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कर्पास कीट (Cotton Boll Weevil) कपास के पौधे, फूल और ढेंढ़ को क्षति पहुँचानेवाला एक प्रकार का घुन है। यह देखने में अनाज में लगनेवाले घुन के सदृश होता है। इसके लंबाई लगभग चौथाई इंच, रंग पीला भूरा अथवा खाकी होता है जो आयुवृद्धि के साथ काल पड़ जाता है। इसका थूथन पतला और नाप में शरीर की लंबाई का आधा होता है। पंख आस पास सटे हुए और चिकने होते हैं, जिनपर शरीर के अक्ष के समांतर पतली धारियाँ होती हैं। कर्पास कीट की अंगरचना की एक विशेषता यह भी है कि इसकी ऊर्विका (फ़ीमर, Femur) में दो काँटे (स्पर, Spur) होते हैं; भीतरी काँटा बाहरी काँटे की अपेक्षा लंबा होता है और मध्य जाँघ में केवल एक ही काँटा होता है। कर्पास कीट का आदिस्थान मेक्सिको या मध्य अमरीका है।
वयस्क अवस्था में यह कीट सूखी पत्तियों के नीचे, कपास के डंठलों के ढेरों के नीचे, वृक्षों की खोखली छालों तथा खलिहान आदि में शीतकाल व्यतीत करता है। कपास जब फूलने लगता है तब प्रौढ़ कीट सुरक्षास्थल से बाहर निकलते हैं और कपास की कोमल पत्तियों पर आक्रमण कर देते हैं। इन कीटों को कपास की कलियाँ बहुत प्रिय हैं। छह दिनों के बाद कर्पासकीट कपास के पुष्पों या कलियों में गड्डा बनाने लगते हैं और इन गड्ढ़ों में अंडे देते चलते हैं। प्रत्येक नारी १०० से ३०० तक अंडे दे सकती है। जब ढेंढ़ बनना आरंभ होता है तब वे ढेंढ़ (डोंड़ा) में अंडे देने लगते हैं। केवल तीन दिनों में ही अंडों से मक्षिजातक (ग्रब) अथवा डिंभ (लार्वा) निकल आते हैं। डिंभ दा सप्ताह तक कली या ढेंढ़ी से ही भोजन प्राप्त करते हैं और दो तीन बार त्वचाविसर्जन करके लगभग आधा इंच लंबे हो जाते हैं। उस समय इन कीटों को रंग श्वेत, शरीर की आकृति मुड़ी हुई तथा झुर्रीदार और मुँह तथा सिर का रंग भूरा होता है। डिंभ अपने जन्मस्थान कली या डोंड़ा (ढेंढ़ी) से बाहर नहीं आता और वहीं पर वह प्यूपा बन जाता है। प्यूपा अवस्था लगभग तीन से पाँच दिनों की होती है। तदुपरांत कीट की वयस्क अवस्था आ जाती है। वयस्क कीट नली या डोंड़ा को काटकर बाहर चले आते हैं। जन्मस्थान से बाहर निकलने के अनंतर मैथुन के तीन चार दिनों बाद ही नारी अंडे देने लगती है। इनका जीवनचक्र अधिक से अधिक १५-२५ दिनों का होता है :
अतएव स्पष्ट है कि एक वर्ष में केवल दो या तीन से लेकर आठ या दस पीढ़ी तक ही उत्पन्न हो सकती है। कपास के पूर्णतया पक जाने पर ये कीट २० से ५० मील तक के क्षेत्र में इधर-उधर फैल जाते हैं। शीत ऋतु आने पर ये पुन: सुरक्षित स्थानों में निष्क्रियावस्था (हाइबनेंशन, hibernation) में पड़े रहने के निमित्त चले जाते हैं।
कर्पास कीट की वृद्धि की सभी अवस्थाएँ कपास की कली या ढेंढ़ी (डोंड़ा) में ही होती है। परंतु वयस्क कीट भोजन ढूँढ़ते समय अपने पतले दाँतों को पौधों में चुभाकर उनका रस चूस लेता है। इसका प्रभाव यह होता कि कलियाँ मुरझा जाती और सूखकर गिर पड़ती हैं। अंडों में से उत्पन्न होनेवाले मक्षिजातक (grub) कलियों या डोड़ों (bolls) के भीतर के कोमल तंतुओं को खाते रहते हैं जिससे पुष्प मुरझा जाते हैं और यदि डोंड़ा बनता भी है तो उसमें रुई के रेशे कम होते हैं।
इस हानिकारक कीट के डिंभ मुख्यत: कपास पर ही अवलंबित रहते हैं, परंतु वयस्क कीटों के संबंध में ज्ञात हुआ है कि भिंडी (Okra), गुलखैरा (Hollyhock), पटसन (Hibiscus) आद भी खाते हैं। इस कीट की एक जाति जंगली कपास खाकर भी जीवित रहती है।
साधारणतया ये कीट शती ऋतु में कम हानि पहुँचाते हैं, किंतु जब कपास पूर्णतया पक जाती है तब इनपर नियंत्रण अनिवार्य हो जाता है। सफल नियंत्रण के लिए निम्नलिखित साधनों में से किन्हीं में से किन्हीं दो या तीन का एक साथ प्रयोग करना चाहिए।
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