Loading AI tools
जैसा कर्म वैसा फल विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
साधारण बोलचाल की भाषा में कर्म (पालि : 'कम्म') का अर्थ होता है 'क्रिया'। व्याकरण में क्रिया से निष्पाद्यमान फल के आश्रय को कर्म कहते हैं। "राम घर जाता है' इस उदाहरण में "घर" गमन क्रिया के फल का आश्रय होने के नाते "जाना क्रिया' का कर्म है। लेकिन दर्शन की दृष्टि से कर्म का अलग ही अर्थ है।
दर्शन में कर्म एक विशेष अर्थ में प्रयुक्त होता है। जो कुछ मनुष्य करता है उससे कोई फल उत्पन्न होता है। यह फल शुभ, अशुभ अथवा दोनों से भिन्न होता है। फल का यह रूप क्रिया के द्वारा स्थिर होता है। दान शुभ कर्म है पर हिंसा अशुभ कर्म है। यहाँ कर्म शब्द क्रिया और फल दोनों के लिए प्रयुक्त हुआ है। यह बात इस भावना पर आधारित है कि क्रिया सर्वदा फल के साथ संलग्न होती है। क्रिया से फल अवश्य उत्पन्न होता है। यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि शरीर की स्वाभाविक क्रियाओं का इसमें समावेश नहीं है। आँख की पलकों का उठना, गिरना भी क्रिया है, परन्तु इससे फल नहीं उत्पन्न होता। दर्शन की सीमा में इस प्रकार की क्रिया का कोई महत्व इसलिए नहीं है कि वह क्रिया मन:प्रेरित नहीं होती। उक्त सामान्य नियम मन:प्रेरित क्रियाओं में ही लागू होता है। जान बूझकर किसी को दान देना अथवा किसी का वध करना ही सार्थक है। परन्तु अनजाने में किसी का उपकार देना अथवा किसी को हानि पहुँचाना क्या कर्म की उक्तपरिधि में नहीं आता? कानून में कहा जाता है कि नियम का अज्ञान मनुष्य को क्रिया के फल से नहीं बचा सकता। गीता भी कहती है कि कर्म के शुभ अशुभ फल को अवश्य भोगना पड़ता है, उससे छुटकारा नहीं मिलता। इस स्थिति में जाने-अनजाने में की गई क्रियाओं का शुभ-अशुभ फल होता ही है। अनजाने में की गई क्रियाओं के बारे में केवल इतना ही कहा जाता है कि अज्ञान कर्ता का दोष है और उस दोष के लिए कर्ता ही उत्तरदायी है। कर्ता को क्रिया में प्रवृत्त होने के पहले क्रिया से संबंधित सभी बातों का पता लगा लेना चाहिए। स्वाभाविक क्रियाओं से अज्ञान में की गई कई क्रियाओं का भेद केवल इस बात में है कि स्वाभाविक क्रियाएँ बिना मन की सहायता के अपने आप होती हैं पर अज्ञानप्रेरित क्रियाएँ अपने आप नहीं होतीं-उनमें मन का हाथ होता है। न चाहते हुए भी आँख की पलकें गिरेंगी, पर न चाहते हुए अज्ञान में कोई क्रिया नहीं की जा सकती है। क्रिया का परिणाम क्रिया के उद्देश्य से भिन्न हो, फिर भी यह आवश्यक नहीं कि क्रिया की जाए। अत: कर्म की परिधि में वे क्रियाएँ और फल आते हैं जो स्वाभाविक क्रियाओं से भिन्न हैं।
