारा पाकर पुन: जीवित हो उठता है अथवा वह ध्यानस्थ योगी फिर से सहज जीवन में लौट आता है, तब उनकी समस्त इन्द्रियां अपने-अपने स्वभाव के अनुसार फिर से सजग हो उठती हैं। मन के द्वारा निर्देशित होने लगती हैं। प्राण ही सर्वप्रथम 'मन' को जाग्रत करता है। वही सम्पूर्ण इन्द्रियों को नियन्त्रित और अनियन्त्रित करता है। मन का सीधा सम्बन्ध 'प्रज्ञा' से है और प्रज्ञा का प्राण से। इस प्रकार प्राण, प्रज्ञा और इन्द्रियों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। प्राणतत्व से ही प्रज्ञा है और प्रज्ञा से ही समस्त इन्द्रियों को संचालन होता है। शरीर से उन्मुक्त होने वाला 'प्राण' जब उत्क्रमण करता है, तब वह उस समय इन सभी इन्द्रियों-सहित ही उत्क्रमण करता है। वाणी सभी नामों का, नाक सभी गन्धों का, चक्षु सभी रूपों का, कान सभी ध्वनियों का और मन सभी ध्यानस्थ विषयों का परित्याग कर देता है। अत: शरीर में प्राण ही वह प्रज्ञा है और प्रज्ञा ही वह प्राण है, जो एक साथ इस शरीर में निवास करते हैं। शरीर की समस्त इन्द्रियों का परिचालन इन्हीं के द्वारा होता है। प्रज्ञा के द्वारा ही वह समस्त इन्द्रियों के स्वभाव के अनुरूप अनुभूति को प्राप्त करता है। प्रज्ञा के अभाव में सभी का अस्तित्व नगण्य हो जाता है। प्राण अथवा प्रज्ञा के बिना किसी भी रूप, विषय अथवा इन्द्रिय की सिद्धि नहीं हो सकती। जिस प्रकार रथ की नेमि अरों के और अरे रथ की नाभि के आश्रित होते हैं, उसी प्रकार के समस्त इन्द्रियाँ, प्रज्ञा के द्वारा ही विद्यमान हैं। यह प्रज्ञा अथवा प्राण ही परमात्मा का आनन्दस्वरूप और अजर-अमर रूप है। यह न तो अच्छे काम से वृद्धि पाता है औ न बुरे कार्य से संकुचित होता है। यह समदर्शी है। यह समस्त लोकों का अधिपति है और सबका स्वामी है। यह प्राण ही हमारा आत्मा है। इसे जानकर ही परमात्मा की उपस्थिति को अनुभव किया जा सकता है।
इस अध्याय में गार्ग्य नामक ब्राह्मण ऋषि और काशी के विद्वान राजा अजातशत्रु के मध्य हुए वार्तालाप को आधार बनाकर संवाद-शैली में ब्रह्माण्ड की विविध शक्तियों का उल्लेख किया गया है तथा 'आत्मा' को ही 'ब्रह्म' स्वीकार किया है।
गर्ग गोत्र में उत्पन्न बलाका ऋषि के पुत्र का नाम गार्ग्य ऋषि के नाम से प्रसिद्ध था। वे चारों वेदों के प्रकाण्ड विद्वान थे। उशीनर प्रदेश उनका निवासस्थान था। वे प्राय: देश के विभिन्न प्रदेशों में भ्रमण करते रहते थे। कभी मत्स्य देश में, तो कभी कुरु-पांचाल में रहने पहुंच जाते थे। एक बार वे घूमते-घूमते काशी के विद्वान राजा अजातशत्रु के दबार में पहुंचे। वहां वे अत्यन्त अहंकारपूर्ण वाणी में राजा से बोले-'हे राजन! मैं आपको 'ब्रह्मतत्व' का उपदेश दूंगा।' गार्ग्य ऋषि के ऐसा कहने पर काशी नरेश अजातशत्रु ने कहा-'हे विप्रवर! आपके इस उपदेश के लिए मैं आपको एक सहस्त्र उत्तम कुल वाली गौएं प्रदान करूंगा। मुझे तो प्रसन्नता है कि अब तक ब्रह्मविद्या के श्रोता और दानी के रूप में मिथिला नरेश जनक का ही नाम था। आज आपने हमारे पास आकर विदेह राज जनक की भांति हमारा गौरव बढ़ाया है।' 'ब्रह्मतत्त्व' का उपदेश देते हुए ऋषि गार्ग्य और अजातशत्रु के मध्य इस सप्रकार वार्तालाप हुआ-
