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जिस प्रकार से कोई शब्द बोला जाता है; या कोई भाषा बोली जाती है; या कोई व्यक्ति किसी शब्द को बोलता है; उसे उसका उच्चारण कहते हैं। भाषाविज्ञान में उच्चारण के शास्त्रीय अध्ययन को ध्वनिविज्ञान की संज्ञा दी जाती है। भाषा के उच्चारण की ओर तभी ध्यान जाता है जब उसमें कोई असाधारणतया होती है, जैसे
विभिन्न लोग या विभिन्न समुदाय एक ही शब्द को अलग-अलग तरीके से बोलते हैं। किसी शब्द को बोलने का ढ़ंग कई कारकों पर निर्भर करता है। इन कारकों में प्रमुख हैं - किस क्षेत्र में व्यक्ति रहकर बड़ा हुआ है; व्यक्ति में कोई वाक्-विकार है या नहीं; व्यक्ति का सामाजिक वर्ग; व्यक्ति की शिक्षा, आदि
देवनागरी आदि लिपियों में लिखे शब्दों का उच्चारण नियत होता है किन्तु रोमन, उर्दू आदि लिपियों में शब्दों की वर्तनी से उच्चारण का सीधा सम्बन्ध बहुत कम होता है। इसलिये अंग्रेजी भाषा, फ्रांसीसी भाषा आदि भाषाओं के शब्दों के उच्चारण को बताने के लिये अन्तर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला लिपि या औडियो फ़ाइल या किसी अन्य विधि का सहारा लेना पड़ता है। किन्तु हिन्दी, मराठी, संस्कृत, नेपाली आदि के शब्दों की वर्तनी ही उनके उच्चारण के लिये पर्याप्त है।
उच्चारण के अंतर्गत प्रधानतया तीन बातें आती हैं :
इन्हीं के अंतर से किसी व्यक्ति या वर्ग के उच्चारण में अंतर आ जाता है। कभी-कभी ध्वनियों के उच्चारणस्थान में भी कुछ भेद पाए जाते हैं।
उच्चारण के अध्ययन का व्यावहारिक उपयोग साधारणतया तीन क्षेत्रों में किया जाता है :
यद्यपि संसार की भिन्न-भिन्न भाषाओं के उच्चारण में समानता का अंश अधिक पाया जाता है, तथापि साथ ही प्रत्येक भाषा के उच्चारण में कुछ विशेषताएँ भी मिलती हैं, जैसे भारतीय भाषाओं की मूर्धन्य ध्वनियाँ ट् ठ् ड् आदि, फारसी अरबी की अनेक संघर्षी ध्वनियाँ जेसे ख़ ग़्ा ज़ आदि, हिंदी की बोलियों में ठेठ ब्रजभाषा के उच्चारण में अर्धविवृत स्वर ऐं, ओं, भोजपुरी में शब्दों के उच्चारण में अंत्य स्वराघात।
भाषाओं के बोले जानेवाले रूप अर्थात् उच्चारण को लिपिचिह्नों के द्वारा लिखित रूप दिया जाता है, तथापि इस रूप में उच्चारण की समस्त विशेषताओं का समावेश नहीं हो पाता है। वर्णमालाओं का आविष्कार प्राचीनकाल में किसी एक भाषा को लिपिबद्ध करने के लिए हुआ था, किंतु आज प्रत्येक वर्णमाला अनेक संबद्ध अथवा असंबद्ध भाषाओं को लिखने में प्रयुक्त होने लगी है जिनमें अनेक प्राचीन ध्वनियाँ लुप्त और नवीन ध्वनियाँ विकसित हो गई हैं। फिर, प्राय: वर्णमालाओं में ह्रस्व, दीर्घ, बलात्मक स्वराघात, गीतात्मक स्वराघात आदि को चिह्नित नहीं किया जाता। इस प्रकार भाषाओं के लिखित रूप से उनकी उच्चारण संबंधी समस्त विशेषताओं पर प्रकाश नहीं पड़ता।
प्रचलित वर्णमालाओं के उपर्युक्त दोष के परिहार के लिए भाषाविज्ञान के ग्रंथों में रोमन लिपि के आधार पर बनी हुई अंतरराष्ट्रीय ध्वन्यात्मक लिपि (इंटरनैशनल फ़ोनेटिक स्क्रिप्ट) का प्राय: प्रयोग किया जाने लगा है। किंतु इस लिपि में भी उच्चारण की समस्त विशेषताओं का समावेश नहीं हो सका है। इनका अध्ययन तो भाषा के "टेप रिकार्ड' या "लिंग्वाफोन' की सहायता से ही संभव होता है।
भाषा के लिखित रूप का प्रभाव कभी-कभी भाषा के उच्चारण पर भी पड़ता है, विशेषतया ऐसे वर्ग के उच्चारण पर जो भाषा को लिखित रूप के माध्यम से सीखता है; जैसे हिंदीभाषी "वह' को प्राय: "वो' बोलते हैं, यद्यपि लिखते "वह' हैं। लिखित रूप के प्रभाव के कारण अहिंदीभाषी सदा "वह' बोलते हैं।
प्रत्येक भाषा के संबंध में आदर्श उच्चारण की भावना सदा वर्तमान रही है। साधारणतया प्रत्येक भाषाप्रदेश के प्रधान राजनीतिक अथवा साहित्यिक केंद्र के शिष्ट नागरिक वर्ग का उच्चारण आदर्श माना जाता है। किंतु यह आवश्यक नहीं है कि इसका सफल अनुकरण निरंतर हो सके। यही कारण है कि प्रत्येक भाषा के उच्चारण में कम या अधिक मात्रा में अनेकरूपता रहती ही है।
किसी भाषा के उच्चारण का वैज्ञानिक अध्ययन करने या कराने के लिए ध्वनिविज्ञान की जानकारी आवश्यक है। प्रयोगात्मक ध्वनिविज्ञान की सहायता से उच्चारण की विशेषताओं का अत्यंत सूक्ष्म विश्लेषण संभव हो गया है। किंतु उच्चारण के इस वैज्ञानिक विश्लेषण के कुछ ही अंशों का व्यावहारिक उपयोग संभव हो पाता है।
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