क्रिया और फल का सम्बन्ध कार्य-कारण-भाव के अटूट नियम पर आधारित है। यदि कारण विद्यमान है तो कार्य अवश्य होगा। यह प्राकृतिक नियम आचरण के क्षेत्र में भी सत्य है। अत: कहा जाता है कि क्रिया का कर्ता फल का अवश्य भोक्ता होता है। बौद्धों ने कर्ता को क्षणिक माना है परन्तु इस नियम को चरितार्थ करने के लिए वे क्षणसंतान में एक प्रकार की एकरूपता मानते हुए कहते हैं कि एक व्यक्ति की संतान दूसरे व्यक्ति की संतान से भिन्न है। क्षणभेद होने से भी व्यक्तित्व में भेद नहीं होता; अत: व्यक्ति पूर्वनिष्पादित क्रिया का उत्तर काल में भोग करता ही है।यदि हम यह न मानें तो कहना पड़ेगा कि किसी दूसरे के द्वारा की गई क्रिया का फल कोई दूसरा भोगता है जो तर्क विरुद्ध है। यदि इस नियम पर पूर्ण आस्था हो तो तर्क हमें इसके एक अन्य निष्कर्ष को भी स्वीकार करने के लिए बाध्य करता है। यदि सभी क्रियाओं का फल भोगना पड़ता है तो उन क्रियाओं का क्या होगा जिनका फल भोगने के पहले ही कर्ता मर जाता है? या तो हमें कर्म के सिद्धांत को छोड़ना होगा या फिर, मानना होगा कि कर्ता नहीं मरता, वह केवल शरीर को बदल देता है। भारतीय विचारकों ने एक स्वर से दूसरा पक्ष ही स्वीकार किया है। वे कहते हैं कि मरना शरीर का स्वाभाविक कर्म है, परंतु भोग के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वही शरीर भोगे जिसने क्रिया की है। भोक्ता अलग है और वह कर्मफल का भोग करने के लिए दूसरा शरीर धारण करता है। इसी को पुनर्जन्मवाद कहते हैं। मृत्यु शरीर की आनुषंगिक स्वाभाविक क्रिया है जिसका कर्म पर कोई प्रभाव नहीं होता। अत: कर्म के सिद्धांत को पुनर्जन्म से अलग करके नहीं रखा जा सकता।
इतना ही नहीं, जब क्रिया का संबंध फलभोग के साथ माना जाता है तब यह भी मानना पड़ेगा कि भोग-जो शुभ अशुभ कर्मों के अनुसार सुखमय या दु:खमय होता है-अवश्यंभावी है। उससे बचा नहीं जा सकता, न तो उसको बदला जा सकता है। फल के क्षय का एकमात्र उपाय है उसको भोग लेना। इस जन्म में प्राणी जैसा है उसके पूर्व जन्मों की क्रियाओं का फल मात्र है। फल एक शक्ति है जो जीवन की स्थिति को नियंत्रित करती है। इस शक्ति का पुंज भी कर्म कहा जाता है और कुछ लोग इसे भाग्य या नियति भी कहते हैं। नियतिवाद में माना गया है कि प्राणी नियति से नियंत्रित अत: परवश है। वह स्वयं कुछ नहीं करता। परन्तु पूर्वजन्मों की क्रिया का फल भोगने के अलावा वह इस जन्म में स्वतंत्र कर्ता भी है, अत: पूर्व कर्मों को भोगने के साथ ही वह भविष्य के लिए कर्म करता है। इसी में उसका स्वातंत्र्य है। आचार के लिए स्वतंत्रता परमावश्यक है और प्राय: सभी भारतीय दार्शनिक इसे मानते हैं। क्रिया, क्रियाफल तथा क्रियाफल का समूह, जिसे अदृष्ट भी कहते हैं, भारतीय दर्शन में कर्म शब्द से अभिहित होता है।