ऋषि गार्ग्य—'हे राजन! इस सूर्यमण्डल में जो अन्तर्यामी परमेश्वर स्थित है, मैं ब्रह्मबुद्धि से उसी की साधना करता हूं।'
अजातशत्रु—'हे ब्रह्मन! ऐसा नहीं है। यह श्वेत वस्त्रधारी सूर्य तो सभी से महान है। यह सबसे उच्च स्थिति में केन्द्रित, सबका शीश है। जो मनुष्य इस विराट पुरुष की इस प्रकार से आराधना करता है, वह सबसे उच्च स्थिति में पहुंचता है।'
ऋषि गार्ग्य-'हे राजन! चन्द्र मण्डल में जो यह अन्तर्यामी विराट पुरुष है, मैं उसे ब्रह्मरूप में मानकर उसकी उपासना करता हूं।'
अजातशत्रु-'हे विप्रवर! ऐसा नहीं है। यह तो सोम राजा है और अन्न की आत्मा भी यही है। मैं इसी प्रकार इसकी उपासना करता हूं। जो भी इस प्रकार इसकी उपासना करता है, वह निश्चिय ही अन्न की आत्मा हो जाती है तथा धन धान्य से भर जाता है।'
ऋषि गार्ग्य-'हे राजन! विद्युत मण्डल के अन्तर्गत यह जो अन्तर्यामी विराट परब्रह्म है, मैं उसी का उपासक हूं।'
अजातशत्रु-'हे विप्रवर! ऐसा नहीं है। मैं इस विद्युत को 'प्रकाश की आत्मा' मानकर इसकी उपासना करता हूं। जो भी इस प्रकार इसकी उपासना करता है, वह स्वयं प्रकाश-स्वरूप 'आत्मा' हो जाता है।'
ऋषि गार्ग्य-' हे राजन! मेघ मण्डल में गर्जना के रूप में विद्यमान उस अन्तर्यामी ईश्वर को मैं साक्षात ब्रह्म मानता हूं।'
अजातशत्रु-'हे विप्रवर! ऐसा न कहें। मैं शब्द की आत्मा समझकर ही इस श्रेष्ठ तत्त्व की उपासना करता हूं। जो इस प्रकार इसकी उपासना करता है, वह स्वयं ही शब्द की आत्मा के रूप में परिणत हो जाता है।'
ऋषि गार्ग्य ने फिर कहा-'हे राजन! आकाश मण्डल में प्रतिष्ठित परब्रह्म परमेश्वर की मैं अविनाशी ब्रह्म के रूप में उपासना करता हूं।'
अजातशत्रु ने उत्तर दिया-'हे विप्रवर! मैं इस विषय में कुछ नहीं कहना चाहता। यह तो पूर्ण, प्रवृत्ति-रहित (क्रिया-रहित) ब्रह्म, सभी से विशाल है। अवश्य ही मैं इसी रूप में इसकी उपासना करता हूं। जो ऐसे दिव्य ब्रह्म की उपासना करता है, वह समस्त प्राणियों में निर्विकार हो जाता है। समय से पूर्व उसकी मृत्यु नहीं होती।'
इसी प्रकार वार्ता को आगे बढ़ाते हुए गार्ग्य ऋषि ने वायुमण्डल में स्थित विराट पुरुष को ब्रह्म कहा, पर अजातशत्रु ने उसे इन्द्र के श्रेष्ठ ऐश्वर्य से युक्त वैकुण्ठ कहा, जहां कुण्ठाएं नष्ट हो जाती हैं औ वह सदैव अपराजित रहता है। उसके बाद ऋषि ने अग्नि मण्डल में स्थित विराट पुरुष को, जलमण्डल में उपस्थित विराट पुरुष को, दर्पण में प्रतिबिम्बित विराट पुरुष को, प्रतिध्वनि में स्थित ध्वनि को, गतिशील विराट पुरुष के पीछे उठने वाले ध्वन्यात्मक शब्द को, शरीरधारी की छाया को, शरीर में स्थित विराट पुरुष को, प्रज्ञा से युक्त प्राण-स्वरूप आत्मा को, दाहिने नेत्र में स्थित विराट पुरुष