अशोक की धम्म नीति
From Wikipedia, the free encyclopedia
धम्म शब्द संस्कृत के शब्द धर्म का पालि रूप है। प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में 'धर्म' और उसके लक्षणों पर विशद चर्चा है। इतना ही नहीं, 'परम धर्म' (सबसे बड़ा धर्म) पर भी मुनियों ने अपने-अपने विचार दिये हैं। सम्राट अशोक की धम्म नीति को समझने का सबसे अच्छा उपाय उनके शिलालेखों को पढ़ना है, जो पूरे साम्राज्य में उस समय के लोगों को धर्म के सिद्धांतों को समझाने के लिए लिखे गए थे।[1][2][3]
कतव्य मते हि मे सर्वलोकहितं तस च पुन एस मूले उस्टानं च अथ-संतोरणा च नास्ति हि कंमतरं सर्वलोकहितत्पा य च किंति पराक्रमामि अहं किंतु भूतानं आनंणं गछेयं इध च नानि सुखापयामि परत्रा च स्वगं आराधयंतु
—छठा प्रमुख शिलालेख, अशोक महान[4]
राजकार्य मे मैं कितना भी कार्य करूँ, उससे मुझको संतोष नहीं होता। क्योंकि सर्वलोकहित करना ही मैंने अपना उत्तम कर्त्तव्य माना है एवं यह उद्योग और राजकर्म संचालन से ही पूर्ण हो सकता है। सर्वलोकहित से बढ़कर दूसरा कोई अच्छा कर्म नहीं है। मैं जो भी पराक्रम करता हूँ वह इसलिए है ताकि मैं जीवमात्र का जो मुझपर ऋण है उससे मुक्त होऊँ और यहाँ इस लोक में कुछ प्राणियों को सुखी करूँ और अन्यत्र परलोक मे वे स्वर्ग को प्राप्त करें।
महान अशोक | |
---|---|
मौर्य सम्राट | |
शासनावधि | 268–232 ईसा पूर्व |
राज्याभिषेक | 268 ईसा पूर्व |
पूर्ववर्ती | बिंदुसार |
उत्तरवर्ती | दशरथ |
जन्म | 304 ईसा पूर्व, 8 अगस्त के करीब पाटिलपुत्र, पटना |
निधन | 232 के करीब उम्र 72 की उम्र में निधन पाटिलपुत्र, पटना |
समाधि | संभवतः वाराणसी के गंगा नदी में अस्थियाँ विसर्जित की गईं, |
राजवंश | मौर्य |
धर्म | बौद्ध धर्म |
अशोक के धम्म के प्रधान लक्षण ये हैं : पापहीनता, बहुकल्याण, आत्मनिरीक्षण, अहिंसा, सत्य बोलना, धर्मानुशासन, धर्ममंगल, कल्याण, दान, शौच, संयम, भाव शुद्धि, कृतज्ञता, सहिष्णुता, बड़ों का आदार करना, नैतिक आचरण।
डाॅ. स्मिथ और डाॅ. राधाकुमुद मुकर्जी के मतानुसार अशोक का धम्म सार्वकालिक, सार्वभौम और सार्वजनिक धर्म था क्योंकि उसमे सभी धर्मों के समान सिद्धान्तों का वर्णन है। अशोक सर्वत्र " धम्म " का प्रचार-प्रसार करना चाहता था क्योंकि उसमे सभी धर्मों का सार विद्यमान था। वस्तुतः अशोक का धर्म मानवीय भावनाओं से ओत-प्रोत था। डाॅ. रमाशंकर त्रिपाठी के अनुसार," जिस धर्म का स्वरूप उसने संसार के सम्मुख उपस्थित किया वह सभी सभी सम्मानित नैतिक सिद्धांतों तथा आचरणों का संग्रह है। उसने जीवन को सुखी तथा पवित्र बनाने के उद्देश्य से कुछ आन्तरिक गुणों तथा आचरणों का विधान किया है। अशोक महान का धर्म संकीर्णता तथा साम्प्रदायिकता से मुक्त था।" शिलालेक विशेषज्ञ फ्लीट के अनुसार ", अशोक का धर्म बौद्ध धर्म नही बल्कि राजधर्म (राजाज्ञा) था।"
अशोक अपने दूसरे तथा सातवें स्तंभ लेखो मे धम्म की व्याख्या इस प्रकार करता है--
- धर्म है साधुता, बहुत से अच्छे कल्याणकारी कार्य करना, कोई पाप न करना, मृदुता, दूसरों के प्रति व्यावहार मे मधुरता, दया, दान तथा शुचिता। धर्म है प्राणियों का वध न करना किसी भी प्रकार की जीव हिंसा न करना, माता-पिता तथा बड़ों की आज्ञा मानना। गुरूजनों के प्रति आदर, मित्र, परिचितों, संबंधियों, ब्राह्मण तथा श्रमणों के प्रति दानशीलता तथा उचित व्यवहार और दास तथा भृत्यों के प्रति उचित व्यवहार करना।