प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध
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प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध पंजाब के सिख राज्य तथा अंग्रेजों के बीच 1845-46 के बीच लड़ा गया था। इसके परिणाम स्वरूप सिख राज्य का कुछ हिस्सा अंग्रेजी राज का हिस्सा बन गया।
- प्रथम सिक्ख युद्ध का प्रथम रण (१८ दिसम्बर १८४५) मुदकी में हुआ। प्रधानमंत्री लालसिंह के रणक्षेत्र से पलायन के कारण सिक्ख सेना की पराजय निश्चित हो गई।
- दूसरा मोर्चा (२१ दिसंबर) फिरोजशाह में हुआ। अंग्रेजी सेना की भारी क्षति के बावजूद, रात में लालसिंह, तथा प्रात: प्रधान सेनापति तेजासिंह के पलायन के कारण सिक्ख सेना पुन: पराजित हुई।
- तीसरा मोर्चा (२१ जनवरी १८४६) बद्दोवाल में हुआ। रणजीतसिंह तथा अजीतसिंह के नायकत्व में सिक्ख सेना ने हैरी स्मिथ को पराजित किया; यद्यपि ब्रिगेडियर क्योरेटन द्वारा सामयिक सहायता पहुँचने के कारण अंग्रेजी सेना की परिस्थिति कुछ सँभल गई।
- चौथा मोर्चा (२८ जनवरी) अलीवाल में हुआ, जहाँ अंग्रेजों का सिक्खों से अव्यवस्थित संघर्ष (Skirmish) हुआ।
- अंतिम रण (१० फरवरी) स्व्रोओं में हुआ। तीन घंटे की गोलाबारी के बाद, प्रधान अंग्रेजी सेनापति लार्ड गफ ने सतलुज के बाएँ तट पर स्थित सुदृढ़ सिक्ख मोर्चे पर आक्रमण कर दिया। प्रथमत: गुलाब सिंह ने सिक्ख सेना को रसद पहुँचाने में जान-बूझकर ढील दी। दूसरे, लाल सिंह ने युद्ध में सामयिक सहायता प्रदान नहीं की। तीसरे, प्रधान सेनापति तेजासिंह ने युद्ध के चरम बिंदु पर पहुँचने के समय मैदान ही नहीं छोड़ा, बल्कि सिक्ख सेना की पीठ की ओर स्थित नाव के पुल को भी तोड़ दिया। चतुर्दिक घिरकर भी सिक्ख सिपाहियों ने अंतिम मोर्चे तक युद्ध किया, किंतु, अंतत:, उन्हें आत्मसमर्पण करना पड़ा।
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२० फ़रवरी १८४६, को विजयी अंग्रेज सेना लाहौर पहुँची। लाहौर (९ मार्च) तथा भैरोवाल (१६ दिसंबर) की संधियों के अनुसार पंजाब पर अंग्रेजी प्रभुत्व की स्थापना हो गई। लारेंस को ब्रिटिश रेजिडेंट नियुक्त कर विस्तृत प्रशासकीय अधिकार सौंप दिए गए। अल्प वयस्क महाराजा दिलीप सिंह की माता तथा अभिभावक रानी जिंदाँ को पेंशन बाँध दी गई। अब पंजाब का अधिकृत होना शेष रहा जो डलहौजी द्वारा संपन्न हुआ।