गोलोक
श्री राधाकृष्ण का दिव्य निवास स्थान / From Wikipedia, the free encyclopedia
गोलोक परम पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्णा का निवास स्थान है।[1][2] जहाँ पर भगवान कृष्ण श्री राधा रानी संग निवास करते हैं।[3] वैष्णव मत के अनुसार भगवान श्री कृष्ण ही परंब्रह्म हैं और उनका निवास स्थान गोलोक धाम है, जोकि नित्य है, अर्थात सनातन है। इसी लोक को परमधाम कहा गया है। कई भगवद्भक्तों ने इस लोक की परिकल्पना की है। गर्ग संहिता व ब्रह्म संहिता मे इसका बड़ा ही सुंदर वर्णन हुआ है। बैकुंठ लोकों मे ये लोक सर्वश्रेष्ठ है, और इस लोक का स्वामित्व स्वयं भगवान श्री कृष्ण ही करते हैं। इस लोक मे भगवान अन्य गोपियों सहित निवास तो करते ही हैं, साथ ही नित्य रास इत्यादि क्रीड़ाएँ एवं महोत्सव निरंतर होते रहते हैं। इस लोक मे, भगवान कृष्ण तक पहुँचना ही हर मनुष्यात्मा का परंलक्ष्य माना जाता है।
श्री गर्ग-संहिता मे कहा गया है:[4]
- आनंदचिन्मयरसप्रतिभाविताभिस्ताभिर्य एव निजरूपतया कलाभिः।
- गोलोक एव निवसत्यखिलात्मभूतो गोविंदमादिपुरुषम तमहं भजामि॥
अर्थात- जो सर्वात्मा होकर भी आनंदचिन्मयरसप्रतिभावित अपनी ही स्वरूपभूता उन प्रसिद्ध कलाओं (गोप, गोपी एवं गौओं) के साथ गोलोक मे ही निवास करते हैं, उन आदिपुरुष गोविंद की मै शरण ग्रहण करता हूँ।[5]
गोलोक धाम को वृन्दावन,साकेत, परंस्थान, सनातन आकाश, परंलोक, या वैकुंठ भी कहा जाता है। संसारिक मोह-माया से परे वह लोक अनिर्वचनीय है अर्थात उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती; उसकी परिकल्पना भी वही कर सकता है जिसके हृदय मे भगवद्भक्ति व प्रेम हो। इस धाम को ही प्रेम और भक्ति का धाम भी कहा जाता है। वह लोक स्वयं कृष्ण की भांति ही अनंत है। जिस प्रकार संसार को चलाने वाले तीनों गुणो- सतोगुण, रजोगुण, एवं तमोगुण से भी परे श्री कृष्ण है, उसी प्रकार यह धाम भी इन तीनों गुणो से परे है ।
भगवद्गीता में (15.6) [6]भगवान श्री कृष्ण के धाम का वर्णन इस प्रकार हुआ है-
- न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः ।
- यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥
इसमे श्री कृष्ण कहतें हैं- "मेरा परमधाम न तो सूर्य या चंद्रमा द्वारा, न ही अग्नि द्वारा प्रकाशित होता है। जो लोग वहाँ पहुँच जाते हैं वें इस भौतिक जगत मे फिर कभी नहीं लौटते।" यह श्लोक उस परम धाम का वर्णन करता है। हम यह जानते हैं की भौतिक जगत (पृथ्वी लोक) के आकाश मे प्रकाश का स्तोत्र सूर्य, चन्द्र, तारे इत्यादि ही हैं। किन्तु इस श्लोक मे भगवान बताते हैं कि नित्य आकाश मे किसी सूर्य, चन्द्र, अग्नि की कोई भी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह परमेश्वर से निकालने वाली ब्रह्मज्योति से प्रकाशित है।
ब्रह्मसंहिता (5.37) मे भी इसका अति सुंदर वर्णन मिलता है- गोलोक एव निवसत्यखिलात्मभूतः[7]