को, बाएं नेत्र में स्थित विराट पुरुष को अविनाशी ब्रह्म के रूप में उपस्थित करके, उसकी उपासना करने की बात कही। परन्तु अजातशत्रु ने क्रमश: सभी को नकारते हुए अग्नि को दूसरों का प्रहार सहन करने वाला 'विषासहि,' जल में स्थित ब्रह्म को नामधारी जीवात्मा, प्रतिबिम्ब को प्रतिरूप, प्रतिध्वनि को गति का अभावयुक्त, ध्वन्यात्मक शब्द को 'प्राणस्वरूप', शरीर की छाया को मृत्यु-रूप, शरीर में स्थित विराट पुरुष को प्रजापति का स्वरूप, प्रज्ञा से युक्त आत्मा को यम का स्वरूप, दाहिने नेत्र में स्थित पुरुष को नाम, अग्नि और ज्योति की आत्मा, बाएं नेत्र में स्थित पुरुष को सत्य, विद्युत और तेज का आत्मा बताया और उसी रूप में उनकी उपासना करने की बात कही। अजातशत्रु की बात सुनकर गार्ग्य ऋषि मौन हो गये और उन्होंने अजातशत्रु को अपना गुरु स्वीकार कर लिया, परन्तु क्षत्रिय होने के कारण अजातशत्रु ने ब्राह्मण गार्ग्य को शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया। हां, एकान्त में उन्हें उन्हें ब्रह्म का ज्ञान अवश्य कराया। वे उन्हें लेकर एक सोते हुए व्यक्ति के पास गये और उसे अनेक नामों से पुकार कर जगाने का प्रयत्न किया, परन्तु जब वह नहीं जागा, तो अजातशत्रु ने छड़ी से चोट मारकर उसे उठाया। उसके जागने पर अजातशत्रु ने ऋषि गार्ग्य से कहा-'हे विप्रवर! यह व्यक्ति इस प्रकार अचेत होकर कहां सोता था और किस प्रदेश में यह था और अब जागने के बाद यह कहां आ गया है?' ऋषि गार्ग्य इस रहस्य को नहीं समझ सके, तो राजा अजातशत्रु ने पुन: कहा-'ऋषिवर! यह पुरुष जहां सोता था, वह स्थान प्राण-रूपी हृदयकमल है। वहां 'हिता' नाम की प्रसिद्ध नाड़ी है। उसके द्वारा हृदय का विस्तार सम्पूर्ण नाड़ियों तक है, जो बाल के हजारवें भाग से भी सूक्ष्म है। इन नाड़ियों में पुरुष सोते समय स्थित रहता है। इस सोये हुए पुरुष के हृदय में स्थित 'प्राण' का सभी इन्द्रियों से समभाव है। यह प्राण ही 'आत्मा' का खोल है। यह प्रज्ञावान आत्मा इसी खोल में सूक्ष्म रूप से उसी प्रकार विराजमान रहती है, जैसे लकड़ी की म्यान में तलवार रहती है। पुरुष के जागने पर यह 'आत्मा' सम्पूर्ण 'प्राणतत्त्व' को सक्रिय कर देती है। तब उस 'साक्षी-रूप आत्मा' का सभी इन्द्रियां अनुमत सेवक की भांति अनुसरण करती हैं।'
इसी 'आत्मा' को जानने वाला ज्ञानी, इन्द्र की भांति अपने सभी शत्रु असुरों अथवा पापों को नष्ट करके त्रिलोकी का सर्वश्रेष्ठ पद प्राप्त करता है। अत: 'आत्मा' को जानने के लिए अहंकार का त्याग परम आवश्यक है। तभी वह अपने पापों कों नष्ट कर सकता है।
Seamless Wikipedia browsing. On steroids.
Every time you click a link to Wikipedia, Wiktionary or Wikiquote in your browser's search results, it will show the modern Wikiwand interface.
Wikiwand extension is a five stars, simple, with minimum permission required to keep your browsing private, safe and transparent.