पहले कहा गया है कि मनःप्रेरणा कर्म का आवश्यक उपकरण है। मनःप्रेरणा के शुभ या अशुभ होने से ही कर्म शुभ या अशुभ हाता है। डाक्टर रोगी की भलाई के लिए उसकी चीरफाड़ करता है। यदि इस चीरफाड़ से रोगी को कष्ट होता है तो डाक्टर उसका उत्तरदायी नहीं है। डाक्टर शुभ कर्म कर रहा है। अतः दुःख, जो अशुभ मनःप्ररेणा से की गई क्रिया का फल है, तभी दूर हो सकता है जब मन को अशुभ प्रभावों से बचाया जाए। सर्वदा शुभ कर्म करना सर्वदा शुभ सोचने से ही हो सकता है। कष्ट के बचने का यही एक उपाय है। परंतु शुभ कर्म करनेवाले व्यक्ति को फलभोग के लिए जन्म लेना ही होगा, चाहे स्वर्ग में, चाहे पृथ्वी पर। जन्म लेना अपने आपमें महान् कष्ट है क्योंकि जन्म का सम्बन्ध मृत्यु से है। मृत्यु का कष्ट दु:सह कष्ट माना गया है। अतः यदि इस कष्ट से भी छुटकारा पाना है तो जन्म की परम्परा को भी समाप्त करना होगा। इसके लिए शुभ कर्मों का भी परित्याग आवश्यक है क्योंकि बिना उसके जन्म से मुक्ति नहीं है। अतः शुभाशुभ परित्यागी ही वास्तविक दुःखमुक्त हो सकता है।
क्या शुभाशुभ परित्याग संभव है? शरीर रहते यह संभव नहीं मालूम होता। पर एक उपाय है। मन के शोधन से यह सिद्ध हो सकता है। यदि मन में किसी फल की आकांक्षा के बिना, पलक उठने गिरने की तरह, सारी क्रियाएँ स्वाभाविक रूप से की जाएँ तो उनसे शुभ अशुभ फल उत्पन्न नहीं होंगे और जन्म मृत्यु से भी छुटकारा मिल जाएगा। निष्काम कर्म का यही आदर्श है। इसके विपरीत सारे कर्म-जो शुभ अशुभ होते हैं-सकाम कर्म हैं और वे बंधन के कारण हैं।
कर्म के इस सिद्धांत के साथ स्वर्ग-नरक की कल्पनाएँ भी जुड़ी हैं। शुभ कर्मों के परिणामस्वरूप सकल सुखों से पूर्ण स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत नरक की प्राप्ति होती है। स्वर्ग नरक में भी शुभ अशुभ कर्म की मात्रा के अनुसार अनेक स्तर माने गए हैं, जैसे पृथ्वी पर अनेक स्तर हैं। कर्म के सिद्धांत को मानने पर स्वर्ग नरक की कल्पना को भी मानना आवश्यक हो जाता है। जिन्हें हम शुभ कर्म कहते हैं वे पुण्य तथा अशुभ कर्म पाप कहलाते हैं। पुण्य और पाप मुख्यत: क्रिया के फल का बोध कराते हैं। ये कर्म तीन प्रकार के हाते हैं। नित्यकर्म वे हैं जो न करने पर पाप उत्पन्न करते हैं, किन्तु करने पर कुछ भी नहीं उत्पन्न करते। नैमित्तिक कर्म करने से पुण्य तथा न करने से पाप होता है। काम्य कर्म कामना से किए जाते हैं अतः उनके करने से फल की सिद्धि होती है। न करने से कुछ भी नहीं होता। चूँकि तीनों कर्मों में यह उद्देश्य छिपा है कि पुण्य अर्जित किया जाए, पाप से दूर रहा जाए, अत: ये सभी कर्म मन:प्रेरित हैं। जन्म से छुटकारा पाने के लिए नित्य, नैमित्तिक और काम्य कर्मों का परित्याग अत्यंत आवश्यक माना गया है।
जैन दर्शन में कर्म के मुख्य आठ भेद बताए गए है[1] -
Seamless Wikipedia browsing. On steroids.
Every time you click a link to Wikipedia, Wiktionary or Wikiquote in your browser's search results, it will show the modern Wikiwand interface.
Wikiwand extension is a five stars, simple, with minimum permission required to keep your browsing private, safe and transparent.