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आर्यभट्ट (द्वितीय) गणित और ज्योतिष दोनों विषयों के अच्छे आचार्य थे। इनका बनाया हुआ महासिद्धान्त ग्रंथ ज्योतिष सिद्धांत का अच्छा ग्रंथ है।
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इन्होंने भी अपना समय कहीं नहीं लिखा है। डाक्टर सिंह और दत्त का मत है (हिस्ट्री ऑव हिंदू मैथिमैटिक्स, भाग 2, पृष्ठ 89) कि ये 950 ई. के लगभग थे, जो शककाल 872 होता है। दीक्षित लगभग 875 शक कहते हैं। आर्यभट्ट द्वितीय ब्रह्मगुप्त के पीछे हुए है, क्योंकि ब्रह्मगुप्त ने आर्यभट्ट की जिन बातों का खंडन किया है वे आर्यभट्टीय से मिलती हैं, महासिद्धांत से नहीं। महासिद्धांत से तो प्रकट होता है कि ब्रह्मगुप्त ने आर्यभट्ट की जिन-जिन बातों का खंडन किया है वे इसमें सुधार दी गई हैं। कुट्टक की विधि में भी आर्यभट्ट प्रथम, भास्कर प्रथम तथा बह्मगुप्त की विधियों से कुछ उन्नति दिखाई पड़ती है। इसलिए इसमें संदेह नहीं कि आर्यभट्ट द्वितीय ब्रह्मगुप्त के बाद हुए हैं।
ब्रह्मगुप्त और लल्ल ने अयनचलन के संबंध में काई चर्चा नहीं की है, परंतु आर्यभट्ट द्वितीय ने इसपर बहुत विचार किया है। अपने ग्रंथ मध्यमाध्याय के श्लोक 11-12 में इन्होंने अयनबिंदु को एक ग्रह मानकर इसके कल्पभगण की संख्या 5,78,159 लिखी है जिससे अयनबिंदु की वार्षिक गति 173 विकला होती है जो बहुत ही अशुद्ध है। स्पष्टाधिकार में स्पष्ट अयनांश जानने के लिए जो रीति बताई गई है उससे प्रकट होता है कि इनके अनुसार अयनांश 24 अंश से अधिक नहीं हो सकता और अयन की वार्षिक गति भी सदा एक सी नहीं रहती। कभी घटते-घटते शून्य हो जाती है और कभी बढ़ते-बढ़ते 173 विकला हो जाती है। इससे सिद्ध होता है कि आर्यभट्ट द्वितीय का समय वह था जब अयनगति के kailsh में हमारे सिद्धांतों को कोई निश्चय नहीं हुआ था। मंजुल के लघुमानस में अयनचलन के संबंध में स्पष्ट उल्लेख है, जिसके अनुसार एक कल्प में अयनभगण 1,99,669 होता है, जो वर्ष में 59.9 विकला होता है। मंजुल का समय 854 शक या 932 ईस्वी है, इसलिए आर्यभट्ट का समय इससे भी कुछ पहले होना चाहिए। इसलिए इनका समय 800 शक के लगभग होना चाहिए।
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